Sunday, June 8, 2014

तन |-७

                                  जो तेरा नहीं, उसे तन कहते हैं |तन,स्थूल शरीर है |इसकी प्रकृति जड़ है,अपरा है |हम यह भौतिक शरीर नहीं है |जिसको आप "मैं हूँ "कहते हो ,वह अपने इस तन को नहीं कहते हो |"मैं" तन से बिलकुल ही विलग है |तन "मैं"का एक अस्थाई निवास स्थान है ,धर्मशाला है,जिसमे कुछ समय के लिए "मैं" रहने के लिए आया है |जिस प्रकार आप अपने घर से किसी अन्य शहर में किसी काम को करने के उद्देश्य से जाते हो तो वहां पर अस्थाई तौर पर रहने के लिए किसी धर्मशाला या रेस्ट हाउस में रूकते हो |ज्योंही वहां आपका काम पूरा हो जाता है,फिर आप वहां पल भर को भी नहीं ठहरते हो | कई बार ऐसा भी होता है कि जिस कार्य से आप वहां गए हो उसके निकट भविष्य में पूरा होने की सम्भावना नहीं होती ,ऐसी स्थिति में भी आप अपना अस्थाई निवास तुरंत ही छोड़ देते हो और कुछ समय बाद अपने उद्देश्य के लिए फिर वहां  जाकर किसी नए स्थान पर ठहरते हो |इसी प्रकार अपना यह तन है |किसी उद्देश्य के लिए हमें यह मिला है |उद्देश्य पूरा होते ही इसे छोड़ना होगा और अगर उद्देश्य पूरा होने की सम्भावना नहीं होती तो भी इस तन को त्यागना होता है और कुछ समय बाद उसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए नए तन में जाना होता है |
                        जब इस भौतिक शरीर की मृत्यु हो जाती है तब इसे केवल देह या बॉडी कहा जाने लगता है । आज कल जब किसी की मृत्यु हो जाती है तब हर कोई पूछता है-Dead  body को घर पर कब लाएंगे । अथवा फलां व्यक्ति की body का अंतिम संस्कार कितने बजे है । यह सब साबित करता है कि हमें भी भीतर यह ज्ञान होता है कि यह "मैं"कोई तन या भौतिक शरीर नहीं है । मृत्यु के साथ ही आपका यह "मैं"भी उस भौतिक शरीर को त्याग देता है । कहने का अर्थ यह है कि इस भौतिक शरीर पर भी "मैं"का अधिकार नहीं है ।
                         इस प्रकार इस तन की चौथी विशेषता यह हुई कि इस तन पर आपका एकाधिकार नहीं है |आज आपके पास मनुष्य का तन है,कल वापिस मनुष्य का भी हो सकता है या फिर किसी अन्य प्राणी का |और अगर मनुष्य का तन ही पुनः प्राप्त होता है तो यह परिवर्तित होते हुए किसी पुरुष या स्त्री का भी हो सकता है |फिर इस तन को अपना मानना कहाँ तक उचित है ? इसी लिए तन के बारे में सिद्ध साधू पुरुष ज्ञान देते हैं कि "त"का अर्थ है तेरा और "न" का अर्थ है नहीं |तन यानि तेरा नहीं |इसलिए इस तन को सजाने संवारने में ज्यादा समय बर्बाद न करे |इस तन की सुन्दरता का कोई महत्त्व नहीं है |मानव तन मिलने का अर्थ यह है कि इसका सदुपयोग करें,दुरूपयोग नहीं |सदुपयोग है-इस तन को परमार्थ में लगाना,स्वयं के लिए तो पशु भी जीते हैं |परमार्थ मार्ग ही परमात्मा का मार्ग है |इस तन के बारे में कबीर कहते हैं-
             "यह तन एक दिन खाक मिलेगा,काहे फिरे मगरूरी में |
              कहत कबीर सुनो भाई साधो,साहिब मिले सबूरी में ||
              मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में..................||"
        इस तन को एक दिन समाप्त होकर मिट्टी में मिलजाना है |इस शरीर सौष्ठव को निहारकर इतराएँ नहीं |इस तन पर घमंड न करे |यह तन तेरा नहीं है |प्रत्येक स्थान पर,प्रत्येक उपलब्धि पर संतोष धारण कर लें, संतोष ही आपको परमात्मा के द्वार तक ले जायेगा |  एक बार संतोष धारण करना आ गया,फिर आपका ध्यान इस तन से हटकर परमात्मा की और लगने लगेगा |जब परमात्मा में मन लगना शुरू हो जाता है तो फिर सभी ओर वही नज़र आता है |तन पाने का उद्देश्य सांसारिक न रहकर पारमार्थिक हो जाता है |परमार्थ ही मुक्ति का मार्ग है |
क्रमशः
                             ॥  हरिः शरणम् ॥      

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