धन की प्रथम गति दान है,जिसके बारे में हम संक्षेप में चर्चा कर चुके है । दूसरी गति अर्थात विसर्जन के दूसरे प्रकार के अनुसार धन भोग में व्यय होता है । जितने भी व्यक्ति आज तक इतिहास में हुए हैं , उनमे से बहुत कम ने ही अपने सृजित धन को उचित तरीके से भोगा है ।धन का भोग ,वास्तव में है क्या? किसी भी पदार्थ का भोग उसका वह उपयोग है जिससे शरीर और मन को सुख और शांति का अनुभव होता है । यह सुख किसी भौतिक पदार्थ के उपयोग का परिणाम होता है इसलिए ऐसा सुख भी उस भौतिक पदार्थ की तरह ही अस्थाई होता है । धन से भौतिक पदार्थ और सुख के संसाधन खरीदे जा सकते हैं ,इसलिए अपरोक्ष रूप से इसे धन का भोग ही कहा जाता है ।सुख प्रदान करने वाले भौतिक पदार्थ और संसाधन दिन-प्रतिदिन नए नए विकसित किये जा रहे हैं । इन सुख के संसाधनों की जकड धीरे धीरे धीरे मज़बूत होती जा रही है । प्रारम्भ में व्यक्ति इन संसाधनों को प्राप्त करने के लिए छटपटाता है । एक बार उपलब्ध होने के बाद व्यक्ति इन्हें बार बार प्राप्त करने का प्रयास करता है । इसी कारण से व्यक्ति इन भोगों में ही उलझ कर रह जाता है । एक बार जब भोगों से सुख प्राप्त होने लगता है तो फिर व्यक्ति चाह कर भी उनसे विमुख नहीं हो सकता । भोगों के प्रति यह आकर्षण भोगों के प्रति आसक्ति कहलाती है ।
भोग से सुख प्राप्त करना कदापि भी अनुचित नहीं है परन्तु भोगों में ही उलझ कर रह जाना अनुचित है । भोगों में आसक्ति हो जाने से व्यक्ति का धन तेजी के साथ विसर्जित होने लगता है और संरक्षित नहीं रह पाता । सृजित धन तो व्यय होता जाता है और भोगों में उलझा व्यक्ति धन का उपार्जन भी नहीं कर पाता । ऐसे में धन समाप्ति की ओर जाने का रुख कर लेता है । इस प्रकार की आसक्ति कहीं से भी उचित नहीं है ।
भोग ,धन की वह गति है जिसमे व्यक्ति धन को अपने शरीर,अपने परिवार के सुख के लिए उपयोग में लेता है । बस उसे यही ध्यान रखना है कि धन को केवल शारीरिक सुख के भोगों पर ही व्यय नहीं करना है । उत्तम भोग तभी माना जाता है जब व्यक्ति अपने धन को बच्चों की शिक्षा,स्वास्थ्य और परिवार की उन्नति के लिए व्यय करे । इसके लिए वह किसी भी प्रकार की कंजूसी नहीं बरते । ऐसे भोग में धन व्यय करना उस धन का सही व उचित उपयोग करना है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
भोग से सुख प्राप्त करना कदापि भी अनुचित नहीं है परन्तु भोगों में ही उलझ कर रह जाना अनुचित है । भोगों में आसक्ति हो जाने से व्यक्ति का धन तेजी के साथ विसर्जित होने लगता है और संरक्षित नहीं रह पाता । सृजित धन तो व्यय होता जाता है और भोगों में उलझा व्यक्ति धन का उपार्जन भी नहीं कर पाता । ऐसे में धन समाप्ति की ओर जाने का रुख कर लेता है । इस प्रकार की आसक्ति कहीं से भी उचित नहीं है ।
भोग ,धन की वह गति है जिसमे व्यक्ति धन को अपने शरीर,अपने परिवार के सुख के लिए उपयोग में लेता है । बस उसे यही ध्यान रखना है कि धन को केवल शारीरिक सुख के भोगों पर ही व्यय नहीं करना है । उत्तम भोग तभी माना जाता है जब व्यक्ति अपने धन को बच्चों की शिक्षा,स्वास्थ्य और परिवार की उन्नति के लिए व्यय करे । इसके लिए वह किसी भी प्रकार की कंजूसी नहीं बरते । ऐसे भोग में धन व्यय करना उस धन का सही व उचित उपयोग करना है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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