Wednesday, June 4, 2014

तन |-३

                                 गीता के इस श्लोक के आधार पर हम समझ सकते हैं कि चाहे आत्मा हो या भौतिक शरीर या सूक्ष्म शरीर ,तीनों ही अव्यक्त से व्यक्त होकर पुनः अव्यक्त होते रहते हैं । अतः यह मानना कि देह त्याग के पश्चात् सब कुछ समाप्त हो जाता है,मिथ्या है । आध्यात्मिक दृष्टि से अगर देखें तो यह स्पष्ट है कि भौतिक शरीर परिवर्तन शील है जबकि आत्मा यानि कारण शरीर अपरिवर्तनीय । इसीलिए भौतिक शरीर को जड़ प्रकृति का बताया गया है अर्थात इस तन की प्रकृति असत मानी गई है जबकि आत्मा की सत प्रकृति । परन्तु दोनों ही परमात्मा के द्वारा बनाये हुए हैं  इसलिए परमात्मा ने स्पष्ट किया है कि यह अव्यक्त से व्यक्त होना और पुनः अव्यक्त हो जाना इस खेल के ही हिस्से हैं ।व्यक्त से अव्यक्त होने का शोक इसलिए मत करो क्योंकि अव्यक्त फिर से एक दिन व्यक्त हो सकता है । देह या तन के समाप्त होने का अर्थ यह नहीं है कि पाँचों भौतिक तत्व ही पूर्णतया समाप्त हो गए है । ये पुनः संयुक्त होकर एक नए तन का ,एक नए भौतिक शरीर का निर्माण करके व्यक्त होंगे ।
                                इस तन की कुछ विशेषताएं है जिसके कारण ही इसका महत्त्व सबसे अधिक है । बिना इस तन के,बिना इस भौतिक शरीर के न तो कुछ प्राप्त किया जा सकता है और न ही कुछ भोगा जा सकता है । यह एक साधन मात्र है ।  यहाँ तक कि अगर परमात्मा को ही पाना हो,मोक्ष की कामना हो तो भी इस तन के माध्यम से ही पुरुषार्थ कर इन्हें प्राप्त किया जा सकता है । इस तन को केवल एक मशीन ,जिसका कार्य केवल खाना,पीना,संतति पैदा करना ही अगर मानते रहे तो फिर पशु जीवन और मानव जीवन में अंतर ही क्या रह जायेगा ?यही कारण है कि मनुष्य शरीर को पाकर ,इस तन को पाकर ही मनुष्य बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है ।हमारे सनातन शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि यह मानव तन दुर्लभ है,,और इसको पाने के लिए देवता तक तरसते हैं । हम इस तन के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं,निंदनीय मानते हैं परन्तु यह नहीं जानते कि इसकी निंदा क्यों करते हैं ? जो तन इस संसार में आया है उसका अगर हम दुरूपयोग करते हैं तो यह निंदनीय हो सकता है परन्तु निंदा तन की नहीं,हमारी स्वयं की होनी चाहिए जो इस तन का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं ।
                               यह तन केवल प्राणियों को ही नहीं उपलब्ध होता है बल्कि प्रत्येक सजीव और निर्जीव का अपना एक तन होता है । तन का अर्थ भी यही होता है-आकार । तन ,केवल आकार और डीलडौल से ही सम्बंधित है,चाहे हम सजीव के तन की बात करें या निर्जीव के तन की । निर्जीव के तन में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर तब तक प्रवेश नहीं कर सकते जब तक उसमे पाँचों भौतिक तत्वों का समावेश नहीं हो जाये । निर्जीव के तन की अगर हम बात करें तो यह आवश्यक नहीं है कि उसमे उपरोक्त पाँचों भौतिक तत्व उपस्थित ही हो । इस तन ,इसके विशेष प्रकार के आकार के कारण ही हम नाम लेते ही उस प्राणी या निर्जीव के तन की कल्पना कर सकते हैं । जैसे कि हाथी,पेड़,घोडा,पहाड़ या नदी का नाम लेने पर हम उस सजीव या निर्जीव के तन की कल्पना कर लेते हैं । अतः इस तन की प्रथम विशेषता यह है कि प्रत्येक निर्जीव या सजीव का तन अपना एक निश्चित आकार लिए हुए  होता है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||    

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