धन का उपार्जन और संग्रह दोनों ही अनुचित नहीं है । धन का उपार्जन उचित तरीके से ही होना चाहिए ,किसी को धोखा देकर नहीं,किसी की चोरी करके नहीं, न ही किसी की अमानत में खयानत करके और न ही किसी का दिल दुखाकर । धन को कमाने के बाद उसका संग्रह आवश्यक समझा जाता है जिसको हम बचत करना कहते हैं । यह बचत भविष्य में पड़ने वाली धन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर की जाती है । बचत करना किसी भी रूप में हो सकता है । प्रायः लोग बचत करने के साथ साथ धन में सतत वृद्धि भी होती रहे,ऐसा सोचते हैं । यह भी किसी रूप में अनुचित नहीं है । धन का निवेश बचत के लिए और धन में वृद्धि के लिए किया जाये तो उत्तम है । इस धन के निवेश को सृजन कहते हैं । सृजन से धन में वृद्धि भी होती रहती है और भविष्य की सुरक्षा भी । सृजन करने के कई तरीके होते हैं । प्रायः व्यक्ति अपनी बचत का धन भूमि आदि खरीदने में लगाता है या कोई कीमती धातु आदि खरीद कर रख लेता है जिसे आवश्यकता के समय बेचकर उस धन को उपयोग में लाया जा सकता है । यह तरीका सुरक्षित भी है और सही भी । कुछ व्यक्ति लोभवश किसी जरूरतमंद व्यक्ति को अपन धन उच्च ब्याजदर पर उपलब्ध करवाते है । यह रास्ता अनुचित भी है और सुरक्षित भी नहीं है । अतः ऐसे रास्ते में किये जाने वाले धन के निवेश के परिणाम प्रायः दुखद ही होते हैं ।
धन एक प्रकार से व्यक्ति की सेवा के लिए होता है न कि व्यक्ति उस धन की सेवा करने लग जाये । धन से व्यक्ति को सुख के साधन प्राप्त होते हैं परन्तु जब धन को केवल संग्रहित ही ककरने लग जाएँ और उससे सुख प्राप्त करने के लिए व्यय न करे तो ऐसी स्थिति में यही धन आपके लिए दुःख का कारण बन जाता है । व्यक्ति को दिनरात उसकी सुरक्षा की चिंता रहती है और इस चिंता में उसके भौतिक शरीर का क्षय होने लगता है । इसलिए आवश्यक है कि धन को केवल उपार्जित और संग्रहित करने में ही न लगे रहे बल्कि उसका सदुपयोग भी साथ साथ करते रहें । धन के सदुपयोग से आपको शारीरिक सुख के साथ साथ मानसिक शांति भी प्राप्त होगी । ऐसे में जो मानसिक शांति प्राप्त होती है वह अमूल्य होती है ।
संस्कृत का एक बहुत ही लोक प्रिय श्लोक है -
अलसस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम्,अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
अर्थात,जो कार्य करने में आलसी है वह विद्या प्राप्त नहीं कर सकता ,बिना विद्या के धन की प्राप्ति होना असंभव है ,बिना धन पास में हुए कोई भी मित्रता नहीं रखेगा और बिना किसी मित्र के सुख कैसे मिल सकता है ? आपके पास अगर धन संग्रहित किया हुआ है तो आपके पास मित्रों की कोई कमी नहीं होगी । मित्र आपके सुख-दुःख के साथी होते है ,इसीलिए यह कहा जाता है कि मित्र ही सुख प्रदान कर सकता है । चूँकि धन के कारण ही आपको मित्र मिलते है इसी लिए धन को ही मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र कहा गया है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
धन एक प्रकार से व्यक्ति की सेवा के लिए होता है न कि व्यक्ति उस धन की सेवा करने लग जाये । धन से व्यक्ति को सुख के साधन प्राप्त होते हैं परन्तु जब धन को केवल संग्रहित ही ककरने लग जाएँ और उससे सुख प्राप्त करने के लिए व्यय न करे तो ऐसी स्थिति में यही धन आपके लिए दुःख का कारण बन जाता है । व्यक्ति को दिनरात उसकी सुरक्षा की चिंता रहती है और इस चिंता में उसके भौतिक शरीर का क्षय होने लगता है । इसलिए आवश्यक है कि धन को केवल उपार्जित और संग्रहित करने में ही न लगे रहे बल्कि उसका सदुपयोग भी साथ साथ करते रहें । धन के सदुपयोग से आपको शारीरिक सुख के साथ साथ मानसिक शांति भी प्राप्त होगी । ऐसे में जो मानसिक शांति प्राप्त होती है वह अमूल्य होती है ।
संस्कृत का एक बहुत ही लोक प्रिय श्लोक है -
अलसस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम्,अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
अर्थात,जो कार्य करने में आलसी है वह विद्या प्राप्त नहीं कर सकता ,बिना विद्या के धन की प्राप्ति होना असंभव है ,बिना धन पास में हुए कोई भी मित्रता नहीं रखेगा और बिना किसी मित्र के सुख कैसे मिल सकता है ? आपके पास अगर धन संग्रहित किया हुआ है तो आपके पास मित्रों की कोई कमी नहीं होगी । मित्र आपके सुख-दुःख के साथी होते है ,इसीलिए यह कहा जाता है कि मित्र ही सुख प्रदान कर सकता है । चूँकि धन के कारण ही आपको मित्र मिलते है इसी लिए धन को ही मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र कहा गया है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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