"तन मन धन सब है तेरा,स्वामी सब कुछ है तेरा ।
तेरा तुझ को अर्पण ,तेरा तुझ को अर्पण,क्या लागे मेरा ?
ॐ जय जगदीश हरे ॥"
यह उस आरती का कुछ अंश है ,जो प्रायः प्रत्येक व्यक्ति सुबह शाम अपने घर,मंदिर और कार्यस्थल पर करता है,बिलकुल एक टेप रिकॉर्डर की मानिंद । उसे स्वयं को पता नहीं होता कि वह उच्च स्वर में क्या गाये जा रहा है ? हम कई बार और कई चीजें बेहोशी में करते जा रहे हैं और हमें इसका पता भी नहीं चलता । आरती शुरू करते हैं तो पता होता है कि आरती का प्रारम्भ हो रहा है और समाप्ति का भी पता चल जाता है कि आरती समाप्त हो गयी है । परन्तु यह पता नहीं रहता कि आरती में हमने अपने प्रभु से क्या कहा ? अगर पता होता तो प्रतिदिन एक ही बात को दोहराने की क्या आवश्यकता ? दोहराने के स्थान पर हमें कही गयी बातों पर अमल करना चाहिए । तभी उस आरती की ,उस प्रार्थना की सार्थकता है । हमने तन और मन का अर्पण तो देख ही लिया अब धन के अर्पण के बारे में भी थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं ।
धन,वास्तव में है क्या ? इसको जाने बगैर हम इसकी उपयोगिता,उपार्जन ,सृजन और विसर्जन के बारे में कुछ भी नहीं जान पाएंगे । धन उस परिणाम को कहते है,जो व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ करने के उपरांत प्राप्त होता है । आम व्यक्ति धन को अर्थ की दृष्टि से देखता है । आम बोलचाल में धन उस मुद्रा को कहते हैं जो व्यापार में क्रय-विक्रय और लेन-देन के लिए उपयोग में ली जाती है । धन मुद्रा के रूप में भी हो सकता है,वस्तु के रूप में भी हो सकता है और जीवित प्राणियों तथा धातु और अधातु के रूप में भी । कई दार्शनिक व्यक्ति ज्ञान को भी एक प्रकार का धन मानते हैं और कुछेक आत्म-संतोष को भी धन की उपमा देते हैं । सब धन,सम्पति के रूप में परिभाषित किये जा सकते हैं परन्तु वास्तविकता में धन उस वस्तु का नाम है जो प्रायः लेन-देन के काम आती है । यह धन केवल इस भौतिक संसार में ही प्रचलन में रहता है और भौतिक शरीर के द्वारा उपयोग में लिया जाता है । भौतिक शरीर के समाप्त होते ही उस व्यक्ति के लिए इस धन का कुछ भी महत्व नहीं रहता । सब कुछ यहीं पर पीछे छूट जाता है ।
धन कमाने को अर्थार्जन कहते हैं ,उसको सहेजने को,धन से सम्पति का निर्माण करने को सृजन कहते हैं और इसको उपयोग में लेने को विसर्जन कहते है । धन का उपार्जन (Earn), सृजन (Creation) और विसर्जन (Dispersion) किस प्रकार किया जाये ? यही मूल विषय है । ऐसे तो इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति धन को उपार्जित ,सृजित और विसर्जित करने में लगा हुआ है परन्तु क्या वह ऐसा शास्त्रोक्त तरीके से कर रहा है,क्या उसका करना वास्तविकता में उचित है ? यह सब हमारे लिए जानना आवश्यक है ।धन कभी भी सदा के लिए नहीं होता और न ही इसका उपयोग करना सदैव ही इसको अर्जित करने वाले के हाथ में होता है । सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि धन को उपार्जित किस प्रकार किया गया है ?
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
तेरा तुझ को अर्पण ,तेरा तुझ को अर्पण,क्या लागे मेरा ?
ॐ जय जगदीश हरे ॥"
यह उस आरती का कुछ अंश है ,जो प्रायः प्रत्येक व्यक्ति सुबह शाम अपने घर,मंदिर और कार्यस्थल पर करता है,बिलकुल एक टेप रिकॉर्डर की मानिंद । उसे स्वयं को पता नहीं होता कि वह उच्च स्वर में क्या गाये जा रहा है ? हम कई बार और कई चीजें बेहोशी में करते जा रहे हैं और हमें इसका पता भी नहीं चलता । आरती शुरू करते हैं तो पता होता है कि आरती का प्रारम्भ हो रहा है और समाप्ति का भी पता चल जाता है कि आरती समाप्त हो गयी है । परन्तु यह पता नहीं रहता कि आरती में हमने अपने प्रभु से क्या कहा ? अगर पता होता तो प्रतिदिन एक ही बात को दोहराने की क्या आवश्यकता ? दोहराने के स्थान पर हमें कही गयी बातों पर अमल करना चाहिए । तभी उस आरती की ,उस प्रार्थना की सार्थकता है । हमने तन और मन का अर्पण तो देख ही लिया अब धन के अर्पण के बारे में भी थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं ।
धन,वास्तव में है क्या ? इसको जाने बगैर हम इसकी उपयोगिता,उपार्जन ,सृजन और विसर्जन के बारे में कुछ भी नहीं जान पाएंगे । धन उस परिणाम को कहते है,जो व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ करने के उपरांत प्राप्त होता है । आम व्यक्ति धन को अर्थ की दृष्टि से देखता है । आम बोलचाल में धन उस मुद्रा को कहते हैं जो व्यापार में क्रय-विक्रय और लेन-देन के लिए उपयोग में ली जाती है । धन मुद्रा के रूप में भी हो सकता है,वस्तु के रूप में भी हो सकता है और जीवित प्राणियों तथा धातु और अधातु के रूप में भी । कई दार्शनिक व्यक्ति ज्ञान को भी एक प्रकार का धन मानते हैं और कुछेक आत्म-संतोष को भी धन की उपमा देते हैं । सब धन,सम्पति के रूप में परिभाषित किये जा सकते हैं परन्तु वास्तविकता में धन उस वस्तु का नाम है जो प्रायः लेन-देन के काम आती है । यह धन केवल इस भौतिक संसार में ही प्रचलन में रहता है और भौतिक शरीर के द्वारा उपयोग में लिया जाता है । भौतिक शरीर के समाप्त होते ही उस व्यक्ति के लिए इस धन का कुछ भी महत्व नहीं रहता । सब कुछ यहीं पर पीछे छूट जाता है ।
धन कमाने को अर्थार्जन कहते हैं ,उसको सहेजने को,धन से सम्पति का निर्माण करने को सृजन कहते हैं और इसको उपयोग में लेने को विसर्जन कहते है । धन का उपार्जन (Earn), सृजन (Creation) और विसर्जन (Dispersion) किस प्रकार किया जाये ? यही मूल विषय है । ऐसे तो इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति धन को उपार्जित ,सृजित और विसर्जित करने में लगा हुआ है परन्तु क्या वह ऐसा शास्त्रोक्त तरीके से कर रहा है,क्या उसका करना वास्तविकता में उचित है ? यह सब हमारे लिए जानना आवश्यक है ।धन कभी भी सदा के लिए नहीं होता और न ही इसका उपयोग करना सदैव ही इसको अर्जित करने वाले के हाथ में होता है । सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि धन को उपार्जित किस प्रकार किया गया है ?
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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