Tuesday, June 24, 2014

धन |-३

                                   इस कहानी के आधार पर हम धन में आसक्ति को समझ सकते हैं । "९९ का फेर " धन में आसक्ति होने का सबसे बड़ा प्रमाण है । जब तक मनुष्य की गांठ में धन नहीं होगा तब तक उसमे आसक्ति होने का प्रश्न ही नहीं होता । आसक्ति किसी भी वस्तु में हो,सबसे अनुचित है । क्योंकि आसक्ति व्यक्ति की मनोदशा ही बदल डालती है । इस आसक्ति के कारण व्यक्ति दिनभर उलझन में फंसा रहता है जिस कारण वह न तो दिन में चैन से बैठ पाता है और न ही रात को चैन से सो पाता है ।
                            जिंदगी में धन उपार्जन करना कोई मुश्किल काम नहीं है । ईश्वर ने सुगठित तन व्यक्ति को पुरुषार्थ करने के लिए ही दिया है और पुरुषार्थ कर व्यक्ति धन अर्जित कर सकता है । प्रत्येक व्यक्ति जिंदगी में इतना धन कमाना चाहता है जिससे उसका जीवन सुखद बन सके । परन्तु क्या और कहाँ तक सीमा है उस धन की,जो उसके जीवन को सुखी रख सके ? धन को व्यक्ति अर्जित कर सृजित और संरक्षित करता है,भविष्य में विसर्जन के लिए ,अपने उपयोग के लिए। परन्तु जब वह एक सीमा तक धन को इक्कट्ठा कर लेता है तब उसे इसी धन के कम हो जाने का भय सताता है । धन एक ऐसी सम्पति है जिसमे स्थायित्व का अभाव है । यह आवागमन के गुण से युक्त है । आज आपके पास जो धन-सम्पति है,कल वह किसी अन्य के पास थी और भविष्य किसी और व्यक्ति के हाथों में होगी ।इसी कारण से मन की तरह धन को भी चंचल कहा गया है । स्थाई रूप से यह एक जगह नहीं रूकता ।
                              धन के इसी लक्षण को जानते और समझते हुए भी व्यक्ति यह भ्रम पाल लेता है कि वह इसको स्थाई रूप से अपने पास रख सकता है । इसलिए वह आपने पास सृजित धन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए इस तन से कठोर पुरुषार्थ करता रहता है । जिस कारण से उसका तन धीरे धीरे क्षय होता रहता है । इस बात का अनुमान उस व्यक्ति को नहीं होता । तन ,एक दिन बीमार हो जाता है और जिस धन को सुख के लिए सृजित किया गया था वह दवाओं की भेंट चढ़ जाता है । तन को परेशानी तो उठानी ही पड़ती है साथ ही साथ व्यक्ति की मनोदशा भी ख़राब हो जाती है । यही सृजित धन अब सुख के स्थान पर दुःख का कारण बन जाता है ।
                             अतः आज आवश्यकता इस बात कि है कि प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि धन उपार्जन और सृजन करना कतई अनुचित नहीं है । परन्तु साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि कहीं इस धन के उपार्जन,सृजन और संरक्षण के पीछे हम अपने बहुमूल्य तन को तो नहीं गवां रहे है ? बुजुर्गों ने कितना सत्य कहा है कि-"पहला सुख निरोगी काया,दूसरा सुख घर में माया ।"अर्थात यह तन निरोग रहेगा तो यह सबसे बड़ा सुख होगा । शरीर रोगमुक्त है तभी अर्जित और सृजित धन सुख प्रदान कर सकता है अन्यथा तो धन दुखदायी ही साबित होगा ।
क्रमशः
                                 ॥ हरिः शरणम् ॥  

No comments:

Post a Comment