कबीर ने कहा है-
मन मरा ना ममता मरी,मर मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर ॥
कबीर ने मन को कितने सुन्दर तरीके से परिभाषित किया है । मन कभी भी मरता नहीं है ,केवल यह भौतिक शरीर मरता है । मन तभी मरता है जब या तो मन सब आशाओं और तृष्णाओं को भोग कर संतुष्ट हो जाता है या फिर आशाओं और तृष्णाओं को मार डालता है,समाप्त कर देता है । जैसे कि मैंने इस श्रंखला की शुरूआत में बताया कि मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं होता है बल्कि यह दो उर्जा श्रोतों से उर्जा प्राप्त कर अस्तित्व में आता है। एक बार जब मन का अस्तित्व बन जाता हैं,फिर इसके अस्तित्व को मिटाना लगभग असंभव है । इसका कारण यह है कि वह अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए ,अपना स्थायित्व बनाये रखने के लिए तन से उर्जा प्राप्त करता है और आत्मा की उर्जा की उपेक्षा करता रहता है । आत्मा की उर्जा का आहरण न करने के कारण इसकी संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हो पता और यह सांसारिकता और भौतिकता की चमक दमक से निकल नहीं पाता । संसार की यह भौतिकता ही मन में आशा और तृष्णा को पैदा कर देती है । आशा और तृष्णा कभी भी ,किसी की भी आज तक पूर्ण नहीं हुई है । ऐसी स्थिति के कारण इनका अंत कभी भी नहीं हो पाता जिस कारण से मन का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है ।
मन में स्थित आशा और तृष्णा के कारण मन इनको पूरी कर संतुष्ट होने का प्रयास करता है, जिसके लिए वह इन्द्रियों से कर्म करवाता है । इन्द्रियां तन से पुरुषार्थ करवाते हुए मन को संतुष्ट करने का प्रयास करती है । जब एक आशा पूर्ण होती है तब या तो उस आशा का और विस्तार हो जाता है या फिर एक नयी आशा का जन्म हो जाता है । इस प्रकार यह चक्र सतत चलता रहता है और मन कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता ।मन बार बार इन आशाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए तन के माध्यम से इन्द्रियों को आदेश देता रहता है । अंत में एक स्थिति ऐसी आती है जब इन्द्रियों की क्षमता कम होने लगती है,तन अपने आपको मन की इन इच्छाओं को पूर्ण करने में असहाय पाता है ।मन,तन से पाने वाली उर्जा के माध्यम से उसकी इस दुर्बलता का अनुमान लगा लेता है । मन अपने में स्थित समस्त आशाओं और तृष्णाओं को अपने दूसरे भाग यानि चित्त में इन्हें स्थानांतरित कर देता है । तन के मृत्यु को प्राप्त होते समय चित्त इस तन में स्थित आत्मा के साथ ही इस शरीर को त्याग देता है । तन से अलग होकर यही चित्त आत्मा को अपनी आशाएं, कामनाएं पूरी करने के लिए फिर से किसी नए शरीर को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है । इस प्रकार इन आशाओं,तृष्णाओं और कामनाओं को समेटे मन कभी भी मर नहीं पाता और बार बार नए तन को पाता रहता है और यह चक्र सतत चलता रहता है । यही पुनर्जन्म है,बंधन है ।
मन नहीं मरता बल्कि शरीर ही मरता है । कबीर का यह कहना एकदम सत्य है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
मन मरा ना ममता मरी,मर मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर ॥
कबीर ने मन को कितने सुन्दर तरीके से परिभाषित किया है । मन कभी भी मरता नहीं है ,केवल यह भौतिक शरीर मरता है । मन तभी मरता है जब या तो मन सब आशाओं और तृष्णाओं को भोग कर संतुष्ट हो जाता है या फिर आशाओं और तृष्णाओं को मार डालता है,समाप्त कर देता है । जैसे कि मैंने इस श्रंखला की शुरूआत में बताया कि मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं होता है बल्कि यह दो उर्जा श्रोतों से उर्जा प्राप्त कर अस्तित्व में आता है। एक बार जब मन का अस्तित्व बन जाता हैं,फिर इसके अस्तित्व को मिटाना लगभग असंभव है । इसका कारण यह है कि वह अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए ,अपना स्थायित्व बनाये रखने के लिए तन से उर्जा प्राप्त करता है और आत्मा की उर्जा की उपेक्षा करता रहता है । आत्मा की उर्जा का आहरण न करने के कारण इसकी संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हो पता और यह सांसारिकता और भौतिकता की चमक दमक से निकल नहीं पाता । संसार की यह भौतिकता ही मन में आशा और तृष्णा को पैदा कर देती है । आशा और तृष्णा कभी भी ,किसी की भी आज तक पूर्ण नहीं हुई है । ऐसी स्थिति के कारण इनका अंत कभी भी नहीं हो पाता जिस कारण से मन का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है ।
मन में स्थित आशा और तृष्णा के कारण मन इनको पूरी कर संतुष्ट होने का प्रयास करता है, जिसके लिए वह इन्द्रियों से कर्म करवाता है । इन्द्रियां तन से पुरुषार्थ करवाते हुए मन को संतुष्ट करने का प्रयास करती है । जब एक आशा पूर्ण होती है तब या तो उस आशा का और विस्तार हो जाता है या फिर एक नयी आशा का जन्म हो जाता है । इस प्रकार यह चक्र सतत चलता रहता है और मन कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता ।मन बार बार इन आशाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए तन के माध्यम से इन्द्रियों को आदेश देता रहता है । अंत में एक स्थिति ऐसी आती है जब इन्द्रियों की क्षमता कम होने लगती है,तन अपने आपको मन की इन इच्छाओं को पूर्ण करने में असहाय पाता है ।मन,तन से पाने वाली उर्जा के माध्यम से उसकी इस दुर्बलता का अनुमान लगा लेता है । मन अपने में स्थित समस्त आशाओं और तृष्णाओं को अपने दूसरे भाग यानि चित्त में इन्हें स्थानांतरित कर देता है । तन के मृत्यु को प्राप्त होते समय चित्त इस तन में स्थित आत्मा के साथ ही इस शरीर को त्याग देता है । तन से अलग होकर यही चित्त आत्मा को अपनी आशाएं, कामनाएं पूरी करने के लिए फिर से किसी नए शरीर को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है । इस प्रकार इन आशाओं,तृष्णाओं और कामनाओं को समेटे मन कभी भी मर नहीं पाता और बार बार नए तन को पाता रहता है और यह चक्र सतत चलता रहता है । यही पुनर्जन्म है,बंधन है ।
मन नहीं मरता बल्कि शरीर ही मरता है । कबीर का यह कहना एकदम सत्य है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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