अब हमें यह देखना है कि यह मन कैसे भौतिकता से आध्यात्मिकता की तरफ अपना रूख कर सकता है ? व्यक्ति चाहे तो मन का सम्पूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है,बस आवश्यकता है प्रबल इच्छाशक्ति की । बिना इच्छाशक्ति के कोई भी इन्सान कुछ भी नहीं कर सकता । मन को हम ही भौतिकता की तरफ ले जाते हैं और हम ही आध्यात्मिकता की ओर । किसी दूसरे को दोष देना ,किसी परिस्थितिवश आध्यात्मिकता की ओर न जा पाना तथा कभी किसी को दोष दे देना और कभी किसी को ,यह हमारी आदत बन गई है । जब हम सभी कार्य छोड़ कर अर्थोपार्जन के लिए समय निकाल सकते हैं तो फिर कुछ समय अपने आत्मोत्थान के लिए भी निकाल सकते हैं । आज ,कल फिर कल करते करते एक दिन यह तन छूट जायेगा और वह कल कभी भी नहीं आ पायेगा। अतः स्थिति को समझे और बुद्धि में यह बात स्पष्ट कर लें कि मन को दोष देना अनुचित है,आप सवयं मन को आदेश देने की क्षमता रखते हैं । इसी बात को गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते है कि-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ गीता १२/८ ॥
अर्थात,मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमे ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।
मनुष्य के सामने यही मुश्किल है कि ऐसा करने में वह अपने आपको सक्षम नहीं पाता जबकि वास्तविकता में वह ऐसा कर पाने में सक्षम है । जो व्यक्ति इस बात को ह्रदय से आत्मसात कर लेता है वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।
मनुष्य नामक प्राणी के साथ सबसे अनुचित बात यह है कि वह परमात्मा को पाने की राह पर चलना तो चाहता है परन्तु उसको दो बातों पर पक्का विश्वास नहीं होता । प्रथम तो यह कि मेरे जीवन के शेष कार्य कौन करेगा और किस प्रकार पूर्ण होंगे ?यहाँ वह स्वयं कर्ता बन बैठता है ,जो कि गलत है । दूसरी बात,वह परमात्मा पर यकीन ही नहीं करता और मानता है कि क्या पता,इस राह पर मुझे परमात्मा मिलेंगे या नहीं ? मैं कहता हूँ कि परमात्मा आपसे अलग नहीं है । अगर आप सोचते हैं कि परमात्मा कोई आकर दर्शन देगे तो आपकी यह मूर्खता का ही प्रदर्शन है । जब आप अपने आप को पहचान जायेंगे,इस सृष्टि को पहचान जायेंगे ,यह ज्ञान आपको हो जायेगा कि आपसे परमात्मा कोई अलग नहीं है और यही आत्म-दर्शन ,परमात्म-दर्शन है । यह सब ज्ञान होते ही आपका कर्तापन भी तिरोहित हो जायेगा और आप परमात्म-शक्ति पर विश्वास करने लगेंगे ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ गीता १२/८ ॥
अर्थात,मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमे ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।
मनुष्य के सामने यही मुश्किल है कि ऐसा करने में वह अपने आपको सक्षम नहीं पाता जबकि वास्तविकता में वह ऐसा कर पाने में सक्षम है । जो व्यक्ति इस बात को ह्रदय से आत्मसात कर लेता है वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।
मनुष्य नामक प्राणी के साथ सबसे अनुचित बात यह है कि वह परमात्मा को पाने की राह पर चलना तो चाहता है परन्तु उसको दो बातों पर पक्का विश्वास नहीं होता । प्रथम तो यह कि मेरे जीवन के शेष कार्य कौन करेगा और किस प्रकार पूर्ण होंगे ?यहाँ वह स्वयं कर्ता बन बैठता है ,जो कि गलत है । दूसरी बात,वह परमात्मा पर यकीन ही नहीं करता और मानता है कि क्या पता,इस राह पर मुझे परमात्मा मिलेंगे या नहीं ? मैं कहता हूँ कि परमात्मा आपसे अलग नहीं है । अगर आप सोचते हैं कि परमात्मा कोई आकर दर्शन देगे तो आपकी यह मूर्खता का ही प्रदर्शन है । जब आप अपने आप को पहचान जायेंगे,इस सृष्टि को पहचान जायेंगे ,यह ज्ञान आपको हो जायेगा कि आपसे परमात्मा कोई अलग नहीं है और यही आत्म-दर्शन ,परमात्म-दर्शन है । यह सब ज्ञान होते ही आपका कर्तापन भी तिरोहित हो जायेगा और आप परमात्म-शक्ति पर विश्वास करने लगेंगे ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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