Wednesday, June 25, 2014

धन |-४

                             धन को उपार्जित करने के कई तरीके हैं । बिना मन की उपस्थिति के केवल तन के द्वारा पुरुषार्थ कर धन का उपार्जन असंभव है । अतः धन कमाने के लिए व्यक्ति की मानसिक अवस्था का सही होना आवश्यक है । जब तक मन का तन के साथ सही सामंजस्य नहीं होगा तब तक व्यक्ति चाहे कितना ही प्रयास करले,अर्थार्जन की सही राह पकड़ ही नहीं सकता । बिना मन और पुरुषार्थ के पास में आई धन संपदा भी हाथ से निकल सकती है । केवल अर्थाभाव को हम भाग्य का खेल कहकर चुप नहीं बैठ सकते । हाँ,कुछ हद तक यह भाग्य का खेल है भी,परन्तु भाग्य भी तो पूर्वजन्म में किए गए प्रयास और पुरुषार्थ से ही तो निर्मित होता है । अतः धन उपार्जन का सीधा सम्बन्ध इस तन और मन दोनों से ही है । इसी लिए इन तीनों,तन,मन और धन की संगति कही जाती है । इन तीनों का आपस में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक की अनुपस्थिती दूसरे के अस्तित्व के लिए प्रश्नचिन्ह बन जाती है,एक के बिना दूसरे का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है  और व्यक्ति का इस संसार में जीना तक कठिन हो जाता है ।
                           हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हमारे इस जीवन के लिए जिन तीन तत्वों की महत्वता है ,उन्ही को हम निन्दित करते आये हैं । तन,मन और धन की निंदा क्यों करते हैं,मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ । संसार में सभी व्यक्ति इन तीनों का उपयोग करते आये हैं और साथ ही साथ निंदा भी । उपयोग में आने वाले तत्वों की निंदा करना-मेरी तो समझ से बाहर है । बिना तन रुपी मशीन के जीवन संभव नहीं है ,बिना मन के कर्म संभव नहीं है और बिना धन के इस तन और मन को किसी कर्म के लिए सुरक्षित रखना मुश्किल है । ये तीनो तत्व एक दूसरे के पूरक भी हैं और आपस में सम्बंधित भी । अतः इनके महत्त्व को देखते हुए इनकी निंदा करनी अनावश्यक है ।
                   गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
                               कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
                               लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ गीता ३/२० ॥
अर्थात,जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे । इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात तेरे लिए कर्म करना ही उचित है ।
                                      यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परम सिद्धि के लिए भी कर्म करना आवश्यक है और लोक संग्रह की दृष्टि से भी कर्म करना उचित है । लोक संग्रह अर्थात अर्थोपार्जन और उसका सृजन व संग्रह । भगवान ने कहीं भी अर्थार्जन यानि धन कमाने और उसको संगृहित करने को अनुचित नहीं बताया है बल्कि इसे उचित ही कहा है ।अतः किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह इस धन के उपार्जन और संग्रह को निन्दित करे ।
                        फिर भी धन निन्दित है ,इसका कारण उसके अर्जित करने के तरीके,सृजित करने के उद्देश्य और विसर्जन करने के तौर तरीके में छुपा हुआ है । जब तक हम धन शास्त्रोक्त तरीके से उपार्जित नहीं करेंगे तब तक इसकी निंदा होगी । आज संसार में प्रत्येक व्यक्ति इसको येन केन प्रकारेण कमाने में लगा है । इसके लिए वह चोरी करना,झूठ बोलना और अतिरिक्त लाभ के लिए अनुचित रूप से आवश्यक वस्तुओं की कमी कर देना  और जरुरतमंदों को ऊँची कीमत लेकर बेचना,किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर धन कमाना , दूसरे की सम्पति को छीन लेना आदि गलत तरीके है और ऐसे धन के उपार्जन की निंदा आवश्यक है ।
क्रमशः
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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