Sunday, June 15, 2014

मन |-५

                    बेचारा  मन ,एक बड़ी दुविधा लिए आत्मा और तन  के बीच फंसा है,कभी इधर जाऊँ  कभी उधर , कब किधर जाऊँ ,इसी दुविधा में मानव तन के समाप्त होने का समय आ जाता है।कबीर कहते हैं-
                        चलती चाकी देखकर,दिया कबीरा रोय ।
                        दो पाटों के बीच में ,साबुत बचा न कोय ॥
यही तो इस मानव मन की दुविधा है ।  संसार में रहते हुए उसे सुख मिलता है उसमे वह कुछ समय के लिए ही सही परन्तु संतुष्ट रहता है क्योंकि वह इसी को  वास्तविक सुख समझता है । जबकि वास्तविकता में  सुख इस संसार से न तो किसी को  मिला है और न ही कभी भविष्य में मिलने की सम्भावना है । जिसे हम सुख समझ रहे हैं वह केवल इस तन को भौतिक रूप से  प्राप्त हो रही सुख की अनुभूति मात्र है ।वास्तविकता में यह सुख नहीं है । सुख की झूठी अनुभूति के कारण ही  मनुष्य को संसार प्रिय लगने लगता है ।  जब एक सुख की अनुभूति से मन उकता जाता है,जो कि एक स्थिति में होना ही है ,तब यह मन उससे कहीं और अधिक उत्तम सुख को पाने के लिए लालायित हो जाता है । बार बार हो रही इस  मन की भटकन को ही मन की चंचलता कहते है ।
                     मन की चंचलता पर काबू पाने के लिए व्यक्ति को अपनी आत्मिक ऊर्जा को पहले तो  सम्भालना होगा फिर उसे संवारते हुए बढ़ाना होगा । सँभालने से  अर्थ है कि हम आधुनिकता की इस भागदौड़ में  अपनी आत्मिक ऊर्जा को लगभग विस्मृत कर चुके हैं । इस ऊर्जा को सँभालने के बाद ही हम इसको संवारते हुए अतिरिक्त ऊंचाई पर ले जा सकते हैं । साथ ही साथ हमें अपने आप को पहचानना होगा कि  वास्तविकता में हम हैं क्या ? हम तन तो हो नहीं  सकते । जब हम तन नहीं है तो मन भी नहीं है क्योंकि दोनों की प्रकृति एक ही है । फिर हम  क्या हैं? जिस दिन हमें इसका उत्तर मिल जायेगा उस दिन हम आध्यात्मिक व्यक्ति कहलाने लगेंगे ।जब हम तन नहीं है ,मन भी नहीं हैं तो शेष जो बचता है ,हम वही हैं -आत्मा ,परमात्मा का  अंश । लेकिन इतना पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है कि "मैं तन और मन नहीं हूँ बल्कि एक आत्मा हूँ। "इस बात को आत्मसात कर लेना ही आध्यात्मिकता है ।
                      मन की चंचलता को नियंत्रण में करने का दूसरा उपाय है तन की ऊर्जा को नियंत्रित करते हुए उसमे कमी लाना,जिससे मन पर उस ऊर्जा का प्रभाव कम  हो सके । इसके लिए भी हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि संसार में आज तक किसी को भी स्थाई सुख प्राप्त नहीं हुआ है और न ही होगा । जिसको आप सुख समझ रहे हैं वह भविष्य में आनेवाले दुःख की आहट मात्र है । इस बात को भी केवल पढने और सुनने से भी कुछ परिवर्तित नहीं होने वाला,बल्कि इसे आत्मसात भी करना होगा । संसार की भौतिक वस्तुओं से सुख को चाहना ही सांसारिकता है । ऐसी परिस्थिति में मन सांसारिक हो जाता है और यही मन का संसार है ।
                      मन का संसार से लगाव ही बंधन कहलाता है और आत्मा से लगाव मोक्ष । पहली से दूसरी स्थिति में आने के लिए मन की चंचलता और गति पर लगाम लगाना आवश्यक है ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥     

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