एक बार पुनः हम इस तन की विशेषताओं को दोहराते हैं । प्रत्येक तन की निम्न विशेषताएं होती है-
१.तन-निश्चित आकार.-प्राणी या निर्जीव के अनुसार ।
२.तन-एक अस्थाई भाव ।
३.तन-उद्देश्य पूर्ति का मात्र एक साधन या माध्यम ।
४.तन-किसी भी तन पर किसी का एकाधिकार नहीं ।
उपरोक्त चार विशेषताएं इस भौतिक शरीर की होती है । सबसे उत्तम शरीर इस मनुष्य नाम के प्राणी को ही उपलब्ध है । इस मानव तन के कारण मनुष्य इसके खाक में मिलने से पहले आसमान की ऊँचाइयों तक की यात्रा कर सकता है । यह तभी संभव हो सकता है ,जब व्यक्ति स्वयं के दायरे से बाहर निकलते हुए यह देखने की कोशिश करे कि परमात्मा ने उसके अतिरिक्त भी कुछ सुन्दर और भी बनाया है । यह कूप मंडूकता का भाव त्यागकर अपनी दृष्टि से परमात्मा की इस विशाल सृष्टि का अवलोकन करे । तभी व्यक्ति को अपनी क्षुद्रता का अनुभव हो सकता है । जिस दिन व्यक्ति को अपनी इस छोटेपन का अनुभव हो जाता है,इस तन से अहंकार तिरोहित हो जाता है ।
अहंकार हालाँकि सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है ,परन्तु अहंकार इस भौतिक शरीर यानि इस तन के कारण और उसमें ही पैदा होता है । इस तन के समाप्त होते ही अहंकार भी अपना विशाल स्वरुप त्यागकर मन में समाहित हो जाता है । यही अहंकार फिर नए तन ,नए स्थूल शरीर की प्राप्ति पर अपने अल्प स्वरुप को त्यागते हुए असली रूप में प्रकट होने लगता है । यह मत सोचना कि अहंकार केवल बड़े और धनी लोगों का ही होता है । अहंकार प्रत्येक तन में होता है चाहे वह तन किसी व्यक्ति का हो,मनुष्य का हो या अन्य प्राणी का । बस अंतर इतना ही होता है किअहंकार का कारण अलग अलग होता है । धनी का अहंकार धन के कारण,नेता का राजनीति के कारण,अफसर का अपने पद के कारण और किसी भी योगी का अपने योग के कारण । यह अहंकार तभी मात्रात्मक रूप से कम होता है जब यह तन उस व्यक्ति का साथ देने से इंकार कर देता है । जीर्ण शीर्ण तन में अहंकार सुषुप्तावस्था में चला जाता है ,समाप्त नहीं होता । अहंकार तभी समाप्त हो सकता है जब परमात्मा की विशालता और स्वयं की क्षुद्रता का अनुभव हो । कहने को हम सब कह सकते हैं कि परमात्मा की विशालता को हम स्वीकार करते हैं ,परन्तु जरा आप अपने दिल पर हाथ रखकर विचार करें कि क्या आप इसे अंतर्मन से स्वीकार करते हैं? नहीं ,बिलकुल नहीं । जिस दिन अंतर्मन से इस बात पर विश्वास करने लगोगे, यह संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । फिर न मंदिर जाने की आवश्यकता है,न मस्जिद की । आप जो यह मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे जाते हो न,यह सब आपके इस अहंकार को ही पुष्ट और संतुष्ट करते हैं ,परमात्मा से इसका कोई लेना देना नहीं होता ।
अतः आवश्यक है कि इस तन की वास्तविकता और उपयोगिता को समझें और इसे साध्य नहीं ,एक साधन मात्र समझें । तभी इस मानव तन को प्राप्त करने की सार्थकता है अन्यथा तन तो पशुओं के पास भी होता है ।
कल से मन पर ....... मन तो कहता है कि तन पर कुछ और लिखा जाये परन्तु मैं इस मन को और अधिक छूट देना नहीं चाहता । अगर इस मन का कहा मानता रहा तो कल से जब मन पर लिखूंगा तो यह फिर किसी अन्य विषय पर लिखने नहीं देगा ।
॥ हरिः शरणम् ॥
१.तन-निश्चित आकार.-प्राणी या निर्जीव के अनुसार ।
२.तन-एक अस्थाई भाव ।
३.तन-उद्देश्य पूर्ति का मात्र एक साधन या माध्यम ।
४.तन-किसी भी तन पर किसी का एकाधिकार नहीं ।
उपरोक्त चार विशेषताएं इस भौतिक शरीर की होती है । सबसे उत्तम शरीर इस मनुष्य नाम के प्राणी को ही उपलब्ध है । इस मानव तन के कारण मनुष्य इसके खाक में मिलने से पहले आसमान की ऊँचाइयों तक की यात्रा कर सकता है । यह तभी संभव हो सकता है ,जब व्यक्ति स्वयं के दायरे से बाहर निकलते हुए यह देखने की कोशिश करे कि परमात्मा ने उसके अतिरिक्त भी कुछ सुन्दर और भी बनाया है । यह कूप मंडूकता का भाव त्यागकर अपनी दृष्टि से परमात्मा की इस विशाल सृष्टि का अवलोकन करे । तभी व्यक्ति को अपनी क्षुद्रता का अनुभव हो सकता है । जिस दिन व्यक्ति को अपनी इस छोटेपन का अनुभव हो जाता है,इस तन से अहंकार तिरोहित हो जाता है ।
अहंकार हालाँकि सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है ,परन्तु अहंकार इस भौतिक शरीर यानि इस तन के कारण और उसमें ही पैदा होता है । इस तन के समाप्त होते ही अहंकार भी अपना विशाल स्वरुप त्यागकर मन में समाहित हो जाता है । यही अहंकार फिर नए तन ,नए स्थूल शरीर की प्राप्ति पर अपने अल्प स्वरुप को त्यागते हुए असली रूप में प्रकट होने लगता है । यह मत सोचना कि अहंकार केवल बड़े और धनी लोगों का ही होता है । अहंकार प्रत्येक तन में होता है चाहे वह तन किसी व्यक्ति का हो,मनुष्य का हो या अन्य प्राणी का । बस अंतर इतना ही होता है किअहंकार का कारण अलग अलग होता है । धनी का अहंकार धन के कारण,नेता का राजनीति के कारण,अफसर का अपने पद के कारण और किसी भी योगी का अपने योग के कारण । यह अहंकार तभी मात्रात्मक रूप से कम होता है जब यह तन उस व्यक्ति का साथ देने से इंकार कर देता है । जीर्ण शीर्ण तन में अहंकार सुषुप्तावस्था में चला जाता है ,समाप्त नहीं होता । अहंकार तभी समाप्त हो सकता है जब परमात्मा की विशालता और स्वयं की क्षुद्रता का अनुभव हो । कहने को हम सब कह सकते हैं कि परमात्मा की विशालता को हम स्वीकार करते हैं ,परन्तु जरा आप अपने दिल पर हाथ रखकर विचार करें कि क्या आप इसे अंतर्मन से स्वीकार करते हैं? नहीं ,बिलकुल नहीं । जिस दिन अंतर्मन से इस बात पर विश्वास करने लगोगे, यह संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । फिर न मंदिर जाने की आवश्यकता है,न मस्जिद की । आप जो यह मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे जाते हो न,यह सब आपके इस अहंकार को ही पुष्ट और संतुष्ट करते हैं ,परमात्मा से इसका कोई लेना देना नहीं होता ।
अतः आवश्यक है कि इस तन की वास्तविकता और उपयोगिता को समझें और इसे साध्य नहीं ,एक साधन मात्र समझें । तभी इस मानव तन को प्राप्त करने की सार्थकता है अन्यथा तन तो पशुओं के पास भी होता है ।
कल से मन पर ....... मन तो कहता है कि तन पर कुछ और लिखा जाये परन्तु मैं इस मन को और अधिक छूट देना नहीं चाहता । अगर इस मन का कहा मानता रहा तो कल से जब मन पर लिखूंगा तो यह फिर किसी अन्य विषय पर लिखने नहीं देगा ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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