मन की चंचलता और गति को रोकने या नियंत्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि मन को सांसारिकता से हटाकर आध्यात्मिकता की तरफ लगाया जाये । इसलिए यहाँ इस संसार में प्रत्येक कोई आध्यात्मिक होने के प्रयास में है । विचारणीय है कि आध्यात्मिक कैसे हुआ जाये ? इस आध्यात्मिकता को व्यक्ति पकड़ना चाहता है जब कि आध्यात्मिकता कुछ पकड़ने की वस्तु नहीं है । इसी कारण से व्यक्ति में एक प्रकार का भटकाव पैदा हो जाता है । उसकी सोच ही गलत है । वह इसे पकड़ना चाहता है और आध्यात्मिकता कुछ पकड़ने से पकड़ में नहीं आती बल्कि कुछ छोड़ने से , कुछ त्यागने से पकड़ में आती है । हम त्यागना तो कुछ भी नहीं चाहते और सब कुछ पाना चाहते हैं । इस सब कुछ पाने के प्रयास में हम काफी कुछ खो देते हैं और इस खोने का ज्ञान हमें नहीं हो पाता । हम अपना कीमती समय कुछ पाने के चक्कर में गवां देते है,हम अपना यह शरीर,केवल जिससे ही हम पुरुषार्थ कर कुछ पा सकते हैं ,वह भी जीर्ण शीर्ण होकर समाप्त होने की कगार तक पहुँच जाता है । अंत में भी हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता । सब कुछ पाने के प्रयास में हमें मात्र कूड़ा करकट ही हाथ लगता है,जिसका कुछ भी मोल नहीं होता ।
अगर आध्यात्मिक होना है,मन को आत्मा और परमात्मा की ओर ले जाना है तो आपको सांसारिकता का त्याग करना पड़ेगा । "सांसारिकता का त्याग"-कहने में बड़ा आसान लगता है परन्तु करना बड़ा ही मुश्किल है । मैं तो यहाँ तक दावे के साथ कह सकता हूँ कि संसार का त्याग असंभव ही है । संसार का त्याग कोई घर बार छोड़ कर जंगल या पहाड़ों पर चले जाने से नहीं होता । आपके मन में जो संसार बसा है उसे निकाल बाहर फैंकने की आवश्यकता है । अगर आपके मन में सांसारिकता नहीं है तो फिर आप चाहे घर पर हो,बाज़ार में हो या किसी मयखाने में,आप आध्यात्मिक हैं । और इस आध्यात्मिकता के लिए किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होगी । आपका मन ही इसका प्रमाण होगा । मैंने ऐसे सैकड़ो व्यक्ति देखे हैं जिनकी भक्ति भाव की सभी लोग प्रसंशा करते है ,परन्तु जब वे मंदिर से घर आते हैं तो उनका व्यवहार एक दम विपरीत हो जाता है ,बाज़ार में वे एक अलग तरह के व्यक्ति होते हैं और मंदिर में एकदम अलग । यह आध्यात्मिकता कदापि भी नहीं है । आध्यात्मिक व्यक्ति सदैव एक जैसा ही रहता है,मंदिर में भी वही,व्यापर में भी वही ,घर और बाहर एक समान । साधारण व्यक्ति और परमात्मा दोनों के साथ भी एक समान व्यवहार । बिलकुल कबीर की तरह । प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा को देखना । इसीलिए कबीर कह सके-
मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
जब मन संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो जाता है तो फिर उस व्यक्ति को परमात्मा को ढूँढना नहीं पड़ता बल्कि परमात्मा स्वयं उसे ढूंढ लेगा । यही इस मन की अवस्था में परिवर्तन का सुखद परिणाम है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
अगर आध्यात्मिक होना है,मन को आत्मा और परमात्मा की ओर ले जाना है तो आपको सांसारिकता का त्याग करना पड़ेगा । "सांसारिकता का त्याग"-कहने में बड़ा आसान लगता है परन्तु करना बड़ा ही मुश्किल है । मैं तो यहाँ तक दावे के साथ कह सकता हूँ कि संसार का त्याग असंभव ही है । संसार का त्याग कोई घर बार छोड़ कर जंगल या पहाड़ों पर चले जाने से नहीं होता । आपके मन में जो संसार बसा है उसे निकाल बाहर फैंकने की आवश्यकता है । अगर आपके मन में सांसारिकता नहीं है तो फिर आप चाहे घर पर हो,बाज़ार में हो या किसी मयखाने में,आप आध्यात्मिक हैं । और इस आध्यात्मिकता के लिए किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होगी । आपका मन ही इसका प्रमाण होगा । मैंने ऐसे सैकड़ो व्यक्ति देखे हैं जिनकी भक्ति भाव की सभी लोग प्रसंशा करते है ,परन्तु जब वे मंदिर से घर आते हैं तो उनका व्यवहार एक दम विपरीत हो जाता है ,बाज़ार में वे एक अलग तरह के व्यक्ति होते हैं और मंदिर में एकदम अलग । यह आध्यात्मिकता कदापि भी नहीं है । आध्यात्मिक व्यक्ति सदैव एक जैसा ही रहता है,मंदिर में भी वही,व्यापर में भी वही ,घर और बाहर एक समान । साधारण व्यक्ति और परमात्मा दोनों के साथ भी एक समान व्यवहार । बिलकुल कबीर की तरह । प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा को देखना । इसीलिए कबीर कह सके-
मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
जब मन संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो जाता है तो फिर उस व्यक्ति को परमात्मा को ढूँढना नहीं पड़ता बल्कि परमात्मा स्वयं उसे ढूंढ लेगा । यही इस मन की अवस्था में परिवर्तन का सुखद परिणाम है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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