Thursday, June 12, 2014

मन |-३

                               मन,एक ऐसा तत्व जो स्थूल शरीर में रहते हुए भी दिखाई नहीं देता । एक समय में जो मन की चंचलता और गति होती है उसको कोई माप नहीं सकता । अभी आपका मन समुद्र की गहराई में समुद्री जीवों को निहार रहा होता है और पल भर में वह अन्तरिक्ष की सैर पर निकल पड़ता है । सांसारिकता में रहते हुए इस मन की चंचलता और गति पर काबू पाना बड़ा ही मुश्किल है । हमारे शास्त्रों में यह सब लिखा है,महापुरुष अपनी लेखनी से इसकी चंचलता को हजारों तरीकों से स्पष्ट करते हुए कलमबद्ध कर चुके है,आज भी संत महात्मा इस पर सारगर्भित प्रवचन करते रहते हैं परन्तु आज तक कितने व्यक्ति यहाँ ऐसे हैं जो इतना पढ़कर और सुनकर मन की चंचलता और गति को अपने वश में कर चुके हैं । मेरे ख्याल से कोई विरला ही होगा जो मन को वश में करने में सफल हुआ हो । इसका क्या कारण है ?
                       मन की गति को जानना और पहचानना आवश्यक है । यह गति और चंचलता मन में आखिर पैदा कहाँ से और कैसे होती है ? जब तक हम इसे नहीं समझ पाएंगे तब तक इस मन को वश में करने में हम असफल ही होते रहेंगे । सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि इस तन में मन कैसे अस्तित्व में आता है ? हम जानते हैं कि जब नया शिशु जन्म लेता है तब उसका मन निर्मल होता है । मन के निर्मल होने से अर्थ है कि मन उदासीन अवस्था में होता है,उसमे किसी भी प्रकार की चंचलता और गति का सर्वथा अभाव होता है ।हम जानते हैं कि तन एक दृश्यमान उर्जा है और आत्मा एक अदृश्य उर्जा । जब इन दोनों उर्जाओं का इस संसार में संयोग होता है तभी इस स्थूल शरीर में जीवन का संचार होता है । जब आत्मा इस भौतिक शरीर में प्रवेश करती है तब आत्मा की और तन की उर्जा क्षेत्रों के प्रभाव से उर्जा का तीसरा केंद्र पैदा होता है,यही तीसरा केंद्र मन कहलाता है ।
                       इसी बात को मैं एक उदाहरण से समझने का प्रयास करता हूँ । हमारी पृथ्वी से टूटकर सहस्राब्दियों पहले एक टुकड़ा अलग हुआ,मिटटी के कणों के रूप में । मिटटी का यह अतिविशाल बादल पृथ्वी से अलग होकर उसके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने लगा  । अन्तरिक्ष में जहाँ पर सूर्य और पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल समान होता है वहां जाकर यह रूक गया और दोनों से बल पाकर यह बादल ठोस रूप में परिवर्तित हो गया । इस प्रकार आज का चंद्रमा अस्तित्व में आया । चूँकि चंद्रमा दोनों से,पृथ्वी और सूर्य से बल प्राप्त कर रहा है इस लिए इसका अस्तित्व भी इन दोनों के बलों पर निर्भर है । इसको अपना अस्तित्व बनाए रखने  के लिए जहाँ यह स्थित है उस स्थान पर ही टिके रहना होगा । एक स्थान पर बने रहना ,अन्तरिक्ष में बड़ा मुश्किल है ,जब तक कि वह किसी पिण्ड के चारों ओर एक कक्षा में गति न करने लगे । अतः इसने भी पृथ्वी के चारों ओर घूमना प्रारम्भ कर दिया और अपनी एक निश्चित कक्षा में आज तक चक्कर लगा रहा है जिससे उसका अस्तित्व सुरक्षित बना रहे । दो शक्ति केन्द्रों के बीच होने के कारण ही हमारे पूर्वजों ने इसे मन का देवता कहा है । मन का निर्माण भी इसी प्रकार दो शक्ति केन्द्रों के कारण होता है ।
मन और चन्द्रमा,दोनों में काफी कुछ समानता है । चन्द्रमा के कारण पृथ्वी प्रभावित होती है जैसे ज्वार-भाटा उसी प्रकार मन से तन प्रभावित होता है। चन्द्रमा के प्रकाश से पृथ्वी पर औषधीय वनस्पति पैदा होती है उसी प्रकार मन के निर्मल होने से तन को शांति प्राप्त होती है ।
                             चन्द्रमा को लूना कहा जाता है और जब पूर्णिमा को चाँद पूर्ण अवस्था में होता है तब वह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है । इसी लिए मनोरोगी को लूनेट भी कहा जाता है । सदियों पहले हमारे ऋषियों ने चन्द्रमा और हमारे मन के आपसी सम्बन्ध का पता लगा लिया था ,वह आज सब सच साबित हो रहा है । आज जब कोई व्यक्ति उद्दंडता करने पर उतारू होता है तो लोग कहते हैं कि इसका चन्द्रमा ख़राब चल रहा है । समस्त अंतरिक्षीय पिंडो में चन्द्रमा सबसे अधिक पृथ्वी और उसके वासियों को प्रभावित करता है । 
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥   

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