Sunday, March 31, 2019

रामकथा-35-रामावतार के हेतु-

रामकथा-35-रामावतार के हेतु-
     हाँ, होता वही है जो होना होता है परन्तु प्रतापभानु के समस्त राजशाही जीवन को देखें तो उनका कोई भी कर्म ऐसा दिखलाई नहीं पड़ता जो उन्हें असुर योनि में जाने की ओर उन्हें धकेल दे। हम अपने जीवन में भी कई बार ऐसे अनुभवों से दो चार होते हैं, जिन पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि इतना भगवत प्रेमी अपने जीवन में किस प्रकार दुःखों का सामना कर रहा है।नहीं, दुःख सुख का संबंध केवल वर्तमान जीवन के कर्मों से नहीं है।हमारे सैंकड़ों जन्म पूर्व के कर्म तक उनके पीछे होते हैं जो फल दिए बिना हमारा पीछा नहीं छोड़ते।
      असुर होते हुए भी हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप परमात्मा को सदैव याद रखते थे। उसी का परिणाम था कि वे इस जन्म में प्रतापभानु और अरिमर्दन बने।असुर  से सीधे राज योनि में।केवल एक ही कारण, असुर होते हुए भी उन्होंने श्रीहरि को कभी विस्मृत नहीं होने दिया। भगवान कहते हैं कि "आप चाहे मित्र भाव से भजो चाहे शत्रु भाव से, भजने के कारण आप मेरे प्रिय हो जाते हो।" इसी का परिणाम उन्हें इस जीवन में राजपरिवार में जन्म लेने के रूप में मिला।परंतु परमात्मा को उन्हें फिर एक और असुर योनि में भेजना है। इसीलिए उनका वह कर्म फल देने के लिए सामने ले आये जो उन्होंने अहंकारवश और व्यवहार रूप से सनकादिक ऋषियों के साथ किया था।
      इस कथा का सार यही है कि कर्म करने में सदैव सावधान रहो। न जाने कौन सा कर्म किस जन्म में जाकर फ़लीभूत होगा।निषिद्ध कर्म करते हुए जब उसका विपरीत परिणाम हमें उस जीवन मे नहीं मिलता तो हम समझ बैठते हैं कि ऐसे कर्म करने से भी कोई हानि नहीं होती है।नहीं,हमारी सोच गलत है। कोई भी कर्म किसी भी जीवन में कभी भी फल दे सकता है, इसलिए सदैव शास्त्र सम्मत कर्म ही करें और निषिद्ध कर्म करने से बचे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, March 30, 2019

रामकथा-34-रामावतार के हेतु-

रामकथा-34-रामावतार के हेतु-
       जब हम अपने जीवन के सर्वोत्तम बिंदु पर होते है,तब उस स्थिति पर सदैव बने रहना चाहते हैं।हम यह भूल जाते हैं कि इस संसार में स्थायित्व के भाव का अभाव है। स्थिति और परिस्थिति का बदलना निश्चित है। फिर भी हम न जाने क्यों सदैव परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाये रखना चाहते हैं। यही तो प्रतापभानु कर रहा है। राज्य अक्षुण रहना चाहिए, चाहे किसी प्रकार का कर्मकांड करने से ऐसा संभव हो। कपटी तपस्वी ने ऐसा ही एक उपाय बता दिया है। कल वह कर्मकांड सम्पन्न कर सदैव के लिए अपने राज्य की ओर से निश्चिंत हो जाएंगे। यही कल्पना करते करते रात को प्रतापभानु वहीं सो जाते हैं।
         सुबह अपने राजमहल में ही उनकी नींद खुलती है। आश्चर्य होता है उन्हें, कैसे पहुंचा मैं यहां?दौड़कर घुड़साल पहुंचते हैं,देखते हैं कि उनका अश्व भी वहां बंधा है।सब कपटी तपस्वी की बनाई योजना के अनुसार ही हो रहा है। राज उपरोहित के वेश में वह कपटी वहां आता है और विप्रों को आमंत्रित कर भोजन बनाने में व्यस्त हो जाता है। कई ब्राह्मण भोजन करने आते हैं।राजा प्रतापभानु उन्हें भोजन परोसने ही वाले होते हैं कि आकाशवाणी होती है।"हे विप्रजन, उठो।इस भोजन को करोगे तो आप पथभ्रष्ट हो जाओगे। इस भोजन में ब्राह्मणों का मांस मिला हुआ है ।"
   इतना सुनते ही सभी विप्रजन क्रोधित होकर भोजन करने से पूर्व ही उठ गए और राजा प्रतापभानु को श्राप दे डाला।" इसी वर्ष के मध्य तक तुम्हारा सर्वस्व नष्ट हो जाएगा। तुम्हें जलांजलि देने को भी कोई नहीं रहेगा।" तत्काल ही पुनः आकाशवाणी हुई कि "हे ब्राह्मणों, इसमें राजा का कोई दोष नहीं है।" परंतु अब ब्राह्मणों के शाप से बचना असंभव है। अंततः ब्राह्मणों के श्राप के अनुसार ही तो सब कुछ होना है। यही तो विधि का विधान है। कैकय प्रदेश पर कपटी तपस्वी एकतनु और उसके सहयोगी राजाओं का संगठित आक्रमण होता है। राजा प्रतापभानु,उनका भाई अरिमर्दन,सचिव धर्मरूचि सहित सारी सेना खेत रहती है।
       इन्हीं राजा प्रतापभानु का लंका में रावण, उसके छोटे भाई अरिमर्दन का कुम्भकरण और उनके सचिव धर्मरूचि का विभीषण के रूप में पुनर्जन्म होता है।इस प्रकार जय विजय को दूसरी आसुरी योनि मिल चुकी है, श्राप तीन ऐसी ही योनियों का सनकादिक ऋषियों से मिला हुआ है, अतः सत्य तो सिद्ध होना ही है। रामावतार का एक और कारण बन गया है क्योंकि इन असुर योनियों से जय विजय को मुक्त केवल श्रीहरि ही कर सकते हैं अन्य कोई नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Friday, March 29, 2019

रामकथा-33-रामावतार के हेतु-

रामकथा-33-रामावतार के हेतु-
         कपटी तपस्वी द्वारा प्रतापभानु को पास में स्थित सरोवर का रास्ता बात दिया गया। प्यास बुझाकर प्रतापभानु लौट आये और तपस्वी के पास बैठकर उनसे बातचीत करने लगे।तपस्वी ने अपना नाम एकतनु बताते हुए राजा से उनका परिचय पूछा। प्रतापभानु ने अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया। कपटी तपस्वी ने उनका वास्तविक परिचय बता कर अपने प्रभाव में ले लिया। अब विजित राजा पराजित राजा के प्रभाव में आ गए हैं । सब कुछ ऐसे हो रहा है जैसे पूर्व में ही वैसा होना निश्चित किया जा चुका हो।हमारे जीवन में भी सब कुछ ऐसे ही होता है। सब विधि का विधान है।
तुलसी जसि भवतब्यता,तैसी मिलइ सहाइ।
आपनु आवइ ताहिं पहि,ताहि तहां लै जाइ।।
        -मानस-1/159ख।।
तुलसी बाबा कह रहे हैं कि होनी को कोई टाल नहीं सकता। परिस्थितियां स्वतः ही ऐसी बन जाती है कि विधि को जहां उसे ले जाना होता हैं वहां वह जैसे तैसे पहुंच ही जाता है।राजा प्रतापभानु के विधि विपरीत है, उसे नए जीवन में असुर होना है, परिस्थितियां उसी अनुसार स्वतः ही बनती जा रही है।
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा।
छल बल कीन्ह चहइ निज काजा।।1/160/6।।
तुलसीदासजी कह रहे हैं कि एक तो शत्रु, फिर क्षत्रिय और इनसे भी ऊपर एक राजा , ये तीनों छल और बल से अपना काम करना चाहते हैं।एकतनु कपटी तपस्वी है, वह तपस्वी न होकर प्रतापभानु से पराजित हुआ एक राजा है, उसमें तुलसीदासजी द्वारा बतलाई गई तीनों विशेषताएं हैं। भला, वह प्रतिशोध के लिए हाथ लगे इस सुनहरे अवसर को व्यर्थ क्यों जाने देगा?
      एकतनु तपस्वी वेषधारी राजा आज बगुला भगत बन गया है।राजा प्रतापभानु को अनेकों ज्ञान की बातें बताकर अपने वश में कर लिया है।अब इस स्थिति में होनी को कोई नहीं टाल सकता।प्रतापभानु को अपने वश में जानकर उसने उसके मर्म पर आखिरी चोट की। कपटी तपस्वी बोला-"आपका राज्य अक्षुण रहेगा, अगर आप ब्राह्मणों को खुश कर दो। आपका नाश केवल विप्र श्राप से ही हो सकता है। मैं एक ऐसा उपाय जानता हूँ जिसके कर देने मात्र से ही आप के राज्य के सभी विप्र जन आप पर प्रसन्न हो जाएंगे। ऐसे में आपको विप्र श्राप मिलने की संभावना का भय सदैव के लिए भी समाप्त हो जाएगा और फिर आपके राज्य का कोई नाश नहीं कर सकेगा।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, March 28, 2019

रामकथा32-रामावतार के हेतु-

रामकथा-32-रामावतार के हेतु-
         राजा प्रतापभानु ने समस्त विश्व को जीत लिया था । प्रायः राजा लोगों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुछ राजाओं को दंड देकर छोड़ दिया गया । अब प्रतापभानु के समान जग में कोई अन्य राजा नहीं था।सचिव धर्मरूचि राजा को सदैव धर्माचरण के लिए प्रेरित करते थे और प्रतापभानु उनके कथनानुसार आचरण करते थे। उनके राज्य में कहीं पर भी किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं थी।गोस्वामीजी ने इस संबंध में मानस में लिखा है-
भूप धर्म जो बेद बखाने।सकल करइ सादर सुख माने।।
                 -1/155/5
      राज्य में प्रजा को धर्म, अर्थ और काम, तीनों प्रकार के सुख उपलब्ध थे। चाहे प्रतापभानु कितना ही प्रजा हितैषी और धर्माचरण रत हो, पूर्वजन्म के किये कर्म, फल देने तक पीछा नहीं छोड़ते। अभी तक भगवान के दो पार्षद जय विजय ने केवल एक असुर योनि को ही भोगा है, अभी उनको ऐसे ही दो योनियों को और भोगना है।प्रतापभानु और अरिमर्दन पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप थे।अब उनके समीप दूसरी आसुरी योनि को भोगने के समय आ रहा है।
      जब राज्य की प्रजा सुखी औऱ सुरक्षित रहती है, तब राजा उनकी देखभाल करने के साथ साथ अपनी रूचि के मनोरंजन कार्यों को भी करता रहता है। प्रतापभानु का ऐसा ही एक रूचि का कार्य था,आखेट। एक दिन राजा आखेट के लिए जंगल की ओर प्रस्थान करता है।अस्त्र शास्त्रों से सुसज्जित राजा वायुवेगी अश्व पर सवार होकर शिकार की तलाश में जंगल के रास्तों पर इधर उधर दृष्टि डालते हुए दौड़े चले जा रहे हैं।अनायास उनकी दृष्टि एक विशाल सुअर पर पड़ती है। राजा उसके जाने की दिशा में अपने अश्व को भी दौड़ा देते हैं।सुअर पर तीर पर तीर चलाये जा रहे हैं, परंतु कोई तीर उसको नहीं लगता है। इसी प्रकार पूरा दिन बीत जाता है और सुअर भी दृष्टि से ओझल हो जाता है। वास्तव में वह सुअर एक कालकेतु नामक राक्षस था। प्रतापभानु रास्ता भूल जाते हैं और भूख प्यास से त्रस्त होकर जल की तलाश में एक गुफा में प्रवेश करते हैं।वहां एक तपस्वी बैठे हुए हैं जोकि वास्तव में तपस्वी न होकर उनसे पराजित हुआ एक राजा होता है।कपटी तपस्वी तत्काल ही प्रतापभानु को पहचान जाता है परंतु अपने भीतर पराजित भाव से उपजे क्रोध को प्रकट नहीं होने देता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, March 27, 2019

रामकथा-31-रामावतार के हेतु-

रामकथा-31-रामावतार के हेतु-
   भारतवर्ष के उत्तरपश्चिम में एक कैकय प्रदेश हुआ करता था। उसके राजा थे,सत्यकेतु। सत्यकेतु के दो पुत्र थे, बड़े पुत्र प्रतापभानु और छोटे पुत्र अरिमर्दन।सत्यकेतु जब संन्यास अवस्था की ओर बढ़ने लगे तो उन्होंने अपना राज्य उत्तराधिकारी बड़े बेटे प्रतापभानु को देकर वन में प्रस्थान कर गए। प्रतापभानु के मुख्य सचिव थे, धर्मरूचि।प्रतापभानु के राजकाज में सहयोग करते थे,उनके अनुज अरिमर्दन।अरिमर्दन भी अपने अग्रज की तरह ही बाहुबली थे। प्रतापभानु के राज में प्रजा पूर्ण रूप से संतुष्ट थी । सभी धर्माचरण ही करते थे, पाप कर्म का कोई स्थान नहीं था।
           जिस राजा का अरिमर्दन जैसा बाहुबली भाई हो, उस राजा को अपने राज्य के विस्तार करने का मोह हो ही जाता है। राजा प्रतापभानु नहीं जानते थे कि एक दिन राज्य के विस्तार का यह मोह उन्हीं के पतन का कारण बनेगा। आसपास के कई राज्यों को जीतकर उन्होंने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। उसके राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी।अपने राजा से उसे किसी भी प्रकार की कोई शिकायत नहीं थी।प्रतापभानु रात भर राज्य में घूमकर प्रजा की सुरक्षा की जांच करते ।इस प्रकार कहा जा सकता है कि उनके राज्य में प्रजा को किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं थी।
       जिन राज्यों के ऊपर कैकय प्रदेश ने आक्रमण किया था, प्रायः उन राज्यों के राजा लोगों ने प्रतापभानु की शक्ति को स्वीकार करते हुए।उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। परंतु एक दो राज्य के राजा ऐसे भी थे, जिन्होंने अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर या तो लड़कर वीरगति को प्राप्त करना उचित समझा अथवा अपनी हार सम्मुख देखकर जंगल की ओर भाग लिए।जंगल में जाकर उन्होंने अपना वेश बदल लिया और प्रतिशोध लेने के लिए उचित समय का इंतज़ार करने लगे।कहा जाता है कि पराजित शत्रु अगर युद्ध मैदान पर मारे जाने के स्थान पर युद्ध भूमि छोड़कर भाग जाए, वह शत्रु भविष्य में विजयी राजा के लिए एक दिन बहुत बड़ा खतरा सिद्ध होता है।कुछ ऐसा ही राजा प्रतापभानु के साथ हुआ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, March 26, 2019

रामकथा30-रामावतार के हेतु-

रामकथा-30-रामावतार के हेतु-
         ऐसा नहीं है कि एक असुर योनि को भोगने के तत्काल बाद ही जय विजय ने अपनी दूसरी असुर योनि प्राप्त कर ली हो। बीच में कई योनियों से और निकले हैं।ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होता है, एक मानव योनि से दूसरी मानव योनि तक पहुंचते पहुंचते कई अन्य योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। जय विजय की प्रथम असुर योनि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप थी।इस असुर योनि में उन्होंने केवल अनुचित कार्य ही किये हों, ऐसा नहीं है।मनुष्य में तीनों गुण उपस्थित रहते हैं, सत्व,रज और तम।तीनों गुणों में से जिस गुण की बहुलता होती है व्यक्ति उसी के अनुसार सात्विक, तामसिक अथवा राजसिक प्रवृति का माना जाता है।असुर तामसिक प्रवृति के होते हैं परंतु उनमें सात्विक गुण भी होते हैं जिसके कारण यदा कदा वे सत्कर्म भी करते हैं।इन सत्कर्मों के प्रभाव से उन्हें पुनः असुर  बनने से पहले कुछ अच्छा मनुष्य बनने का अवसर भी मिलता है। यहां यह ध्यान में रखने योग्य है कि सनकादिक ऋषियों के श्राप का प्रभाव भी उनके अच्छे जीवन को प्रभावित करेगा। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी किये गए कर्म हमें प्रत्येक जीवन में प्रभावित करते हैं, हम उन कर्मों के फलों को बिना भुगते मुक्त नहीं हो सकते चाहे उन कर्मों का फल मिलने में सहस्रों वर्ष लग जाए।
      अपने पहले असुर शरीर से मुक्त होने के बाद जय विजय का पुनर्जन्म होता है, राजा प्रतापभानु और उसके भाई के रूप में।गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ में इस प्रतापभानु की कथा का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है।राजा प्रतापभानु महान सम्राट थे। समस्त प्रजा का हित करने वाले एक लोकप्रिय नृप आखिर कैसे राक्षस योनि में चले गए?सनकादिक ऋषियों के श्राप को सत्य सिद्ध करने के लिए परमात्मा ने यहां भी लीला की और उस लीला के जाल में आखिर एक दिन प्रतापभानु फंस ही गए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, March 25, 2019

रामकथा29-रामावतार के हेतु-

रामकथा-29-रामावतार के हेतु-
      इधर मनु शतरूपा को वरदान मिला और उधर जय विजय को उनके कर्मफल की द्वितीय किश्त मिलना निश्चित हो गया अर्थात त्रेता में निशाचर के रूप में रावण कुंभकर्ण के रूप में आना निश्चित हुआ। मेरे कहने का अर्थ है कि प्रत्येक कर्म का फल मिलना निश्चित है, यह परमात्मा का बनाया विधान है और उस विधान को सत्य सिद्ध करना भी परमात्मा के उत्तरदायित्व के अंतर्गत आता है।जय विजय को अपने कर्म के कारण श्राप मिला जिसका फल उन्होंने तीन जन्म पाकर पूर्ण रूप से भुगता और प्रत्येक बार श्रीहरि के हाथों ही उनका शरीर छूटा।प्रथम बार मे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप बने जिनको उस शरीर से मुक्त श्रीहरि ने वराह और नरसिंह अवतार लेकर किया जबकि अंतिम आसुरी योनि उन्हें द्वापर में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में मिली, जिससे भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें मुक्ति दिलाई।
जब जब होइ धरम के हानी।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।1/121/6।।
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।1/121/8।।
       श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने शंकर भगवान के मुख से यह कहलाकर राम के जन्म को परमात्मा का अवतार सिद्ध कर दिया है और साथ ही उनके जन्म लेने के दो मुख्य कारण भी बतला दिए हैं-एक,असुरों के द्वारा धर्म की हानि और दो, सज्जन व्यक्तियों का दुःख दूर करना।
     जय विजय भले ही श्री हरि के द्वारपाल रहे हों,श्राप उन्हें असुर होने का मिला था जिसके कारण उनमें धीरे धीरे देवी संपदा का ह्रास होता गया और आसुरी संपदा बढ़ती गई।अंततः एक दिन रावण कुम्भकरण के रूप में वे आसुरी सम्पदा के उत्कर्ष पर पहुंच गए।फिर रामावतार के कारण ही उनकी उन शरीरों से मुक्ति संभव हो सकी।हम अपनी इस श्रृंखला को रामकथा तक ही सीमित रखना चाहेंगे इसलिए जय विजय की दूसरी असुर योनि से मुक्त कराने वाली रामकथा पर ही अपनी चर्चा को केंद्रित रखेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, March 24, 2019

रामकथा-28-रामावतार के हेतु-

रामकथा-28-रामावतार के हेतु-
          गंभीरता से दोनों घटनाओं पर विचार करें तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर निश्चित रूप से सामने आता है।पहले जय विजय को श्राप मिला था और बाद में मनु शतरूपा को वरदान।दोनों द्वारपालों जय और विजय को श्राप प्रभु के भक्तों सनकादिक ऋषियों से मिला था और प्रभु सदैव अपने भक्तों के वचनों को मिथ्या होने से बचाते हैं।भगवान चाहते तो सीधे सीधे जय विजय को श्राप से मुक्त करा सकते थे लेकिन वे अपने भक्त के वचन को सत्य सिद्ध कराते ही हैं।
      मनु शतरूपा को दिया गया वरदान ही प्रभु की एक लीला थी। दोनों की मति (बुद्धि) परिवर्तित कर देना केवल परमात्मा के वश में ही था अन्यथा मोक्ष के लिए तपस्या करने वाला व्यक्ति मुक्ति से कम कैसे स्वीकार कर सकता है ? पाना था परमात्मा को, निराकार में अपने साकार शरीर को विलीन करने का अनुपम अवसर था मनु शतरूपा के पास।देखिए मति का फेर, उल्टे निराकार परमात्मा को ही साकार पुत्र के रूप में पाने का वर मांग लिया। क्या मनु को पता नहीं था कि परमात्मा के साकार रूप जैसा केवल परमात्मा ही हो सकता है? इस प्रकार मनु ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही परमात्मा को ही अपने पुत्र के रूप में मांग लिया।क्या मनु यह नहीं जानते थे कि परमात्मा को पुत्र बना लेना, उन्हें पुनः सांसारिकता में उलझा कर रख देगा।सब कुछ जानते थे मनु । अपने भक्तों और पार्षदों के कारण परमात्मा की इच्छा थी अवतार लेने की और एक तपस्वी युगल के घर में अवतार लेने से अच्छी जगह उनके लिए दूसरी अन्य केउन सी हो सकती थी ? मनु शतरूपा ने परमात्मा की इस इच्छा को स्वीकार कर अपनी इच्छा बना लिया और अपने घर पुत्र रूप में आने का वरदान ले लिया। मनु ने प्रभु सर कहा,"भावी जीवन में मैं आपको पुत्र ही समझूँ, परमात्मा नहीं। इसलिए जब आप पुत्र रूप में पधारें तो मुझे यह याद नहीं रहे कि आप ब्रह्म हैं।"  परंतु शतरूपा मनु से अधिक समझदार निकली।वह जानती थी कि पुनर्जन्म में जाने पर पूर्वजन्म की कोई स्मृति साथ में नहीं रहती।अतः उन्होंने श्रीहरि को कहा-"आप पुत्र रूप में जन्म लेने से पहले अपना चतुर्भुज स्वरूप मुझे अवश्य दिखलाएं।ऐसा हो जाने पर जीवन भर मैं आपको अपना पुत्र मानते हुए भी आपका परमात्मा होना विस्मृत नहीं कर सकूंगी।" इस प्रकार वरदान में मिलने वाले फल के साथ श्रीहरि के दर्शन की इच्छा कर कम से कम शतरूपा ने तो अपनी तपस्या को सही दिशा दे दी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, March 23, 2019

रामकथा-27-रामावतार के हेतु-

रामकथा-27-रामावतार के हेतु-
       श्रीहरि के दो द्वारपाल, जय और विजय।जिसके दोनों द्वारपालों के नाम में ही जय हो, उन परमात्मा की जयजयकार भला क्यों न हो? इस कारण से दोनों में कुछ अहंकार भी हो गया था।श्रीहरि भीतर लक्ष्मीजी र्के साथ बैठे हैं और द्वार पर जय-विजय पार्षद द्वारपाल बन खड़े हैं।जय-विजय जानते हैं कि उनके स्वामी समस्त संसार के स्वामी हैं, वे उनके आदेश की अवहेलना किसी भी कारण से करेंगे ही नहीं। चाहे संसार का कोई भी महान से महान व्यक्ति ही उस समय क्यों न आ जाये, उसको वे भीतर प्रवेश करने से पूर्व ही रोक लेंगे। अब उनको क्या पता कि स्वामी का जो भक्त होता है वह अपने स्वामी से भी बड़ा होता है। जय और विजय तो मात्र पार्षद हैं उस स्वामी के, जबकि स्वामी के दास और स्वामी का आपसी संबंध ऐसा होता है, जहां दास की इच्छा को पूर्ण करना ही स्वामी के लिए सर्वोपरि होता है।
     "मैं भक्तन को दास, भगत मेरा मुकुट मणि", लो जी स्वामी के मुकुटमणि आ पहुंचे, स्वामी के दास यानि ब्रह्मा पुत्र सनकादिक ऋषि। स्वामी के गृह में प्रवेश पाने के लिए उन्हें किसी से अनुमति लेने की कभी भी कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वे तो केवल प्रभु के दर्शन चाहते हैं।परंतु भगवान के पार्षदों को तो अपना कर्तव्य निर्वहन करना ही पड़ता है।जय विजय ने उन्हें द्वार पर ही अंदर प्रवेश करने से रोक दिया।ऋषियों द्वारा बहुत ही विनय पूर्वक बार बार आग्रह किया गया ।स्वामी चाहे कितने ही विनयशील हों परंतु उनके पार्षद भला अहंकारवश किसी की कब सुनते हैं?  "स्वामी की आज्ञा है", कह कर अंतिम रूप से स्पष्टतः प्रवेश करने से रोक दिया गया।ऋषि ठहरे ज्ञानी भक्त, उनको यह स्वीकार कैसे होता? श्रीहरि के द्वारपाल और इतना अहंकार, निकाला कमण्डल में से जल और दे दिया श्राप। "जाओ, पृथ्वी पर जाकर निशाचर हो जाओ। तीन जन्मों तक राक्षस रहोगे और तुम दोनों का उद्धार भी श्रीहरि के हाथों ही होगा।" जय विजय तीन बार असुर योनि में जाएंगे।उनकी एक असुर योनि निकल चुकी है, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में।उनकी दूसरी असुर योनि रावण कुम्भकरण के रूप में इस त्रेता युग में अभी लंका में सक्रिय है। अब तो श्रीहरि को राम रूप में अवतरित होना ही होगा।
         अब प्रश्न यह उठता है कि पहले जय विजय को श्राप मिला अथवा मनु शतरूपा को वरदान। आपको क्या लगता है, कौन सी घटना पहले घटी थी ? मैं तो कहता हूँ कि चाहे कोई सी भी घटना पहले घटी हो,एक के बाद दूसरी घटना का घटना अवश्यम्भावी हो गया था, इसलिए फिर दूसरी घटना भी घटी। कहने का अर्थ है कि एक घटना दूसरी घटना की पूरक है। फिर भी प्रश्न उठा है तो उत्तर भी जानना आवश्यक है कि कौन सी घटना बाद में घटी क्योंकि यह कथा है, कहानी नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, March 22, 2019

रामकथा-26-रामावतार के हेतु-

रामकथा-26-रामावतार के हेतु-
      मनु-शतरूपा को परमात्मा से मिले वरदान में कुछ भी नहीं मांगना चाहिए था परंतु उनके मन की गहराई में पुत्र मोह कहीं अभी भी सांसे ले रहा था। संसार में पुत्र को छोड़ आये हैं और संसार से मुक्ति पाने के स्थान पर श्रीहरि जैसा ही पुत्र मांग लिया। अब पुत्र मांगा है तो अप्रत्यक्ष रूप से संसार में एक नया जन्म भी मांग लिया फिर मोक्ष का क्या हुआ? मोक्ष से वंचित हो जाना तप की असफलता ही है। हरि तो रह गए, अपने भक्तों के वश में, कह दिया- "मेरे जैसा पुत्र कहाँ से लाऊं, मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनकर आऊंगा।" यही तो भगवान की विशेष बात है कि जो मांगोगे, बिना उस पर विचार किये भक्त को दे डालते हैं। इसे तो मैं मनुष्य की विडंबना ही कहूँगा कि साक्षात परमात्मा वरदान दे रहे हैं और हम वर में उन्हें न मांग कर सांसारिक वस्तुएं ही मांग बैठते हैं।जिस संसार को हम छोड़कर आये हैं, पुनः उसी संसार में डूबने के लिए पुत्र पाने का वर मांग रहे हैं। अरे मनु महाराज, पुत्र उत्तानपाद को तो छोड़कर आये हैं । क्या वह पुत्र नहीं था जो फिर पुत्र ही मांग लिया।हम भी मनु शतरूपा की तरह ही करते हैं? परमात्मा को भजते हैं, मोक्ष के लिए और वर मिलते ही पुनः उसी संसार को मांग लेते हैं जिससे मुक्त होना चाहते हैं।आखिर परमात्मा हमारा कल्याण करे तो कैसे करे?
        श्रीहरि को पुत्र रूप में पाने के वरदान के कारण, मनु शतरूपा को वैकुण्ठ मिलने के स्थान पर संसार मिलना निश्चित हो गया है।श्रीहरि चाहे पुत्र रूप में आ जाये, यह मन उसमें भी अपनी ममता पैदा कर लेगा और फिर उसी हरि को भुला बैठेगा।अब वह श्रीहरि न होकर उनका पुत्र राम होगा। पिता दशरथ के लिए तो राम सदैव पुत्र ही रहेंगे, उनके लिए वे परमात्मा कैसे हो सकते हैं? राम को पुत्र न मानकर उनमें श्रीहरि को देखते तो मृत्यु उनका वरण कर ही नहीं सकती थी।समस्त स्थान में हरि को देखने वाले अमर होते हैं, शेष सभी तो सांस लेते हुए केवल शरीर का बोझ ढो रहे होते हैं। दशरथ की पुत्र राम में ममता हुई, मोह हुआ अगर उसके स्थान पर पुत्र में परमात्मा को देखते हुए उनसे स्नेह रखते तो रामकथा कुछ और ही होती ।
       मनु हो चाहे दशरथ अथवा हम, हमारे में से कोई भी पुत्र मोह से मुक्त नहीं हैं।तप का फल वरदान और उससे मांगे वर ने परमात्मा को अवतार लेने के लिए विवश कर दिया है।अब परमात्मा कोई साधारण मनुष्य तो है नहीं, सीधे सीधे तो अवतार कैसे ले लेंगे,उसके लिए कुछ न कुछ तो भूमिका बनानी पड़ेगी।उस भूमिका को बनाने में किन किन का और किस प्रकार का सहयोग रहा, अब उस ओर थोड़ी दृष्टि डाल लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, March 21, 2019

रामकथा-25-रामावतार के हेतु-25

रामकथा-25-रामावतार के हेतु-
     मनु सांसारिक जीवन को छोड़कर वन में परमात्मा की भक्ति करने जा रहे हैं।अपने पुत्र उत्तानपाद (ध्रुव के पिता) को राज्य सौंपकर।धर्म पत्नी शतरूपा को साथ लिया और जीवन के चतुर्थ काल में संन्यास के लिए वन गमन कर लिया। भौतिक रूप से संसार को त्यागकर वन में चले जाना बहुत ही आसान है परंतु वन में रहते हुए मन से संसार को त्याग देना बड़ा ही कठिन है। संसार में रहकर समस्याओं का सामना करने से घबराकर वनगमन कर लेना संसार त्याग नहीं हो सकता वह तो संसार से पलायन करना हुआ।आज प्रायः कथित साधु लोग पलायन करने वाले हैं, संसार को त्यागने वाले नहीं।अगर किसी ने इस संसार को त्याग भी दिया है तो क्या हुआ? जंगल में बैठकर अपना नया संसार बना लिया।संसार को मन से निकालना आवश्यक है। मनु और शतरूपा मन से संसार को त्यागकर परमात्मा को पाने के लिए वन में आये हैं।
           संसार को हम चाहे कितना ही छोड़ना चाहे, यह मन हमें इससे मुक्त होने ही नहीं देता।साधन और साधना चाहे कितनी ही कठोर क्यों न हो, मन का भटकाव तो चाहे तब इन सब पर प्रभावी हो सकता है।वन चले जाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार समाप्त हो गया।संसार तो मन में बसता है, अगर मन चाहे तो संसार में ही वन बन जाता है अन्यथा वन में रहते हुए भी संसार का अस्तित्व मन में बना रह सकता है।"मन: एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो।" सत्य है, मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।
        साधन से कठोर तप और फिर भगवान का प्रकट होना और आशीर्वाद स्वरूप वर देना अर्थात तप को एक कर्म बनाते हुए उसका फल देना। यहीं आकर मनुष्य का मन मात खा जाता है।तप अगर कर्म है तो उसका फल भी मिलना निश्चित है। तप तभी कर्म बनता है जब तप के पीछे कोई कामना हो अन्यथा तप तो कामना रहित होता है।मनु शतरूपा के मन में तप करने के पीछे कोई कामना नहीं थी, फिर तप को कर्म मानते हुए फल के रूप में वरदान क्यों? वरदान इसलिए कि यह जाना जाए कि आप मन से मुक्त हुए अथवा नहीं।   
              वन में आकर भी मन से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, मन पर तो स्वयं को ही प्रभावी बनाना पड़ता है।मन को दबाओ मत, मन तो दबाव से जरा सा छूटते ही आप पर हावी हो जाता है।मन को दबाने के स्थान पर उसे समझाना अधिक उपयुक्त है, जिससे वह आपकी तरह ही आपका भला-बुरा समझ सके।एक दृष्टि परमात्मा पर रखें परंतु साथ में मन पर भी दूसरी दृष्टि जमाये रखें। जरा मन पर से दृष्टि हटी नहीं कि आध्यात्मिक जीवन में कोई न कोई दुर्घटना घट सकती है। इतनी उच्च अवस्था पर आकर भी मन पर दृष्टि न रख पाने के कारण मनु और शतरूपा भी मात खा गए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, March 20, 2019

रामकथा-24-रामावतार के हेतु-

रामकथा-24-रामावतार के हेतु-
           "प्रत्येक कार्य के मूल में संकल्प अवश्य होता है।पूर्व जन्म का संकल्प आज फलीभूत है, आज का संकल्प कल फलीभूत होगा।"
       प्रत्येक प्राणी के जन्म के लिए मानव जीवन में किये गए संकल्प(resolution) ही उत्तरदायी होते हैं।भगवान राम का अवतार लेना भी इन्हीं संकल्पों का परिणाम है।संकल्प पूरा कैसे होता है ? संकल्प पूरे होते हैं, कर्म करने से। कर्मों से ही कर्मफल उत्पन्न होते है, जिन्हें भुगतने और भुगताने के लिए इस संसार में जन्म लेना पड़ता है।कहने का अर्थ है कि संकल्प पूर्ण करने का एक ही विकल्प (alternative, choice) है, कर्म करना। कर्म किये बिना संकल्प पूरे नहीं किये जा सकते।इसीलिए यह कहा जाता है कि अगर जीवन में शांति चाहिए तो संकल्प रहित हो जाइए।राम जन्म के पीछे भी ऐसे ही कुछ संकल्प विकल्प थे जिनके कारण ब्रह्म को इस संसार में मानव रूप में अवतरित होना पड़ा।साधारण मनुष्य और परमात्मा के संकल्प में बड़ा मूलभूत अंतर होता है। मनुष्य संकल्प को अपने स्तर पर पूरा करने के लिए जी जान लगाकर कर्म करता है जबकि परमात्मा अपने संकल्प पूरा करने की लीला करते हैं, जोकि मात्र नाटक में किये जाने वाले अभिनय से अधिक नहीं होता है।जिस समय हमें आत्मज्ञान हो जाता है, हमारे कर्म, हमारा जीवन, आचार, विचार, व्यवहार आदि सब लीला बनकर रह जाते हैं और हम स्वयं ही परमात्मा हो जाते हैं।
       जीवन में कर्म तो करने ही पड़ेंगे, परंतु कर्मों के कर्ता नहीं बनोगे तो कर्मफल भी नहीं बनेंगे।हम संकल्प को पूरा करने के लिए कर्ता बन जाते हैं, यही बात हमें स्वयं को परमात्मा बनने से दूर ले जाती है।अब देखिए, कैसे बिना कर्तापन के परमात्मा दूसरे मनुष्यों के कर्मों के आधार पर अवतार लेते हैं।यह जानने के लिए चलते हैं, मनु और शतरूपा के पास।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, March 19, 2019

रामकथा-23-रामावतार के हेतु-


रामकथा-23-रामावतार के हेतु-
        रामकथा कहने,सुनने का तभी लाभ है जब मन के सभी संशय दूर हो जाये अन्यथा तो यह कथा भी मात्र एक कहानी बनकर रह जायेगी।
रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय विहग उड़ावनिहारी।।
रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी।।1/114/1-2।।
    रामकथा उस दोनों हाथों से बजाई जाने वाली ताली की तरह है, जिसके बजाते ही संशय रूपी पंछी उड़ जाते हैं।कलियुग रूपी पेड़ को वह जड़ से उखाड़ फेंकती है, उस कथा को हे पार्वती, तुम आदर सहित सुनो।
          रामावतार के पूर्व से लेकर उनके लीला संवरण करने तक की यात्रा में कई प्रश्न मन में उठते हैं और यह स्वाभाविक भी है। किसी कहानी के सुनने से मन में प्रश्न तो उठेंगे ही परंतु इस कहानी को श्रद्धा रखकर कथा बना लेंगे तो हमें सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे और सारा संशय दूर हो जाएगा।
       गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में जो कथा कही है, उसमें संशय करने का कोई कारण नहीं बनता। वैसे हम संशय करने की जिद्द ही कर लें तो संसार और परमात्मा की प्रत्येक बात में संशय कर सकते हैं।संशय दूर करने के लिए केवल ग्रंथों का अध्ययन करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसके लिए दीर्घकालीन सत्संग की आवश्यकता होती है। बिना सत्संग के संशय दूर नहीं हो सकता।पूर्व जन्म में सती ने राम की कहानी शंकर से भी सुनी थी, फिर भी आज पार्वती शंकर के साथ रामकथा सुनने के लिए सत्संग कर रही है। पूर्वजन्म में कहानी सुनी थी, इसलिए राम के ब्रह्म होने पर संशय पैदा हुआ ।अब रामकथा पर सत्संग कर रही है।सत्संग सभी शंकाओं का समाधान कर देता है।यह सत्संग उसे भविष्य में संशय से सदैव मुक्त रखेगा।
अब हम 'रामावतार के हेतु' विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, March 18, 2019

रामकथा-22-रामावतार के हेतु-

रामकथा-22-रामावतार के हेतु-
     पार्वतीजी ने अपने पूर्वजन्म में एक अनुचित कार्य (परमात्मा पर संशय) किया था, जब वह दक्षसुता सती थी।शम्भू के लाख मना करने के बाद भी उसने अपना संशय दूर करने के लिए (मानस कर्म)परमात्मा की परीक्षा ली थी।राम वनगमन की अवस्था में थे और सती शंकर दोनों वनभ्रमण पर। सीता का रावण द्वारा हरण कर लिए जाने पर राम व्याकुल होकर रोते हुए सीता को पुकार रहे हैं।शंकर भगवान अपने प्रभु को सामने से आते देखकर नंदी से उतरे और उन्हें सादर प्रणाम किया।जगतपति शंकर एक साधारण वनवासी को सादर प्रणाम कर रहे हैं, सती यह देखकर अचम्भित रह गई। "जगतपति के ऊपर तो केवल एक परमात्मा ही हो सकता है अन्य कोई नहीं।फिर पतिदेव वनवासी को प्रणाम क्यों कर रहे हैं? एक वनवासी भला परमात्मा किस प्रकार से हो सकते हैं ? जो अपनी भार्या के खो जाने पर इतना अधिक व्याकुल होकर रो रहा है, वह तो ब्रह्म हो ही नहीं सकता।"
        शंकर-सती आगे भ्रमण पर चल पड़े परंतु सती का मन बेचैन।उनके मन में संशय उत्पन्न हो गया और वह भी परमात्मा के प्रति।भगवान शंकर से आज्ञा लेकर चल पड़ी उस वनवासी की परीक्षा लेने। "नहीं,वे परम ब्रह्म है, वनवासी समझकर उनकी परीक्षा लेने की भूल न करना।" शम्भू ने उन्हें अंतिम चेतावनी दी परंतु सती कहाँ मानने वाली थी, आखिर एक स्त्री जो ठहरी। बनाया सीता का वेश और चल पड़ी उधर, जिधर से राम लखन सीता को ढूंढने की लीला करते हुए आ रहे थे। सीता का वेश धारण किये हुए सती को सामने से राह में अकेले आते देखकर राम बोल पड़े-"माता, प्रणाम।आज आप वन में अकेले कैसे घूम रही हैं ? कहाँ है, जगतपति?" सती पुनः एक बार अचम्भित हुई। इन्होंने तो मुझ को सीता के वेश में भी पहचान लिया। ये कोई साधारण वनवासी नहीं है। ये तो साक्षात परम ब्रह्म ही हैं।सती को काटो तो खून नहीं। "हे भगवान, जानबूझकर कितना बड़ा अपराध कर बैठी मैं? शंकर के लाख समझाने पर भी इनको एक वनवासी ही समझकर क्यों संशय किया मैंने ?अब शंकर को क्या उत्तर दूंगी?" प्रणाम कर लौट पड़ी,मन में कुछ सोचते हुए शंकर के पास। 
         आते ही झूठ बोला शंकर को, अपने पति को। "मैंने उनकी कोई परीक्षा नहीं ली, आपकी तरह ही उनको प्रणाम कर के लौट आयी हूँ।" भला शंकर से भी कभी कुछ छुपा रह सकता है? नहीं, वे तो त्रिकालज्ञ हैं और त्रिलोकी के नाथ भी। सब कुछ समझ गए।
        अनायास उत्पन्न हुई उस स्थिति से शंकर बड़े आहत हुए और उन्होंने सती को त्याग दिया। मेरी पत्नी ने मेरे प्रभु पर संशय किया, अब इस जन्म में वह मेरी पत्नी कहलाने के योग्य नहीं रही। शम्भू ने आहत हुए मन को नियंत्रित किया और अखंड समाधि में लीन हो गए।हज़ारों साल बाद जगे, परंतु सती के साथ वह व्यवहार नहीं, जो एक पत्नी के साथ किया जाता है। सती के पिता दक्ष ने यज्ञ किया परंतु शंकर से वैमनस्य के चलते उन्हें आमंत्रित नहीं किया, सती को भी नहीं। परित्यक्ता का जीवन जीते जीते सती को अपना जीवन बोझ लगने लगा था, सोचा-"पिता के घर हो आऊं, सबसे मिलूंगी तो मन बहाल जाएगा।पिता के घर जाने के लिए किसी आमंत्रण की कोई आवश्यकता क्यों हो?" शम्भू ने लाख समझाया, सती तर्क वितर्क करती रही।
भांति अनेक संभू समझावा।
 भावी बस न ग्यानु उर आवा।।1/62/7।।
अंततः शम्भू ने आज्ञा दे दी। अपने गण उनके साथ कर दिये। वहाँ जाकर सती ने देखा कि यज्ञ में शम्भू का स्थान और भाग कहीं नहीं है। वह अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकी और अपने पिता दक्ष के घर में ही योगाग्नि में जलकर भस्म हो गई । कई वर्षों बाद हिमालय-मैना के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। पूर्वजन्म की इच्छानुसार कठोर तपस्या के बाद उनका विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ। इस जन्म में अब परम ब्रह्म के प्रति कोई भ्रम न पैदा हो, इसलिए वे अपने पति शंकर से रामकथा सुनना चाहती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, March 17, 2019

रामकथा-21-रामावतार के हेतु-

रामकथा-21- रामावतार के हेतु-
     हमारे आचार, विचार,व्यवहार और कर्म एक दूसरे को प्रभावित अवश्य करते हैं। इनके प्रभाव से हम में से प्रत्येक का वर्तमान जीवन तो प्रभावित होता ही है, साथ ही भावी जीवन भी प्रभावित होता है।मन से अगर हम किसी कर्म को करने का विचार भी करते हैं,तो उसका फल भी हमें मिलना निश्चित है। ऐसे कर्म को मानस कर्म कहते हैं और मिलने वाले फल को मानस फल। मानस कर्म मनुष्य की मानसिक दशा को परिवर्तित कर फलीभूत होते हैं। परमात्मा के अवतार लेने में भौतिक कर्मों के साथ साथ मानस कर्मों की भी भूमिका रहती है।
        परमात्मा भी अवतार लेने से पहले विभिन्न मनुष्यों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के कर्म करवाते हैं परंतु स्वयं "न करोति न लिप्यते" बने रहते हैं।इस बात को समझना बहुत आवश्यक है। परमात्मा हमें साकार रूप में कर्म करते दृष्टिगत अवश्य होते हैं परंतु वे कर्म करते नहीं है बल्कि कर्म करने का नाटक करते हैं।इसी को परमात्मा की लीला कहा जाता है। यही कारण है कि वनभ्रमण की अवधि में सीता हरण पर राम को व्याकुल देखकर भी शंकर तो ब्रह्म को पहचान गए थे परंतु सती उन्हें नहीं पहचान सकी।इसी कारण से सती के मन में संशय पैदा हो गया। अपने मन का संशय तो सती ने तत्काल सीता का वेश बनाकर दूर कर लिया परंतु इस कर्म(सीता का वेश धारण) के कारण वह अपने पति को खो बैठी। वापिस शंकर के पास लौटते ही भगवान ने उन्हें वाम भाग में स्थान देने की बजाय अपने सामने आसान दिया। यह शंकर का सती को अपनी पत्नी के पद से त्यागना था। परमात्मा में क्षणिक समय के लिए उत्पन्न हुए संशय ने सती को पुनर्जन्म लेने को बाध्य कर दिया। रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही वह पार्वती बनकर शंकर को पति के रूप में पा चुकी है। भविष्य में परमात्मा के प्रति किसी प्रकार का संशय न रहे, अतः वे शंकर से रामकथा सुनाने का आग्रह कर रही है।
      आइए,अब रामकथा पर आगे बढ़ते हैं।श्री रामचरित मानस में पार्वतीजी अपने पति शंकर भगवान से रामकथा सुनाने का आग्रह कर रही है।
बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम।।
                                 ।।मानस-1/110।।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, March 16, 2019

रामकथा-20-अवतार के हेतु-

रामकथा-20-अवतार के हेतु-
          इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा अवतार लेते हैं, ज्ञानी भक्तों के लिए।हरि:शरणम् आश्रम बेलड़ा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा कहते हैं कि भगवान अपने सभी भक्तों पर बराबर दया रखते हैं परंतु उनकी विशेष कृपा कुछ ही भक्तों पर होती है। दया के पात्र अर्थार्थी और आर्त भक्त हैं ही, जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों पर भगवान की विशेष कृपा होती है।इनमें भी जिज्ञासु भक्त,जो कि परमात्मा को जानने की कामना रखते हैं, को तो भगवान सद्गुरु उपलब्ध करा देते हैं परंतु ज्ञानी भक्त की तो कोई कामना ही नहीं होती। ऐसे परम ज्ञानी भक्त पर उनकी विशेष कृपा रहती है।जब ज्ञानी भक्त कष्ट सहते हैं तब वे किंचित मात्र भी व्यथित नहीं होते। परंतु भगवान से अपने इन सर्वाधिक प्रिय भक्तों का कष्ट सहना असह्य हो जाता है और उन्हें संसार में अवतरित होना पड़ता है।
       रामावतार भी इसीलिए हुए था क्योंकि पृथ्वी पर अत्याचार इतने अधिक बढ़ गए थे कि केवल साधारण मनुष्य ही नहीं बल्कि ऋषि मुनि जैसे तपस्वी ज्ञानी भक्तों पर भी अत्याचार होने लगे थे।जब असुर जन  ज्ञानी भक्तों को एक सीमा से अधिक पीड़ा देने लगते हैं  तब भगवान से यह सहन नहीं होता और उनको अवतार लेना ही पड़ता है। ऋषि मुनि जैसे ज्ञानी भक्त कभी भी भगवान को नहीं कहते कि हे प्रभो!इन आततायियों से हमारी रक्षा करो।आप समस्त ग्रंथ उठाकर देख लीजिए, कभी भी कोई ज्ञानी भक्त भगवान से यह प्रार्थना करता नहीं मिलेगा कि हे प्रभो!मुझे इन राक्षसों से बचाओ।
       प्रभु को ऐसे ही ज्ञानी भक्तों की रक्षा के लिए अवतार लेना पड़ता है, जो कि जिन्होंने पीड़ा सहते हुए भी आर्त भाव से अपने प्रभु को कभी भी नहीं पुकारा। परमात्मा को इनके लिए आना ही पड़ता है परंतु परमात्मा अवतार लेकर मनुष्य रूप में आये तो आये कैसे?उन्होंने ही तो इस धरा पर जन्म लेने का भी एक विधान बना रखा है-कर्म।अतः अवतार लेने से पूर्व उन्हें भी हम मनुष्यों से कुछ ऐसे कर्म करवाने पड़ते हैं, जिनकी आड़ लेकर वे इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित हो सकें। त्रेता युग में यही कर्म रामावतार के हेतु बने थे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, March 15, 2019

रामकथा-19-अवतार के हेतु-

रामकथा-19-अवतार के हेतु-
       महाभारत काल की इस कथा को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा यह मंतव्य है कि भले ही परमात्मा न तो कुछ कर्म करते हो और न ही उन कर्मों को करके उनमें लिप्त होते हों,परंतु एक बात सत्य है कि उनसे भक्तों का कष्ट  देखा नहीं जाता। भक्तों को कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए ही वे बार बार इस धरा पर अवतार लेते हैं। भक्त भी चार प्रकार के होते हैं,"चतुर्विधा भजन्ते मां...."-अर्थार्थी,आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी।अर्थार्थी और आर्त भक्त के लिए भगवान तुरंत दौड़े चले आते हैं।जिज्ञासु भक्त को भगवान गुरु उपलब्ध कराते हैं जबकि ज्ञानी भक्त तो परमात्म स्वरूप ही होते हैं।इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ज्ञानी भक्त मुझे सर्वाधिक प्रिय है।इसका अर्थ है कि सभी भक्त भगवान को प्रिय होते हैं परंतु ज्ञानी भक्त उन्हें सबसे प्रिय हैं। इन चारों में से कौन से भक्त के लिए उन्हें अवतार लेना पड़ता है?आइए,यही जानने का प्रयास करते हैं।
        ज्ञानी भक्त के लिए भगवान को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना पड़ता क्योंकि ज्ञानी भक्त की सभी कामनाएं समाप्त हो जाती है।उसके मन में कोई कामना उठती ही नहीं है। "सन्तुष्टो सततं योगी..."वह सभी प्रकार से संतुष्ट होता है।जब कामना ही नहीं है तो भगवान को आर्त होकर अथवा अर्थ के लिए पुकारने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। कृष्ण-अर्जुन को मिला वह गरीब ब्राह्मण ज्ञानी भक्त है। परमात्मा श्री कृष्ण उसकी लेश मात्र भी चिन्ता नहीं कर रहे हैं।इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान उनसे विमुख हो जाते हैं।नहीं, ज्ञानी भक्त जब स्वयं ही भगवान हो जाता है, तो फिर कौन तो चिंता करे और किसकी चिंता करे?
        परमात्मा अवतार लेते हैं, अपने भक्तों के लिए, विशेष रूप से इन्हीं ज्ञानी भक्तों के लिए। आर्त और अर्थार्थी भक्तों के लिए तो वे किसी भी रूप में , कहीं भी और कभी भी दौड़ कर आ जाते हैं, चाहे वे अवतरित हुए हों अथवा नहीं  परंतु ज्ञानी भक्तों की रक्षा के लिए तो स्वयं उनको अवतार ही लेना पड़ता है। गजेंद्र आर्त था, उसके पुकारते ही भगवान दौड़े चले आये, अवतार नहीं लिया।द्रोपदी आर्त हुई,भरी सभा में वस्त्र विहीन होने जा रही थी, भगवान अवतार अवस्था में थे, दौड़कर चले गए, वस्त्र बनकर उसकी इज्ज़त बचा ली।परंतु प्रह्लाद ज्ञानी भक्त थे, भगवान को नरसिंह रूप में अवतार लेना पड़ा।उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में कभी भी सहायता के लिए श्री हरि को नहीं पुकारा।और तो और, जब नरसिंह भगवान ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने यही वरदान मांगा कि मेरे मन में कभी किसी कामना का बीज तक अंकुरित न हो।
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।
कामानां हृद्यसंरोहं भव तस्तु वृणे वरम् ।। 
                          - भागवत-7/10/7।।
एक असुर बालक की ऐसी भक्ति को  नमन।ऐसे परम ज्ञानी भक्त के लिए ही परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, March 14, 2019

रामकथा-18-अवतार के हेतु-

रामकथा-18-अवतार के हेतु-
             इस संसार में किसी का भी अवतरण होता है तो उसमें उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का योगदान अवश्य होता है।  हाँ कर्म, परंतु किसके कर्म?परमात्मा तो "न करोति न लिप्यते" है। जब वे कर्म करते ही नहीं है तो फिर कौन से और किसके द्वारा किये गए कर्म परिणाम देने के लिए उनको विवश कर सकते हैं? यही तो कर्म रहस्य है। उन्हीं के बनाये विधान के अनुसार स्वयं उनको भी चलना पड़ता है।हम सोचते हैं कि केवल हमारे द्वारा किये गए कर्म ही हमारे भावी जन्म को प्रभावित करते हैं ।नहीं,केवल हमारे कर्म ही नहीं, हमारे से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति के कर्म, विचार और यहां तक कि उनके कथन तक भी हमारे महाजीवन की दिशा निश्चित करते हैं।अब हम उन कर्मों का विश्लेषण करेंगे जिनके कारण कर्म न करते हुए भी परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है।इस विषय पर चर्चा प्रारम्भ करने से पूर्व महाभारत काल की एक कथा को देखते हुए आगे बढ़ते हैं।
      अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं।भगवान श्रीकृष्ण ने उसके मन की बात को तुरंत समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनका सामना एक गरीब ब्राह्मण से हुआ। उसका व्यवहार उन्हें थोड़ा विचित्र लगा। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर में तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने पूछा, ‘‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’’
ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूँ।’’
‘‘आपके वे शत्रु कौन कौन हैं? कृपया बतलाइए।’’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।
ब्राह्मण ने कहा, ‘‘मैं उन चार लोगों को खोज रहा हूँ,ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं।उन्होंने मेरे प्रभु को बहुत कष्ट दिया है।
       सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को कभी आराम ही नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जाग्रत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूँ। उसने मेरे प्रभु को ठीक उस समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना तक खिलाया।"
 ‘‘आपके दो और शत्रु कौन कौन हैं?’’ अर्जुन ने पूछा।
     "तीसरा शत्रु  है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गर्म तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया और चौथा शत्रु है अर्जुन। जरा उसकी दुष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी तक बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को?" यह कहते कहते ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।
       यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो उनके समक्ष कुछ भी नहीं हूँ।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, March 13, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-17

रामकथा-17
      इस प्रकार हमने अभी तक इस श्रृंखला में सीता के विरह से संबंधित प्रसंगों पर चर्चा की है। राम कथा केवल एक कहानी मात्र ही नहीं है इसीलिए इसका विश्लेषण कर गहराई तक पहुंचना आवश्यक है।स्वाभाविक है इसको पढ़कर मन में प्रश्नों का उठना। अगर गंभीरता से हम इस कथा पर चिंतन मनन करें और साथ ही संतों का संग भी करें तो प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाते हैं। एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि हम राम कहानी पर चर्चा नहीं कर रहे हैं,रामकथा पर चर्चा कर रहे हैं जिसमें मुख्यतः 'क्यों हुआ' पर विचार रखे जाते हैं।इसलिए आपस में कुछ मत भिन्नता उत्पन्न हो सकती है। चर्चा की अवधि में कुछ प्रश्न उठें तो आप तुरंत पूछ सकते हैं।हाँ, प्रश्न रामकथा से संबंधित हो तो अच्छा रहेगा।रामकथा का प्रारम्भ जहां से होता है, आइए! अब उसी ओर चलते हैं।
       राम और सीता दोनों ने इस संसार में केवल एक बार ही जन्म लिया हो, ऐसा नहीं है।कई जन्म हो चुके हैं इनके और भविष्य में भी होंगे,परंतु हम इन सबको नहीं जानते। गीता के चौथे अध्याय के प्रारम्भ में ही भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह देते हैं कि तुम्हारे और मेरे कई जन्म हो चुके हैं।उन सब जन्मों को तू नहीं जानता परंतु मैं जानता हूँ।
"बहूनि मे व्यतिनानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4/5।।"
 अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि मनुष्य पूर्वजन्मों के बारे में कुछ भी नहीं जानता, हे प्रभो!ऐसा क्यों होता है?क्या उत्तर दे कृष्ण इस प्रश्न का। भगवान रह गए, कुछ तो अंतर मनुष्य और भगवान में बना रहना ही चाहिए न। सभी कहते हैं कि अर्जुन का प्रश्न अनुत्तरित रहा। क्या आप भी इस बात से सहमत हैं?
          भगवान हमसे केवल मनुष्य के रूप में आकर ही मिलते हों, ऐसा नहीं है। हमारी बुद्धि को न जाने क्या हो गया है जो हम उनको पहचान ही नहीं पाते। हमें तो अगर वे मनुष्य रूप में भी हमारे सामने आ जाये तो भी हमें वे एक साधारण मनुष्य मात्र ही प्रतीत होंगे।उनके इस संसार से विदा हो जाने के बाद ही हमें अनुभव होता है कि अरे! वे तो ब्रह्म थे। आज जो कथा हम पढ सुन रहे हैं, सनातन शास्त्रों में उनके अवतरण की ऐसी अनेकों कथाएं भरी पड़ी है।दशावतार के बारे में हम प्रायः सभी जानते हैं, रामकथा उनमें से परमब्रह्म के सातवें अवतार की कथा है।  पहले छः अवतार हो चुके हैं और सातवें अवतार की तैयारी चल रही है। क्यों लेना पड़ता है बार बार अवतार प्रभु को? अवतार लेने का कारण क्या है? बड़ा ही गूढ़ प्रश्न उठा है मन में।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, March 12, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-16

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-16
        परमात्मा को अपनी लीला समेटनी है। अश्वमेघ यज्ञ प्रस्तावित हुआ। समस्त वैदिक कार्य सम्पन कर अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ा गया।लवकुश के द्वारा पकड़ा जाना ही था आखिर अयोध्या के राज सिंहासन के उत्तराधिकारी जो ठहरे। उस दिन राम राज को आखिर चुनौती मिल ही गयी। राजा राम के अतिरिक्त अन्य सभी परिवार जनों और सेना के साथ लवकुश का संघर्ष होता है।सभी पराजित होकर लौट आते हैं। हनुमान को चिरंजीव रहने का वरदान मिला हुआ है, 'अजर अमर गुननिधि सुत होउ ।करउ बहुत रघुनायक छोउ।।' वे लवकुश के द्वारा पकड़ कर राम के समक्ष लाये जाते हैं।साथ में सीता माता और महर्षि वाल्मीकिजी भी हैं। अपने दोनों पुत्रों लवकुश को राम को सौंपकर सीता पृथ्वी में समा जाती है। अंततः राम भी अपने पुत्रों को अयोध्या का राज्य सौंपकर सरयू में समा जाते हैं। इस प्रकार परम ब्रह्म की त्रेता की इस लीला का संवरण हो जाता है।
        राम पूरे जीवन में कभी भी व्यथित नहीं हुए, हाँ, हमें व्यथित प्रतीत अवश्य होते हैं। यही स्थिति शेष अवतारों(भरत,शत्रुघ्न लखन) की भी थी परंतु वे शीघ्र ही परमात्मा की लीला को समझ गए। हम सीता के राम से अलग होने का अनुभव कर व्यथित अवश्य हो जाते हैं क्योंकि इस कथा को हम स्वयं के साथ वास्तविक रूप से अनुभव करते हुए अपनी पति/पत्नी से वियोग हो जाने की कल्पना को उसके सर्वोच्च स्तर तक ले जाते हैं। सांसारिक दृष्टि से बने पति-पत्नी, इन दोनों का वियोग तो एक दिन होना ही है, यह निश्चित है।
        "हम मनुष्य हैं परमात्मा नहीं", जीवन भर यही समझते रहते है। जब कि वास्तविकता यह है कि हम स्वयं उस अंशी के ही अंश हैं। अंश कभी भी अपने अंशी से भिन्न होता ही नहीं है परंतु हम इस बात को भूला देते हैं।राम और सीता को मात्र मनुष्य समझते हुए उनके वियोग से उत्पन्न हो सकने वाले विरह को अपना विरह बना लेना इसी भूल के कारण संभव हो जाता है।
      हम मनुष्य हैं फिर भी मनुष्य राम की तरह व्यवहार नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य राम ने जीवन भर अपने परमात्मिक स्वरूप को अपनी स्मृति में बनाये रखा था जबकि हम अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं।इसीलिए संतजन हमें गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही साधन करने की सलाह देते हैं।वे जानते हैं कि हम पत्नी/पति वियोग को क्षण भर के लिए भी सहन नहीं कर पाएंगे। प्राचीनकाल में राजा लोग अपना राज पाट अपने पुत्र को सौंपकर परमात्मा की साधना हेतु वन में चले जाते थे और साथ में अपनी भार्या को भी ले जाते थे। अगर साथ में नहीं ले जाते तो वे कभी भी साधना में मन नहीं लगा पाते क्योंकि उनका मन अपने पति/पत्नी के स्वास्थ्य सुख आदि का ही चिंतन करता रहता, परमात्मा में नहीं लगता।हम राम नहीं है और न ही बड़े ज्ञानी, जो समझ लें कि संसार एक रंगमंच है और हम अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं।इसलिए साधना के लिए अपने जीवन साथी को साथ रखना उचित ही है, अनुचित नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
पुनश्च: अभी तक प्राप्त हुए सभी प्रश्नों का मैंने अपने स्तर पर यथोचित समाधान करने का प्रयास किया है। कल से रामकथा पर चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
।।हरि:शरणम्।।

Monday, March 11, 2019

रामकथा-कुछअनछुए प्रसंग-15

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-15
        धोबी की बात राजा राम के कानों में पड़ गयी। उन्होंने अपने सुख पर प्रजा के सुख को महत्व दिया। उनका उदाहरण देते हुए धोबी मानसिक रूप से दुःखी क्यों हो?अपनी प्रजा के लिए राजा राम द्वारा तत्काल ही सीता का त्याग कर दिया गया।आदेश दिया लखन को, छोड़ आओ अपनी भाभी को वाल्मीकिजी के आश्रम में। लखन ले जा रहे हैं, सीता मां को, अश्रुधारा बह रही है नयनों से।आज प्रजा क्यों नहीं गयी, सीता के पीछे पीछे, वाल्मीकिजी के आश्रम तक?क्योंकि आज प्रजा राम राज्य के कारण सुखी थी और सुख में भगवान तक भूला दिए जाते हैं।राम भगवान थे, यह अनुभव अयोध्या की प्रजा को उनके सरयू में समा जाने के बाद ही हुआ। जिसको उनके रहते उनके ब्रह्म होने का अनुभव हुआ वे तो तत्काल ही भगवान की शरण में पहुंच गए। उन्होंने तो अपने सुख की कामना तुरंत ही छोड़ दी। इसलिए यह कहना कि रामराज्य सर्वोच्च सुखी और संतुष्ट राज्य था, केवल एक कल्पना मात्र है क्योंकि सुख की कोई सर्वोच्च अवस्था नहीं होती है।व्यक्ति के जीवन में सुख का तो सदैव अभाव ही बना रहता है।
        सीता का त्याग केवल एक परिवार और उससे संबंधित लोगों की समस्या बनकर रह गयी थी, अयोध्या की प्रजा को इससे कोई मतलब नहीं था। वाल्मीकिजी संत थे, उनके आश्रम में सीता के स्थान पर अगर कोई अन्य स्त्री भी आई होती तो वे उसकी भी इसी प्रकार सहायता करते। इसी आश्रम में लव कुश का जन्म होता है, सीता उनकी माँ है।बच्चों का पालन पोषण करना एक मां का मुख्य दायित्व है। प्रारम्भिक शिक्षा हमें मां ही देती है।सीता ने भी उनको इसी प्रकार शिक्षित किया कि वे बड़े होकर अपने पिता से मिलकर असहज न हो उठे।
          राजवंश, रघुवंश के उत्तराधिकारी की शिक्षा भी उसी प्रकार होनी चाहिए जिसके वे अधिकारी हैं। महर्षि वाल्मीकि ने उनको शास्त्र विद्या के साथ साथ शस्त्र विद्या में भी निपुण किया। लव कुश के द्वारा अपने पिता के बारे में प्रश्न किये जाने पर दोनों ही मौन साध लेते थे क्योंकि सीता प्रकृति है, जानती है आगे क्या होना है।रही बात वाल्मीकिजी की, वे तो त्रिकालज्ञ हैं, यह सर्व विदित है।भला, उनसे कभी भूत भविष्य छुपा रह सकता है क्या? फिर वर्तमान के छुपे रहने की बात ही कहाँ रह जाती है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

रामकथा-कुछअनछुए प्रसंग-14

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-14-
     हमने अभी तक सीता के परित्याग से अवतारों के ऊपर पड़े प्रभाव की चर्चा की है।राम, लक्ष्मण, हनुमान सभी अवतार हैं, यहां तक कि भरत और रिपुदमन भी।मुख्य अवतार हैं,भगवान श्री राम।इसलिए राम, राम कथा की पूरी अवधि में जरा सा भी विचलित नहीं होते हैं। शेष सभी अवतार भी थोड़ी देर के लिए ही विचलित होते हैं परंतु फिर अपने आपको झट सम्हाल भी लेते हैं। रामकथा में वर्णित इस प्रसंग को सुनकर हम सोचते हैं कि सीता के परित्याग से प्रजा का क्या हाल हुआ होगा? लवकुश को सीताजी ने कैसे समझाया होगा?वाल्मीकिजी ने लव कुश को उनके पिता के बारे में क्या बताया होगा?
      हमारे ये सभी प्रश्न काल्पनिक हैं।संसार जैसा है, सदैव वैसा ही चलता है, रामराज्य आ भी जाये तो भी उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो पाता है। कारण, संसार चलता है केवल आसक्ति और उससे उत्पन्न कामना पर।सुख की आसक्ति से उत्पन्न सुख की कामना जो कभी पूरी हो नहीं हो पाती है। बिना कामना पूरी हुए आसक्ति मिट नहीं सकती और कामना पूरी किसी की भी हो नहीं सकती। यही कारण है कि भले ही राम राज्य स्थापित हो जाये, संतुष्टि किसी को भी मिल नहीं सकती।हम जिस रामराज्य की कल्पना करते हैं, उस राज्य में सभी अपने जीवन में संतुष्ट रहने चाहिए।क्या रामराज्य में  अयोध्यावासी पूर्ण रूप से संतुष्ट थे? नहीं थे, अगर होते तो सीता को त्याग देने की परिस्थिति कभी भी नहीं बनती।
         प्रत्येक राज्य की प्रजा सुख चाहती है और सुख परमात्मा को भुला देता है।राम के राज्य में सारी प्रजा सुखी थी। सुखी होना और संतुष्ट होने, दोनों अलग अलग हैं।सुख मिलने से भी व्यक्ति असंतुष्ट हो सकता है और दुःख झेलते हुए भी व्यक्ति संतुष्ट रह सकता है।रामराज्य आने से पूर्व भी अयोध्या में दशरथ का राज था परंतु जब राम को वनवास दिया गया तब प्रजा राम के पीछे चल पड़ी थी।इसका कारण राम का भगवान होना बिल्कुल भी नहीं था बल्कि राम के राज सम्हालने पर और अधिक सुख मिलने की आशा थी, जिसके टूटने की संभावना से प्रजा व्यथित होकर उनके पीछे चल दी। 14 वर्ष बाद आया रामराज प्रजा को उम्मीद से अधिक सुख देने वाला सिद्ध हुआ।"दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज यह काहु न व्यापा।।"आम प्रजा को जितना अधिक सुख मिलता है,उसके बाद और अधिक सुख पाने की कामना करने लगती है। इस कारण से लोगों की मानसिक दशा रामराज्य में भी दिन प्रतिदिन बदलने लगती है और राजा के प्रति आलोचना के स्वर तक उठने लगते हैं, उसके प्रत्येक कार्य में प्रजा को कमियां नज़र आने लगती है।परमात्मा भी संसार की इस मानसिक स्थिति का सामना करने से अछूते नहीं रह सकते। ठीक ऐसा ही तो राजा राम के साथ हुआ।धोबी को अपनी पत्नी का घर से बाहर चले जाना रास नहीं आया। इसके लिए अपनी पत्नी को प्रताड़ना देते हुए उसने उदाहरण भी राजा राम और रानी सीता का दिया। ठीक ऐसा ही आज इस युग में भी हो रहा है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।हरि:शरणम्।।

Saturday, March 9, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-13

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-13
       गोस्वामीजी ने रामकथा क्या लिखी है, हमें आत्म कल्याण का सीधा और सरल मार्ग दिखला दिया है। जो इस रामकथा ग्रंथ अर्थात श्रीरामचरितमानस को पढ़कर केवल कहानी के रूप में इसको ग्रहण करता है, वह केवल दही को मथने पर घी निकालने के उपरांत शेष बची हुई छाछ का ही सेवन कर रहा है। केवल इसका ग्रंथ का सार समझने वाला ही घृत का पान करता है और अपना विवेक जाग्रत कर लेता है। हमने तुलसी बाबा रचित इस ग्रंथ में विभोर,विह्वल और विकल तीनों अवस्थाओं का चित्रण देखा। इन तीनों ही स्थितियों का त्याग करना आवश्यक है, आत्मकल्याण के लिए।शंकर भगवान तो आत्मविभोर हो गए ज्योंहि प्रभु राम ने हनुमान के सिर पर हाथ रखा। परंतु वे तो आदिदेव हैं, तुरंत ही विभोर की अवस्था को त्यागते हुए इस अवस्था से बाहर आने का मार्ग भी बता गए।
      "सावधान मन करि पुनि संकर।
        लागे कहन कथा अति सुंदर।।"
 जिसने अपने मन को सावधान कर साध लिया, वह प्रत्येक स्थिति से तत्काल ही बाहर निकल सकता है। रुद्रावतार के सिर पर हाथ, रूद्र का आत्मविभोर हो जाना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु सदैव के लिए इस स्थिति में बने रहना अनुचित है।मन से सावधान रहते हैं तभी तो सती को त्याग देने के उपरांत भी वे एक क्षण के लिए भी विकल नहीं हुए। मन के अनुसार चलते तो विकल हुए होते और विकलता ही समाधिस्थ होने में सबसे बडी बाधा है। शंकर भगवान ने तो इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद भी बिना विकल हुए अपना स्वरूप सम्हाले रखा।
संकर सहज सरूप सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा ।।1/58/8।।
        रामकथा का गहराई से अध्ययन करें तो अनुभव होगा कि इस कथा का प्रत्येक पात्र जो प्रभु से संबंधित है,सभी ने अपने मन की इन तीनों परिस्थितियों को बार बार अनुभव किया है ।प्रत्येक बार किसी स्थिति के आने पर वे अपने मन पर नियंत्रण स्थापित कर इन परिस्थितियों से बाहर आये हैं।फिर हम क्यों बार बार इन परिस्थितियों में उलझते रहते हैं? क्योंकि हम शंकर भगवान की तरह अपने मन को सावधान कर पाने में विफल रहते हैं।जिस दिन मन को साध लेंगे, रामकथा केवल लीला बनकर रह जायेगी और इसका मंथन कर हम भी घृत पान कर सकेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, March 8, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-12

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-12-
     रामकथा युगों युगों से गाई जा रही है, पढ़ी जा रही है,सुनी जा रही है और सुनाई जा रही है।इसके कारण हमारे में से चाहे कोई भी क्यों न हो, विभोर,विह्वल अथवा विकल हो सकता है। अब आप देख ही लीजिए, रामकथा बाल्मिकी जी ने सबसे पहले लिखी, सुनी लव कुश ने और जाकर सुनाई अपने पिता राम को। फिर इस कथा को सुनने और सुनाने वालों की एक लम्बी विवरणिका है। गोस्वामीजी ने अपने आराध्य के लिए अपनी भाषा में रामकथा लिखी, जिसमें शंकर भगवान ने यह कथा अपनी पत्नी देवी पार्वती को सुनाई है।बहुत ही आत्म विभोर कर देने वाली कथा है। यहां तक कि शंकर भगवान भी कथा सुनाते सुनाते अनेकों बार विभोर हो जाते हैं।
      गोस्वामीजी ने सुंदरकांड में विकल,विह्वल और विभोर होने का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।वे लिखते हैं-सीता का पता लगाकर हनुमान आ गए हैं। राम के दोनों नयन जल से भर आये हैं।वे हनुमानजी को पूछ रहे है कि सीता ने कुछ कहा है क्या ?'
'नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।'
हनुमान सीता की विरह स्थिति की बात भगवान श्रीराम को बताते हैं,बड़े ही विकल होकर । विकलता इतनी अधिक है कि वे कह उठते हैं,'जल्दी चलिए प्रभु, उस दुष्ट रावण को जीत कर सीता को ले आते हैं।'
'बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।' यह बात हनुमानजी की विकलता को प्रदर्शित करती है,"प्रभु जल्दी कीजिये।" हम भी विकल होकर कई बार प्रत्येक कार्य में शीघ्रता दिखाते हैं।हनुमानजी के विकल होने के बाद आते है, उनके विह्वल होने की बात पर। गोस्वामीजी आगे लिखते हैं-
 'बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।'
प्रभु चरणों में गिरे हनुमान को राम उठाने का बार बार प्रयास करते हैं,परंतु हनुमान इतने अधिक विह्वल हैं कि उठना ही नहीं चाहते। प्रभु प्रेम में डूब गए हैं हनुमानजी महाराज। राम उठाना चाहते है परंतु वे इतने अधिक विह्वल हो गए हैं कि प्रभु के चरणों को छोड़ना ही नहीं चाहते।   
          अब आत्म विभोर की स्थिति पर थोड़ी दृष्टि भी डाल लेते हैं, देखिए अगली ही चौपाई । पार्वती को कथा सुनाते हुए शंकर भी हो गए हैं,आत्म विभोर।
 'प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।'
भला, रुद्रावतार हनुमान के सिर पर प्रभु का हाथ हो और रूद्र आत्मविभोर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शंकर भगवान कथा सुनाते हुए इस प्रकार अनुभव कर रहे हैं मानो उस समय स्वयं प्रभु राम ही उनके शीश पर हाथ फिरा रहे हों। ध्यान दीजिए, यहां न तो शंकर स्वयं को भूले हैं और न ही भगवान राम को, केवल मगन हुए हैं।
       क्या विभोर होना सही है? सत्य तो यह है कि आत्म कल्याण के लिए तीनों ही स्थितियों से हमारा बाहर आना आवश्यक है क्योंकि इन स्थितियों को बनाने में मुख्य रूप से मन की भूमिका रहती है।मन है तो संसार है, मन मिट गया तो परमात्मा है। अतः हमें मन को अमन करना है।इस विभोर, विह्वल और विकलता की स्थिति से बाहर कैसे निकला जाए?इस बात को जान लेंगे और समझ जाएंगे तो हमारा कल्याण निश्चित है ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, March 7, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-11

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-11
     रामकथा के एक प्रेमी में और हनुमान में, दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है। वह भी ऐसे विरह प्रसंग को सुनकर ही भाव विह्वल हो जाता है। हनुमान को तो सत्य का अनुभव हो गया।आज फिर एक बार उसने प्रभु को विस्मृत कर दिया था।'प्रभु पहिचान परेउ गहि चरना।सो सुख उमा जाहि नहीं बरना।।' भक्त भगवान के चरणों में गिर पड़ा । भक्त और भगवान में यही अंतर है। भगवान मनुष्य रूप में आकर भी स्वयं को नहीं भूलते हैं और भक्त बार बार स्वयं को भूल जाता है। हमारी दशा तो हनुमान से भी खराब है।हम भी लीला की कथा सुनकर राम को मनुष्य समझने लगते हैं ।राम और सीता, दोनों ही न तो कभी व्यथित हुए थे और न ही कभी हो सकते।वे तो व्यथित होने का नाटक कर रहे थे। लखन और हनुमान दोनों सीता के दुःख को अनुभव कर दुःखी हुए थे परंतु जाकर सीता को पूछो जरा। क्या वह किञ्चित मात्र भी दुःखी हुई थी?'केहि अपराध नाथ हौं त्यागी' सीता की छाया ही कह सकती है क्योंकि वास्तविक सीता तो उस समय अग्नि में समाहित थी। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उस समय अशोक वाटिका में छाया सीता के स्थान पर वास्तविक सीता भी होती तो वह हनुमान को कभी ऐसा कहती ही नहीं।
         हम कथा को सुनकर सीता के साथ हुए व्यवहार से दुखी हो सकते हैं क्योंकि हम उनको हमारी ही तरह के मानव समझते हैं।जब संसार में दुःख सुख नाम की कोई चीज है ही नहीं, तो फिर हम सुखी दुःखी क्यों हों? हमारा मन ही हमें सुखी दुःखी करता है अर्थात सुख और दुःख केवल मन की अवस्था है, आत्मा की नहीं। जब हम आत्मिक स्तर पर कथा के घटनाक्रम को देखेंगे तो अनुभव करेंगे कि जो कुछ पूर्व नियोजित था, वही तो हो रहा था। जब नाटक में कलाकार दरिद्र होने की भूमिका निभाता है, तब वह केवल मंच पर ही दरिद्र बना रहता है, मंच से उतर जाने के बाद नहीं।दर्शक उसकी भूमिका की सराहना करते हैं क्योंकि वे उस कलाकार के वास्तविक स्वरूप से परिचित होते हैं।हमें भी परमात्मा के मानव रूप के अभिनय को मात्र अभिनय ही समझना चाहिए और सदैव उस अभिनय के पीछे का उद्देश्य जानना चाहिए। हमें रामकथा को सुनकर विभोर (delighted) होना सकते हैं।हाँ, कभी कभी विह्वल(over whelmed) भी हुआ जा सकता है परंतु विकल(discomfort) तो कभी भी नहीं होना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, March 6, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-10

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-10
          लक्ष्मण तो राम के छोटे भाई होने के साथ साथ उनकी शैया (शेषनाग)भी थे। क्षीरसागर में ही तो हरि शेषनाग पर शयन करते हैं । लक्ष्मण तो थोड़े से समझाने से शीघ्र ही समझ गए परंतु हनुमान,वे तो मनुष्य न होकर एक वानर थे।इतनी जल्दी कैसे समझ सकते थे।दिन रात सीता के वन में वाल्मीकि आश्रम में दुःखी रहने की कल्पना कर कर रोते रहते।राम सोचते, "कैसा बावला भक्त है? भगवान पास है और भगवान की माया को खोकर रो रहा है। मायापति के पास होते हुए भी माया के ओझल हो जाने पर रो रहा है।मायापति तो सदा के लिए है, माया का तो आना जाना लगा ही रहता है। आते जाते रहने वाली माया के आगमन पर क्या तो खुश होना और उसके चले जाने पर क्या विलाप करना?" भगवान से भक्त का रोना अधिक देर तक नहीं देखा जा सकता। पहुंच गए भक्त के पास। हनुमान रोते हुए चरणों में गिर पड़े ।"भगवान, यह क्या कर दिया?एक धोबी के कहने मात्र से माता को वन में भेज दिया। मैं अपनी माता का वियोग सहन नहीं कर सकता।मेरे जीवन में ऐसा होना वज्रपात होने से किसी भी प्रकार से कम नहीं है।मैं अपनी माता को तपस्वी वेश में एक बार फिर से नहीं देख सकता।एक पति अपनी पत्नी के प्रति जिसका कि कोई दोष न हो,ऐसे निष्ठुर कैसे हो सकता है?"
      भगवान ने अपने प्रिय भक्त को उठाकर गले से लगाया और फिर उसका सिर अपनी गोद में रख सहलाने लगे। जब हनुमान कुछ शांत हुए तो बोले- "हनुमान! तुम्हें याद है न, मैंने तुम्हें एक बार पूछा था कि तुम कौन हो और मैं कौन हूँ?"
'हाँ याद आया, पूछा था। परंतु आज उस बात को याद दिलाने से क्या लाभ प्रभु?'
"तुम भूल गए थे, इसलिए आज पुनः याद दिलाना मैंने आवश्यक समझा है।तुमने कहा था न कि स्थूल दृष्टि से आप मनुष्य हैं मैं एक वानर हूँ, आप प्रभु हैं मैं आपका सेवक हूँ।सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो मैं आपका अंश हूँ और आप अंशी। अगर कारण दृष्टि से देखें तो जो आप हैं वही मैं हूँ, आपमें और मेरे में कोई अंतर नहीं है।"
हनुमान बोले, 'हाँ, याद आया, यही कहा था प्रभु।क्या उस समय मेरा यह कहना उचित नहीं था जो आज याद दिला रहे हो?'
"नहीं, तुमने उस समय तो सब कुछ उचित ही कहा था परंतु उस कहे को अपने जीवन में न अपनाकर तुम आज बहुत अनुचित कर रहे हो। जो मैं हूँ वही तुम हो तो फिर सीता के वन में जाने पर तुम व्यथित क्यों हो रहे हो? मैं तो जरा भी व्यथित नहीं हो रहा हूँ। बाहर से तुम्हें मैं व्यथित प्रतीत हो सकता हूँ परंतु भीतर से नहीं हूँ। तुम बाहर और भीतर दोनों ही ओर से व्यथित हो रहे हो। बात को समझो, वास्तव में न तो कोई वन में गया है और न ही किसी ने किसी को वन में भेजा है। यह तो केवल लीला संवरण करने के लिए मेरे ही द्वारा की जा रही एक लीला है।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, March 5, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-9

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-9
           लखन और हनुमान भी भगवान राम की लीला देखकर कुछ समय के लिए भ्रमित हो जाते हैं।भक्त हैं दोनों भगवान के परंतु साथ ही साथ मनुष्य और वानर भी तो है।भला एक व्यक्ति अपनी भाभी को भाई के कहने पर वन में छोड़ आने के आदेश पर प्रश्न कैसे नहीं करेगा?एक भक्त अपनी माता को वन में जाते हुए देखकर अपने भगवान की ओर व्यथित होकर क्यों नहीं देखेगा?यही तो आज लक्ष्मण और हनुमान के साथ हुआ है। "नहीं, मैं नहीं कर सकता ऐसा?" लखन ने कहा।राम ने लखन को समझाया।" त्रेता में मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ, अतः मेरी आज्ञा का पालन करो। द्वापर में तुम बन जाना,मेरे बड़े भाई। तब मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा । द्वापर दरवाजे पर खड़ा है, चलो जल्दी करो मेरे भाई। तुरंत सीता को वाल्मीकि आश्रम छोड़ आओ।" त्रेता-द्वापर, बड़ा-छोटा, क्या कह रहे हैं भाई, किस युग की और किस लोक की बात कर रहे हैं ?अचानक एक बिजली सी कौंधी और जैसे लखन की स्मृति लौट आई हो। इसी के साथ लक्ष्मण एक झटके से आ जाते हैं, आसमान से जमीन पर।"हे भगवान! मैं भी शेष का अवतार होते हुए भी मनुष्य की तरह व्यवहार क्यों करने लग गया था? एक ये महापुरुष हैं जो मनुष्य राम होकर भी अपने मूल स्वरूप को नहीं भूले हैं।मेरे इस भ्रम का निवारण भी इन्होंने मेरी धृष्टता क्षमा करते हुए द्वापर में मुझे अपना बड़ा भाई बनाकर किया है।क्षमा कर दें प्रभु! मैं ही भ्रम में था,आप नहीं।इस जन्म में तो क्या, मैं तो सदैव ही आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, द्वापर में दाऊ होकर भी।" समझ गए लखन, राम जो भी कर रहे हैं सीता को वनवास देकर, सब कुछ लीला है इनकी, नाटक है इनका, सत्य से कोसों दूर।सीता को राम से आज तक कोई अलग कर पाया है भला। प्रकृति पुरुष से दूर हो ही नहीं सकती। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर टिका हुआ है।पुरुष के बिना प्रकृति कुछ भी नहीं है और प्रकृति के अभाव में पुरुष भी व्यक्त नहीं हो सकता। वाह!क्या लीला है प्रभु आपकी?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, March 4, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-8

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-8
    कहने का अर्थ है कि हमारे सभी कर्म भले ही उनको हम किसी भी कारण से कर रहे हों,अंततः उनका फल हमें ही भुगतना है,चाहे वह फल सुख दे अथवा दुःख।परमात्मा ऐसी व्यवस्था कर देते हैं कि जहाँ, जिससे, जिसको और जैसा फल भुगतना अथवा भुगताना होता है, येन केन प्रकारेण वह, वहाँ पहुंच ही जाता है।हमारे हाथ में फल भुगतना अथवा भुगताना है ही नहीं, वह तो प्रकृति और परमात्मा के हाथ है।हमारे हाथ में दुःखी अथवा सुखी होने के अलावा एक और बात है, वह है फल के रूप में मिलने वाले सुख-दुःख को सहन करते हुए उसके प्रभाव को देखना।इससे हम सुख में ज्यादा उछलने नहीं लगेंगे और दुख में अधिक व्यथित भी नहीं होंगे।राम और सीता ने केवल दुःख के प्रभाव को देखा, इसी कारण से वे अपने जीवन में सहज रह सके। कल राज तिलक होना है,तो भी ज्यादा खुश नहीं।राज के बदले प्रातः काल वनवास मिल गया तो दुःखी भी नहीं हुए।
        राम कथा में घटना आती है गर्भवती सीता के वनवास की। अपने शेष बचे मानव जीवन को एक परित्यक्ता का जीवन जीने के लिए विवश हुई सीता की कथा। राम रावण का वध कर लौटते हैं अयोध्या।राज्याभिषेक हो जाता है।एक धोबी के कथन पर सीता का परित्याग कर दिया जाता है। उसे केवल त्यागा ही नहीं गया बल्कि त्याग कर वनवास भी दे दिया गया, वन में वाल्मीकि आश्रम में भेज दिया गया।क्यों? क्या राम के लिए आज धोबी अधिक विश्वसनीय हो गया था,लखन और हनुमान की तुलना में? क्या राम नहीं जानते थे कि रावण ने माया की सीता का अपहरण किया था, वास्तविक सीता का नहीं?वे परम ब्रह्म हैं, सब कुछ जानते हुए भी कुछ भी न जानने की लीला कर रहे हैं।सीता को वन में जाना ही होगा क्योंकि परम ब्रह्म राम को अपनी लीला जो समेटनी है। यह राम कथा के उत्तरार्ध का अंतिम भाग है।राम हमारी तरह केवल मनुष्य मात्र ही होते तो राज्य का सुख भोगते, पत्नी को अपने से कभी भी अलग नहीं होने देते,अपने दोनों पुत्रों को गोद में खिलाते।परंतु नहीं,वे परम ब्रह्म राम है, उनके अवतरण का उद्देश्य पूरा हो गया है,उन्हें वैकुंठ लौटना ही होगा। मनुष्य रूप में है,अतः कर्मों की आड़ में कर्मफल भोगते हुए और आगे भोगने के लिए एक बार वैकुंठ लौट रहे हैं।सीता ने पृथ्वी से जन्म लिया है, उन्हें तो पृथ्वी में ही समाना होगा। अपने दोनों पुत्रों को राम को सौंप कर, सांसारिक कर्तव्य को पूरा करने की मिशाल बनकर पृथ्वी में समा जाती है, सीता।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, March 3, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-7

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-7
         सीता बाल्यावस्था में एक वाटिका में पेड़ के नीचे बैठी खेल रही थी।पेड़ पर बैठा था,एक तोते का जोड़ा।बैठे हुए दोनों पति पत्नी आपस में बात कर रहे हैं।मादा तोता गर्भ से है।नर तोता अपनी पत्नी को राम कथा सुना रहा है। 'भगवान का राम के रूप में अवतार हो गया है और उनका विवाह जनकनंदिनी सीता से शीघ्र ही होने वाला है।' एक तोते के मुख से अचानक अपना नाम सुनकर सीता चौंक गई।उसने सोचा-अवश्य ही यह तोता मेरे बारे में बहुत कुछ जानता है। उसने उस तोते के जोड़े को पकड़ लिया और महल में लाकर एक पिंजरे में रख दिया।वह तोते से बोली-"मैं ही सीता हूँ। आज से प्रतिदिन तुम मुझे राम की कथा सुनाओगे। मेरे जीवन में आगे भविष्य में क्या क्या होने वाला है? मैं सब कुछ जानना चाहती हूँ'।' तोते ने अपनी पत्नी के गर्भवती होने की दुहाई देते हुए दोनों को पिंजरे से मुक्त कर देने की प्रार्थना की।सीता ने मादा तोते को पिंजरे में ही कैद रखते हुए नर तोते को इस शर्त पर मुक्त कर दिया कि वह प्रतिदिन आकर राम कथा सुनाएगा। इस प्रकार तोता प्रतिदिन महल में आकर सीता को राम कथा सुनाने लगा। गर्भवती मादा तोता पति वियोग को अधिक दिनों तक सहन नहीं कर पाई औऱ उसने अपना शरीर छोड़ते हुए सीता को श्राप दिया कि तुम भी अपने जीवन में गर्भकाल की अवधि में पति के वियोग से दुःखी होगी।   
        अगले दिन सुबह जब नर तोता सीता के महल में पहुंचा तो मृत पत्नी को देखकर उसने भी अपना शरीर छोड़ दिया। अब कल से सीता को आगे की रामकथा कौन सुनाएगा? पति पत्नी के इस प्रकार देह त्याग देने की घटना से सीता बड़ी दु:खी हुई । उसे उस श्राप से डर लग रहा था जिसके परिणाम स्वरूप उसे गर्भावस्था में पति वियोग सहना पड़ेगा।परंतु अब चिंतित होने से भी कुछ नहीं हो सकता था।कर्म रूपी तीर कमान से छूट चुका था और भविष्य में उस तीर से घायल सीता ही होगी कोई दूसरा नहीं। मैना का दिया हुआ वह श्राप ही वह कारण है जिसके परिणाम स्वरूप सीता अपने समस्त मानव जीवन में कभी भी सुखी नहीं रह सकी।11वर्ष तक वन में अपने पति के साथ भटकते हुए वह कभी भी महलों का सुख नहीं भोग सकी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, March 2, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-6

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-6
      बाली के जाने के बाद आई तारा, बाली की पत्नी।पति के शव पर विलाप करते हुए मानव राम को खूब खरी खोटी सुनाई, आखिर स्वर्ग की एक अप्सरा जो ठहरी । "हे पत्नी वियोग में व्याकुल होने वाले राम! क्यों मारा मेरे पति को? आप तो इस वियोग से स्वयं पीड़ित हो।सब कुछ जानते समझते हुए भी मेरे पति को दूर कर दिया न मुझसे।अपनी पत्नी को पाने के लिए तुम्हें सुग्रीव का सहारा क्या केवल बाली की जान की कीमत पर ही मिल सकता था? यह किया क्या तुमने ? सीता को के वियोग से मुक्ति पाने के लिए तारा को पति वियोग दे दिया।यह सब कर क्या तुम अपने शेष जीवन में सुखी रह सकते हो।सीता को तुम भी अधिक दिन अपने पास में नहीं रख सकोगे, यह मेरा श्राप है।" राम निश्चल होकर सुन रहे हैं,तारा का विलाप करना जारी है। थोड़ा शांत होने पर राम तारा को समझाते हैं-"छिति जल पावक गगन समीरा।" तारा तत्काल समझ जाती है, कौन हैं यह? 'हे भगवान!क्या बोल दिया मैंने?'
राम कहते हैं, 'आप नही बोली, मैंने आपसे बुलवाया है।आप व्यर्थ में ही परेशान न हो।' तारा का श्राप फिर एक बार राम को आश्वस्त कर देता है, अपनी माया को समेट लेने के प्रति।
     परंतु राम के इस कृत्य, तारा को दिए वैधव्य का फल सीता क्यों भुगते? यही प्रश्न इस रामकथा में सबसे महत्त्वपूर्ण है।परमात्मा का यह कर्म रहस्य बड़ा ही जटिल है।हम सब आपस में एक दूसरे से संबंधित है और अपने कर्मों के फल भुगतने और एक दूसरे को भुगताने के लिए एक साथ इकट्ठा हुए हैं।राम ने तो छुपकर बाली को मार डाला और बाली द्वापर में इस कर्म का फल उन्हें भुगता भी देगा। तारा पति विरह में राम को श्राप दे चुकी है कि सीता का वियोग भी उनको एक बार और सहन करना पड़ेगा। परंतु राम के कर्म के कारण सीता क्यों पति वियोग सहन करे? यहीं आकर कर्म का रहस्य समझ से परे हो जाता है।अतःअब जानने का प्रयास करेंगे सीता के उस कर्म के बारे में,जिसके कारण गर्भवती महारानी सीता वनवास भोगने को मजबूर कर दी गई।   
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, March 1, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-5

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-5
          सब लीला हो रही है, धरती का भार उतारने और वापस लौट जाने के लिए।अब आ पहुंचे है,शबरी के पास।शबरी ने पता दिया सुग्रीव का।उधर सुग्रीव भी पत्नी विरह में, इधर राम भी, मिल गयी दोनों की जोड़ी। सुग्रीव वानर है और राम मनुष्य।साथ ही राम ब्रह्म भी है,अतः पहले काम सुग्रीव का।बाली वध हुआ, पेड़ की आड़ से तीर चलाकर। क्यों भई?राम ब्रह्म है, सामने आकर अथवा केवल अंगुली के इशारे से भी तो बाली को मार सकते थे। परन्तु नहीं, वे ब्रह्म होते हुए भी मनुष्य योनि में हैं।मनुष्य बने हैं तो उसी अनुसार ही तो कर्म करने होंगे, ब्रह्म है तो क्या हुआ?कर्म तो करने ही पड़ेंगे जैसा कि गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है। राम सोचते हैं,यहां भी लीला करो। मार दिया बाली को। बाली कहता है-'क्यों मारा छिपकर मुझे?मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था?' राम ने कारण बताया सब कुछ समझाया। कहानी होती तो नहीं बतलाती कि राम ने बाली को क्यों मारा ? वह तो केवल यही कहती है,"बाली निर्दलनं" राम ने बाली को मारा। यही तो कथा की विशेषता है कि वह स्पष्ट करती है कि बाली क्यों मारा गया ? भगवान दयालु है, अपनी ओर से बाली को एक अवसर मरने से बचने का भी देते हैं।भगवान कहते हैं-'अचल करो तनु राखेउ प्राना।' बाली समझ जाता है कि जो मुझे मारने के उद्देश्य से तीर मारकर भी प्राण बचाने का कह सकता है, वह ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई हो ही नहीं सकता।अब क्यों जीऊं और किसके लिए जीऊं?जो मानव जीवन का उद्देश्य  है, परमात्मा को पाना, वे तो मेरे समक्ष खड़े हैं।भला, इससे अच्छा अवसर मुझे भविष्य में कहाँ मिलेगा? नहीं भगवन नहीं, मुझे अपनी शरण में ले लो। मुझे आपके दर्शन हो गए हैं, मैं आपको पहचान चुका हूं, अब इस तन को रखकर मुझे क्या करना है ?"जनम जनम मुनि जतन कराहीं।अन्त राम कहीं आवत नाहीं।।" आप तो मेरे सामने हैं, मुझे एक न एक दिन तो जाना ही है, फिर आज और अभी क्यों नहीं?आप अपने अवतरण का उद्देश्य पूरा कर फिर आ जाना। आज आपने मुझे मारने का जो कर्म किया है, उसका फल भी तो आपको आगे भुगतना है। त्रेता में आप मुझे मार रहे हो आगे द्वापर में मैं आपका वध करूंगा। यह आपका ही तो बनाया हुआ विधान है कि आज जिसको जो मारेगा उसको उसी के हाथों भविष्य में मरना पड़ेगा।"मां स भक्षयते यस्मान भक्षयिष्य तस्मान तमप्य्ह्म"।।महाभारत।। इस आधार पर द्वापर में भी तो आपके  साथ लीला करने का एक बार और अवसर मिलेगा। त्रेता में आपने मेरी लीला समाप्त की, द्वापर में मैं आपकी लीला समाप्त करूंगा, फिर हिसाब बराबर होगा। द्वापर में कृष्ण की मनुष्य लीला समाप्त करने का अवसर एक भील को मिला था,सोते हुए श्री कृष्ण पर तीर चलाकर। द्वापर का वह भील त्रेता का बाली ही था।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।