प्राचीन ऋषि मुनियों ने चंद्रमा को मन का देवता कहा है ,क्योंकि यह भी मन की तरह ही दो बलों(पृथ्वी और सूर्य) के बीच और उनके प्रभाव से अपना बल प्राप्त करते हुए अपने मूल स्रोत की परिक्रमा करता रहता है । मन का मूल स्रोत यह भौतिक शरीर है,यह तन है । मन और तन दोनों की प्रकृति स्थूल अर्थात जड़ कही गई है। इसी कारण से इस मन का लगाव आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर से ज्यादा होता है । यह पृथ्वी भी मूल रूप से सूर्य का ही एक अंश है अतः अपरोक्ष रूप से चन्द्रमा भी सूर्य का ही अंश हुआ । ऐसा ही हमारे शरीर के साथ भी है । यह तन,यह मन और आत्मा सभी परमात्मा के अंश ही है । सब का अस्तित्व परम पिता के कारण ही संभव हो सका है । हमारा मन भी इस तन के प्रति आसक्त होते हुए भी आत्मा के साथ भी सम्बंधित है । जैसे चन्द्र,सूर्य से सम्बंधित है । जैसे चन्द्रमा , पृथ्वी की परिक्रमा करने के साथ साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है ऐसे ही यह मन ,तन के साथ होकर आत्मा और परमात्मा तक की यात्रा कर सकता है ।
मन का अस्तित्व तन और आत्मा की उपस्थिति से ही संभव है । इसकी चंचलता और अबाध गति से हम सब वाकिफ हैं । इसकी इसी चंचलता को नियंत्रित करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । मन अपनी ऊर्जा आत्मा और तन दोनों से प्राप्त करता है । अगर इसकी चंचलता और गति को नियंत्रित करना हो तो इन मुख्य ऊर्जा स्रोतों की ऊर्जा को नियंत्रित करते हुए ऐसा सफलता पूर्वककिया जा सकता है । अगर तन की ऊर्जा अति प्रभावशाली हुई तो यह मन व्यक्ति को सांसारिकता की तरफ ले जायेगा और अगर आत्मा की ऊर्जा अधिक प्रभावशाली हुई तो व्यक्ति का मन आध्यात्मिक हो जायेगा । संसार में जितने भी संत-महापुरुष हुए है उन्होंने आत्मिक ऊर्जा को शक्तिशाली बनाते हुए ही यह मुकाम हासिल किया है ।
आज के आधुनिक युग में संसार में आकर्षित करने वाले इतने साधन पैदा हो गए हैं कि भौतिक शरीर की ऊर्जा इस आकर्षणके वशीभूत होकर अधिक प्रभावशाली होती जा रही है । इसी कारण से आज सब जगह भौतिकता और सांसारिकता का प्रभाव है । व्यक्ति आध्यात्मिकता की तुलना में संसार की तरफ आकर्षित होता जा रहा है ।सांसारिकता से विमुख होना और परमात्मा की और उन्मुख होना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है । संसार का आकर्षण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता और न ही कोई संत-महापुरुष अपने ज्ञान और प्रवचनों के माध्यम से व्यक्ति के मन से इस आकर्षण को कम या समाप्त कर सकता है । यही कारण है कि आज आध्यात्मिकता की बातें करने वालों को लोग पलायनवादी कहते हुए हंसी का पात्र बनाने की कोशिश करते हैं । भीड़ तंत्र से विमुख होकर चलना वैसे ही मुश्किल है जैसे नदी की धारा की दिशा के विपरीत दिशा में किसी नाव को चलाया जाये ।इसी कारण से प्रायःकर लोग आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने से डरते हैं । संसार में ,समाज में लोग क्या कहेंगे,क्या सोचेंगे ?,इसी उधेड़बुन में डूबा व्यक्ति कहीं का नहीं रह पाता ।
अब प्रश्न यही उठता है कि फिर किस प्रकार व्यक्ति सांसारिकता से विमुख होकर अपने मन को आध्यात्मिकता में लगा सकता है ?
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
मन का अस्तित्व तन और आत्मा की उपस्थिति से ही संभव है । इसकी चंचलता और अबाध गति से हम सब वाकिफ हैं । इसकी इसी चंचलता को नियंत्रित करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । मन अपनी ऊर्जा आत्मा और तन दोनों से प्राप्त करता है । अगर इसकी चंचलता और गति को नियंत्रित करना हो तो इन मुख्य ऊर्जा स्रोतों की ऊर्जा को नियंत्रित करते हुए ऐसा सफलता पूर्वककिया जा सकता है । अगर तन की ऊर्जा अति प्रभावशाली हुई तो यह मन व्यक्ति को सांसारिकता की तरफ ले जायेगा और अगर आत्मा की ऊर्जा अधिक प्रभावशाली हुई तो व्यक्ति का मन आध्यात्मिक हो जायेगा । संसार में जितने भी संत-महापुरुष हुए है उन्होंने आत्मिक ऊर्जा को शक्तिशाली बनाते हुए ही यह मुकाम हासिल किया है ।
आज के आधुनिक युग में संसार में आकर्षित करने वाले इतने साधन पैदा हो गए हैं कि भौतिक शरीर की ऊर्जा इस आकर्षणके वशीभूत होकर अधिक प्रभावशाली होती जा रही है । इसी कारण से आज सब जगह भौतिकता और सांसारिकता का प्रभाव है । व्यक्ति आध्यात्मिकता की तुलना में संसार की तरफ आकर्षित होता जा रहा है ।सांसारिकता से विमुख होना और परमात्मा की और उन्मुख होना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है । संसार का आकर्षण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता और न ही कोई संत-महापुरुष अपने ज्ञान और प्रवचनों के माध्यम से व्यक्ति के मन से इस आकर्षण को कम या समाप्त कर सकता है । यही कारण है कि आज आध्यात्मिकता की बातें करने वालों को लोग पलायनवादी कहते हुए हंसी का पात्र बनाने की कोशिश करते हैं । भीड़ तंत्र से विमुख होकर चलना वैसे ही मुश्किल है जैसे नदी की धारा की दिशा के विपरीत दिशा में किसी नाव को चलाया जाये ।इसी कारण से प्रायःकर लोग आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने से डरते हैं । संसार में ,समाज में लोग क्या कहेंगे,क्या सोचेंगे ?,इसी उधेड़बुन में डूबा व्यक्ति कहीं का नहीं रह पाता ।
अब प्रश्न यही उठता है कि फिर किस प्रकार व्यक्ति सांसारिकता से विमुख होकर अपने मन को आध्यात्मिकता में लगा सकता है ?
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
No comments:
Post a Comment