Tuesday, October 31, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-15(समापन)-

भज गोविन्दम् –श्लोक सं.15(समापन)-
           यह कहना और मानना एक अर्द्ध सत्य है कि मनुष्य को जीवन मिला ही इसलिए है कि उसकी पूर्व जन्म में अधूरी रही कामनाएं पूरी हो सके | पूर्ण सत्य यह है कि जब पूर्वजन्म की अधूरी कामनाओं से यह जीवन अवश्य मिला है, परन्तु साथ ही इस बात का ध्यान भी रखें कि इस संसार में आवागमन से मुक्त होने के लिए भी यह मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है | अतः अधूरी रही उन कामनाओं के पूर्ण होने के बाद नई कामनाओं को जन्म न लेने दें, जिससे हमें पुनर्जन्म से मुक्ति मिल सके |  हम यह तो स्वीकार आराम के साथ कर लेते हैं कि पूर्व जन्म की अधूरी इच्छाएं इस जीवन में पूरे होनी हैं परन्तु यह स्वीकार कभी नहीं करते कि हमें इसी जीवन में नई इच्छाओं से भी मुक्त होना है | हम इस मनुष्य जीवन का एक पक्ष तो देख लेते हैं परन्तु दूसरे पक्ष की अनदेखी कर देते हैं | यह अनदेखी हमें सांसारिक मोह माया के बंधन में बाँध देती है और जीवन भर उस बंधन से मुक्त नहीं होने देती |
            हमें कामनाओं के विस्तार से मुक्ति पानी होगी | जो पूर्व जन्म के कर्मों के भोग हमें इस जीवन में मिले हैं, उनको ही भोगकर मुक्त हो जाना है | शरीर तो एक दिन जर्जर होना ही है, प्राण भी धीरे-धीरे निर्बल पड़ते जाने हैं | अगर नई कामनाएं मन में पैदा होकर पूर्ण होने से रह गयी तो हमारा यह शरीर तो छूट जायेगा परन्तु फिर किसी अन्य शरीर को प्राप्त करना होगा | जर्जर शरीर और उखड़ते प्राण उन्हीं कामनाओं का मन से चिंतन करते रहेंगे, जो इस जीवन में हमने पाली है | इस प्रकार हम इस सांसारिक मोह-माया से स्वयं को छुड़ाने में असमर्थ हो जायेंगे | संत कबीर इसी माया के बारे में कहते हैं कि –
माया-माया सब कहे, माया लखे न कोय |
जो मन से निकले, जानिए माया सोय ||
 मन से न निकले कारण ही इस मोह-माया के बंधन में व्यक्ति बंध कर रह जाता है और अंत समय में भी इससे अपने आपको छुड़ाने में असमर्थ पाता है | इसीलिए शंकराचार्य महाराज का यह शिष्य कहता है कि -
अड़गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातंतुण्डम् |
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुंचतिआशापिण्डम् ||15||
अर्थात क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दंत-विहीन मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश में बंधा रहता है |
        जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके शरीर में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है |

“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं. - 16 
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Monday, October 30, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-15

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-15
अड़गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातंतुण्डम् |
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुंचतिआशापिण्डम् ||15||
अर्थात क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दंत-विहीन मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश में बंधा रहता है |
 जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके शरीर में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है |
          शंकराचार्य जी महाराज के एक अन्य शिष्य कह रहे हैं कि जर्जर शरीर हो जाने के बाद भी मनुष्य का मुश्किल है इस संसार की मोह-माया से निकल पाना | जीवन भर जो कुछ भी कार्य आप करते हैं, उस कार्य के आप इतने अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं कि अंतिम समय तक आप उसको अपने मन तक से नहीं निकाल पाते | मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों के योग से बना है | सभी तत्व जड़ प्रकृति के हैं | इनके योग का एक दिन वियोग होना निश्चित है | इस कारण से शरीर का भी एक न एक दिन क्षय होना ही है | जब इन पाँचों तत्वों के योग में क्षय प्रारम्भ होता है, तब यह शरीर भी जर्जर होने लगता है | उसको चलने के लिए भी किसी न किसी सहारे की आवश्यकता अवश्य ही पड़ती है | जर्जर शरीर बिना किसी सहारे के अपना दैनिक कार्य तक नहीं कर सकता |
                मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों के योग से आकृति लेता है परन्तु उसमें प्राणों का संचार होने से ही उसमें जीवन का प्रारम्भ होता है | जीवन के प्रारम्भ से ही इन प्राणों के कारण ही मनुष्य कर्म करता है, अपनी कामनाओं को  पूरा करने का प्रयास करता है | प्राण के बिना यह शरीर मात्र एक शव बनकर रह जाता है, जिसके फिर बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता | जर्जर होती देह को अनुभव कर उसमें स्थित प्राण भी अपने आपको उस शरीर से अलग करने की तैयारी कर लेते हैं | प्राण शक्ति जब कमजोर होने लगती है, तब भी व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षाओं से अपने आप को दूर नहीं कर पाता है |

          मनुष्य के जीवन का प्रारम्भ ही अपनी पूर्वजन्म की अधूरी रही कामनाओं को पूरा करने के लिए होता है | जब इस जीवन में वे कामनाएं पूरा होने को होती है, तभी नई कामनाएं जन्म लेने लगती है | ये नयी कामनाएं जीवनपर्यंत पूरी नहीं हो पाते और मनुष्य उन्हीं कामनाओं की मोह-माया से बंधकर रह जाता है | इसी को सांसारिक मोह माया कहते हैं, जीवन के अंतिम समय तक जिससे छूटना बड़ा मुश्किल है |
क्रमशः 
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, October 29, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.14(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.14(समापन)-
            जब वास्तविक साधु-संतों का जीवन आनंदमय दिखाई देता है तो एक साधारण व्यक्ति को वह बड़ा ही आसान और सरल जीवन प्रतीत होता है | मानव जीवन में जब उसको जीविकोपार्जन में कठिनाई आती है, तब वह इस जीवन से पलायन कर अपना वेष बदल लेता है, और बाहर से एक साधु दिखाई पड़ता है | वास्तव में वह भीतर से साधु न होकर एक भगौड़ा होता है | अगर उसकी बुद्धि तीक्ष्ण हुई तो वह इस वेष को कर्मों को करते हुए धन प्राप्ति का साधन बना लेता है | धीरे-धीरे इस मार्ग पर चलते हुए वह धनार्जन के साथ-साथ धन का संचय कर अपने साम्राज्य का निर्माण करता रहता है | जब धन आता है, तो उसके साथ काम भी आएगा | अर्थ और काम दोनों का आपस में गहरा सम्बन्ध है | दोनों ही पूर्वजन्म के कर्मों से जुड़े हुए है | अतः दोनों का साथ-साथ होना और रहना संभव बन जाता है | इस प्रकार बढ़ते हुए साम्राज्य को देखकर एक साधारण व्यक्ति, जो कि अभी तक काम और अर्थ को प्राप्त कर पाने में असफल रहा है, प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता | वह यह समझता है कि यह साधु-बाबा मेरा भी कल्याण कर सकता है | उसका कल्याण से अभिप्राय काम-अर्थ की प्राप्ति होता है, परमात्मा की प्राप्ति नहीं | यही कारण है कि आज के कथित साधु-संतों के पास उन्हीं लोगों का जमावड़ा हो जाता है, जो अर्थ और काम के प्रति अपने भीतर आसक्ति पाले हुए हैं |
        एक बुद्धिमान व्यक्ति सब कुछ जानता है फिर भी वह जानकर भी अनजान बना रहता है | इसके भी दो कारण हैं | प्रथम तो ऐसे साधु-संत धर्म की आड़ लेकर अपना साम्राज्य विकसित करते है, जिस कारण से व्यक्ति इस भय से उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता क्योंकि वह स्वयं धर्म-विरोधी नहीं दिखना चाहता | दूसरा कारण यह है कि हमारे कहीं भीतर भी वही कामनाएं और इच्छाएं पल रही होती है, जिनको पूरा करने का उपाय हमें उस कथित साधु के पास होना प्रतीत होता है | वास्तव में हमें अगर वास्तविक ज्ञान की तलाश होती, परमात्मा को प्राप्त करने की वास्तविक प्यास होती तो हम ऐसे कथित साधुओं के पास कभी भी नहीं जाते | इसीलिए शंकराचार्य जी के इस शिष्य का यह कहना एकदम सत्य है कि -
जटिलो मुण्डी लुंचितकेशः, काषायाम्बर-बहुकृतवेष: |
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़: उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ||14||
अर्थात बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, भगवा वस्त्र और तरह-तरह के वेष, ये सब अपना पेट भरने के किये धारण किये जाते हैं | हे मोहित मनुष्य, तुम इन सब को देखते हुए भी क्यों अनदेखा कर रहे हो ?
     इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है | क्यों ? केवल रोजी रोटी कमाने के लिए | फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं-15
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, October 28, 2017

भज गोविंदम् - श्लोक संख्या-14

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.14 -
जटिलो मुण्डी लुंचितकेशः, काषायाम्बर-बहुकृतवेष: |
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़: उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ||14||
अर्थात बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, भगवा वस्त्र और तरह-तरह के वेष, ये सब अपना पेट भरने के किये धारण किये जाते हैं | हे मोहित मनुष्य, तुम इन सब को देखते हुए भी क्यों अनदेखा कर रहे हो ?
       इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है | क्यों ? केवल रोजी रोटी कमाने के लिए | फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहते हैं |
         आदि गुरु शंकराचार्य जी का प्रथम शिष्य आज के जैसे कथित साधुओं और धर्मगुरुओं के ऊपर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं कि जिस किसी ने वेष बदला है, सिर का मुंडन करा लिया है अथवा विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण कर अपना वेष बदल लिया है, ऐसा वे अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए कर रहे हैं | ऐसा करना स्वयं के लिए सकाम कर्म करना ही है | इसका अर्थ यह हुआ है कि जैसे साधु का वेष धारण किये बाबा आज के युग में दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वैसे ही बाबा शंकराचार्य जी के काल में भी हुआ करते थे | अंतर केवल इतना है कि उस काल में ऐसे बाबा एक-दो हुआ करते थे और आज-कल ऐसे कथित साधु-बाबाओं की भरमार है | एक आदर्श साधु-संत का कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता हैं | नाटक बाज बाबा कर्म में संलग्न रहते हैं और धन और स्त्री से मोह उनका छूटता नहीं है | साधु के नाम पर वे कलंक हैं, जो धन कमाने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं | यही कारण है कि आज हमारा सनातन धर्म इन पाखंडी साधुओं के कारण बदनाम हो रहा है |
              कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ऐसा क्यों करते हैं ? यह एक गूढ़ प्रश्न है | शायद इस प्रकार की मानसिकता के लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि एक साधु का जीवन पेट भरने के लिए सबसे आसान जीवन है जबकि सत्य यह है कि एक साधु जैसा जीवन जीना, एक संत बनकर जीवन जीना सबसे कठिन है | एक संत को जीवन मुक्त होकर रहना सीखना होता है जिसके लिए उसे अथक प्रयास करने पड़ते हैं | हालाँकि देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन मुक्त होना बहुत सरल है | संसार को त्यागकर ही साधु और संत नहीं बना जा सकता | उसके लिए बड़ी कठिन राह चुननी पड़ती है और फिर उस राह पर चलना पड़ता है | मन से स्त्री, धन, मोह-माया आदि का सर्वस्व त्याग करना पड़ता है | केवल वेष बदलकर, सर के केश मुंडा कर साधु नहीं हुआ जा सकता बल्कि स्वयं के भीतर साधुत्व पैदा करना होता है, कामनाओं और कर्मों के प्रति अनासक्त होना पड़ता है | कबीर ऐसे ही कथित साधुओं पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि-
मुंड मुंडाए हरि मिले, तो हर कोई लेय मुंडाय |
बार-बार के मुंडते, भेड़ न वैकुण्ठ जाय ||
अर्थात अगर केवल मात्र सिर को मुंडा लेने से परमात्मा प्राप्त हो जाये तो ऐसा तो प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है | एक भेड़ को उसके जीवन में अनेकों बार केश विहीन किया जाता है, फिर उसे तो परमात्मा नहीं मिलते |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, October 27, 2017

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.13(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.13(समापन)-
          इतने विवेचन के बाद प्रश्न यह पैदा होता है कि स्त्री और धन के लिए तो जीवन में कर्म स्वतः ही होते हैं, उनको प्राप्त करने का उद्देश्य रखकर विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है | फिर व्यक्ति के द्वारा इस जीवन में किस उद्देश्य के लिए कर्म किये जाने चाहिए ? स्त्री और धन के लिए आपके द्वारा किये जाने वाला प्रत्येक कर्म आपको पुनर्जन्म की ओर ही ले जाएगा | अतः इन दोनों की प्राप्ति के लिए जो कर्म स्वतः होकर जिस प्रकार के भी उनके परिणाम मिलते रहें, उन्हें सहज भाव से प्रारब्ध मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए | मनुष्य को अपने द्वारा इस जीवन में किये जाने वाले कर्म वर्तमान जीवन में केवल धर्म और मोक्ष ही प्रदान कर सकते हैं | इसलिए इस जीवन में धर्म और मुक्ति के प्रयास के लिए ही कर्म करने चाहिए, काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए नहीं |
           स्त्री और धन आपके संसार का निर्माण करते हैं | संसार बनता है स्त्री और धन में आसक्ति से | स्त्री और धन को अपने द्वारा अर्जित किया गया मानना ही बंधन है | यह बंधन ही व्यक्ति को सकाम कर्म करने के लिए प्रेरित करता है | सकाम कर्म वर्तमान जीवन में फल प्रदान कर ही नहीं सकते | सकाम कर्मों से मनोवांछित फल न मिल पाने के कारण व्यक्ति व्यथित हो जाता है, और अधिक जोश से फिर नए कर्म करता है | इस प्रकार स्त्री, धन और उन्हें अपने अनुसार संचालित करने के लिए किये जा रहे कर्मों के परिणाम मनुष्य को चिंताग्रस्त कर देते हैं | संत महात्माओं का सत्संग होने से हम उनसे ज्ञान प्राप्त कर व उनके उपदेशों का पालन कर चिंता मुक्त हो सकते हैं | संत हमें यही ज्ञान देते हैं कि प्रारब्ध से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है | अतः इन दो की प्राप्ति के लिए व्यर्थ की चिंता न करें बल्कि धर्म और मोक्ष को पाने का प्रयास करें | यही ज्ञान संसार रुपी भवसागर से पार होने के लिए एक नौका बनेगा | इसलिए शंकराचार्य महाराज कहते हैं कि-
का ते कान्ता धन गत चिन्ता वातुल, किं तव नास्ति नियन्ता |
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ||13||
अर्थात तुम्हें अपनी पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है ? क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है ?तीनों लोकों में केवल सज्जनों का संग ही भवसागर से पार जाने की नौका है |
सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बंधनों में फंसकर एवं व्यर्थ की चिंता करके हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा | क्यों हम सदैव अपने आपको इन चिंताओं से घेरे रखते हैं ? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते ? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बंधनों से एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
              इस प्रकार 12 श्लोकों के माध्यम से आदि गुरु शंकराचार्य ने हमारा ध्यान संसार से हटाकर गोविन्द की ओर लगाने का प्रयास किया है | हम उनके इस ज्ञान को कितना आत्मसात करते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है | शंकराचार्यजी के साथ चल रहे 14 शिष्य अब एक-एक कर इस विषय पर एक-एक श्लोक कहना प्रारम्भ कर रहे हैं, जो उनके गुरु द्वारा पूर्व में दिए जा रहे ज्ञान पर ही कहे गए हैं | कल से उन्हीं श्लोकों पर चिंतन प्रारम्भ करेंगे |
कल-श्लोक सं.14
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल  

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 26, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.13(कल से आगे-2)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.13 (कल से आगे-2) – 
       काम और अर्थ, केवल पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार इस जन्म में उपलब्ध हुए हैं | तो फिर इस जन्म में क्या हमें स्त्री और धन को पाने के लिए कर्म नहीं करने चाहिए ? मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि बिलकुल नहीं करने चाहिए | हो सकता है, आप मेरी इस बात से असहमत हों परन्तु मैं निश्चिन्त हूँ क्योंकि मुझे अपने ऋषियों और मुनियों के द्वारा कही गयी प्रत्येक बात पर पूर्ण विश्वास है, जो यह भी कह गए हैं कि काम और अर्थ केवल प्रारब्ध के अधीन हैं | अर्जुन को तेल भरे कड़ाह में उसके ऊपर घूमती मछली के प्रतिबिम्ब को देखकर उसकी आँख पर निशाना साधना था | उसने यह कार्य कर स्वयंवर में द्रोपदी का वरण कर लिया | क्या अर्जुन ने अपने वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ से ऐसा संभव कर दिखा सकता था ? मैं कहता हूँ, नहीं | अगर अर्जुन केवल अपने वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ के कारण ही धनुर्विद्या में पारंगत हुआ होता और सटीक निशाना केवल स्वयं के बल से ही लगा सकता तो फिर वह और उसका गांडीव, दोनों ही भीलों के समक्ष परास्त कैसे हो गए थे ? द्रोपदी का उसके जीवन में आना पूर्वजन्म के किन्हीं कर्मों के अनुसार पहले से ही निश्चित था | अगर उसके हाथ में ही सब कुछ करना होता तो महाभारत जैसे युद्ध का विजेता लुटेरों के समक्ष परास्त कैसे हो सकता था ? उसके जीवन-काल में ही हुए इस युद्ध में भी उसे अपने शत्रु को परास्त कर देना चाहिए था | परन्तु उस युद्ध में जैसा कि आप जानते ही हैं, भील (लुटेरे) जीत गए थे |
           किसी भी प्राणी के शरीर में प्रत्येक क्रिया स्वतः ही होती है और उन क्रियाओं का आधार पूर्वजन्म के कर्म होते हैं | ये क्रियाएं स्वतः ही होने लगती हैं, वे कर्म तो होती हैं परन्तु ऐसे कर्मों को करने में व्यक्ति की कोई भूमिका नहीं होती | बस, यही कहना चाहता हूँ मैं | हमारा अज्ञान ही है जो स्वतः होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेते हैं | यह कर्ता-भाव ही हमें क्रियाओं के प्रति आसक्त कर देता है और उस आसक्ति से उत्पन्न सकाम कर्म के भाव से जो क्रियाएं हम करने लगते है, वास्तव में वे कर्म हमारे द्वारा ही किये जाते हैं | ये कर्म ही हमारा प्रारब्ध बनकर नए जीवन में स्वतः ही क्रियाएं प्रारम्भ कराते हैं | अतः स्त्री और धन के लिए आसक्ति भाव से किये गए कर्म जब निष्फल होते है, तब हमारे मन में चिंता उत्पन्न होती है और हम जीवन भर उनसे घिरे रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 25, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.13(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.13(कल से आगे)-
              हमारे सद्ग्रंथ कहते हैं कि मनुष्य के पुरुषार्थ चार हैं, काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष | पुरुषार्थ हमारे कर्मों का ही परिणाम है | पूर्व जन्म के कर्मों से हमारा प्रारब्ध बनता है जो कि पूर्व जन्म का पुरुषार्थ कहलाता है | वर्तमान जीवन में किये जा रहे कर्मों से हमारे इस जीवन का पुरुषार्थ बनता है | अर्थ और काम पूर्वजन्म के पुरुषार्थ के अनुसार ही उपलब्ध होते हैं, इन दोनों की उपलब्धि में वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ की कोई भूमिका नहीं होती | वर्तमान जीवन के पुरुषार्थ से हम केवल धर्म और मोक्ष को ही प्राप्त कर सकते हैं, अर्थ और काम को नहीं | हमारे प्रायः सभी धर्मग्रंथों में इस बात को विभिन्न प्रकार से स्पष्ट भी किया गया है, फिर भी हम इस काम और अर्थ के बंधन से अपने आपको मुक्त नहीं कर पा रहे हैं | फिर यही बंधन हमारी विभिन्न प्रकार की चिंताओं का कारण बनता है |
        स्त्री और धन, जो हमें इस जीवन में प्राप्त हुए हैं, वे हमारे किसी पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम मात्र है और उस परिणाम को भोगने के लिए ही हमें यह मानव जीवन मिला है | उन कर्मों के परिणाम स्वरूप इस जीवन में मिले स्त्री और धन को जब हम भोगते हैं तो हमारे भीतर इन दोनों के प्रति एक प्रकार की आसक्ति पैदा हो जाती है | आसक्ति का पैदा होना प्रकृति प्रदत्त एक मानवीय स्वभाव है, जो उसे नए जीवन में सकाम कर्म करने के लिए प्रेरित करता है | भोग के प्रति आसक्ति और उससे पैदा हुई सकाम कर्म करने की प्रेरणा, दोनों ही मनुष्य को धन और स्त्री के साथ बाँध देती है | जब कर्म करना मनुष्य प्रारम्भ करता है और उसे मनोवांछित फल मिलने लगता है, तब वह अपने आपको इन कर्मों का कर्ता मान बैठता है | यह सकाम कर्म और उन कर्मों में कर्ता-भाव ही अंत में जाकर मनुष्य की चिंता का मूल कारण बनता है |
          हम इस चिंता से स्वयं को कैसे मुक्त रख सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर एकदम सरल है परन्तु आत्मसात करने में बड़ा कठिन है | हमें हमारे सद्गुरु और सद्ग्रंथों की इस बात को ह्रदय से स्वीकार करना होगा कि स्त्री और धन, दोनों ही पूर्व मानव जीवन के पुरुषार्थ हैं और इस जीवन में इन्हें केवल निष्काम-भाव से और आसक्ति रहित होकर इनको भोगना चाहिए | ईशावास्योपनिषद में इसे त्याग पूर्वक भोगना (त्येन त्यक्तेन भुंजीथा) कहा गया है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 24, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-13

भज गोविन्दम् – श्लोक सं-13
का ते कान्ता धन गत चिन्ता वातुल, किं तव नास्ति नियन्ता |
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ||13||
अर्थात तुम्हें अपनी पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है ? क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है ? तीनों लोकों में केवल सज्जनों का संग ही भवसागर से पार जाने की नौका है |
        सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बंधनों में फंसकर एवं व्यर्थ की चिंता करके हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा | क्यों हम सदैव अपने आपको इन चिंताओं से घेरे रखते हैं ? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते ? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बंधनों से एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं |
          जिस दृश्य को देखकर शंकराचार्यजी महाराज द्वारा भज गोविन्दम् (द्वादश मंजरिका) के 12 श्लोक अपने 14 शिष्यों को कहे गए थे, उनमें यह अंतिम और अति महत्वपूर्ण श्लोक है | एक वृद्ध व्यक्ति द्वारा रटे जा रहे किसी ग्रन्थ के श्लोक को सुनकर जो कथन आदि गुरु ने प्रारम्भ किया था, उसको इस श्लोक के साथ वे विराम दे रहे हैं | वे कह रहे हैं कि सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बंधनों में फंसकर एवं व्यर्थ की चिंता करके हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा | इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है, धन और स्त्री का बंधन | यह बंधन ही हमारे निजी संसार का निर्माण करता है और हम इस संसार की और मोह माया में फंस जाते हैं | अगर व्यक्ति धन और स्त्री के बंधन में नहीं बंधे तो उसके भीतर किसी भी प्रकार की चिंता का जन्म हो ही नहीं सकता | यह एक कटु सत्य है, जिसे स्वीकार करना कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता |
              परमात्मा ने प्रकृति के माध्यम से इस सृष्टि का निर्माण किया है | इसलिए ऐसा होना तो कभी भी संभव नहीं हो सकता कि इस संसार से धन और स्त्री का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये | हमें धन और स्त्री के बंधन में न बंधकर चिंता मुक्त होना सीखना होगा | परम पिता ने संसार के सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य को ही एक ऐसा प्राणी बनाया है, जिसमें विवेक जाग्रत हो सकता है | कमोबेश बुद्धि सभी प्राणियों में रहती है परन्तु उस बुद्धि को विवेक में परिवर्तित करना केवल मनुष्य के द्वारा ही होना संभव है | अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य को धन और स्त्री के बंधन में क्यों नहीं बंधना चाहिए ? धन और स्त्री, इस सृष्टि की रचना में ये दो ही ऐसे हैं, जिनके प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है | आसक्ति बंधन पैदा करती है और बंधन ही उसकी समस्त चिंताओं का मूल कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, October 23, 2017

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.12(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.12(समापन)-
          जन्म मृत्यु, मृत्यु जन्म, यह एक प्रकार का इस संसार में आवागमन है | हम आते हैं इस संसार में, सभी अवस्थाओं को एक –एक कर भोगते हैं | कुछ पूर्वजन्म में शेष रही कामनाओं को इस जन्म में पूरा करने का प्रयास करते है | पूरी होती भी हैं और नहीं भी होती क्योंकि एक कामना के पूरा होते ही फिर से एक नई कामना पैदा हो जाती है | ये अनंत कामनाएं ही इस जीवन चक्र से मुक्त न हो पाने का मुख्य कारण है | हमें यह समझना होगा कि यह संसार जिसमें हम बार–बार आ जा रहे है, माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस माया के प्रति अनुरक्ति रखना अनुचित है | हम इस असत् माया को ही सत समझ बैठते है, इसी समझ को मोह में पड़ना कहते हैं | मोह हमें इस संसार के साथ चलने को विवश कर देता है | इस माया-मोह के बंधन से छूटना ही मुक्त हो जाना है | यह बंधन हमारे द्वारा माया को अर्थात हमारे द्वारा भ्रम को ही सत्य समझ लेने के कारण पैदा होता है, अन्य कोई कारण नहीं है | इससे स्पष्ट होता है कि संसार के चक्र में हम स्वयं ही जानबूझकर फंसे हुए हैं |
              इस प्रकार स्वयं के ही बंधे होने के बंधन से मुक्त होने का एक ही उपाय है, वह है वास्तविकता को स्वीकार करना | हम सब समय के चक्र से, संसार के चक्र से तभी मुक्त हो सकते हैं जब कालातीत हो जाएँ | इस संसार और समय से परे चले जाएँ | संसार से परे जाने का अर्थ कदापि भी यह नहीं है कि हम अपना सब कुछ त्यागकर जंगल में भाग जाएँ | जहाँ पर भी आप भाग कर जायेंगे, आपके भीतर आपका यह संसार पुनः प्रकट हो ही जायेगा | भगाना ही है तो इस मोह को भगाइए | न तो संसार में आसक्त हो और न ही विरक्त | मध्य में आकर ठहर जाइये | आसक्ति और विरक्ति का मध्य है, अनासक्ति | अनासक्त भाव ही हमें संसार के बन्धनों से मुक्त कर सकता है | संसार में अनासक्त होकर एक गोविन्द को भजना ही हमें मुक्त कर सकता है | अनासक्त होना और गोविन्द को भजना मोह माया में फंसे रहने के कारण असंभव प्रतीत होता है | विडम्बना यही है कि हम स्वयं ही मोह माया से मुक्त नहीं होना चाहते | इसीलिए शंकराचार्य महाराज को कहना पड़ता है कि-
दिनमपि रजनी सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायतः |
कालः क्रीडतिगच्छत्यायु:, तदपि न मुंचतिआशावायु: ||12||
अर्थात दिन और रात, शाम और सुबह सर्दी और बसन्त आदि तो बार-बार आते-जाते रहते हैं, काल की इस क्रीड़ा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है परन्तु मनुष्य की इच्छाओं का अंत कभी नहीं होता है |
      समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है | कोई भी व्यक्ति अमर नहीं है | मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है | परन्तु हम मोह माया के बंधनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं |
कल श्लोक सं. 13
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरि: शरणम् ||

Sunday, October 22, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-12(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.12 (कल से आगे)-
              दिन का रात में और रात का पुनः दिन में परिवर्तित होते जाना प्रकृति का नियम है | उसी प्रकार वर्षा की समाप्ति पर सर्द ऋतु का आना, शरद् के बाद बसन्त, फिर ग्रीष्म और पुनः वर्षा ऋतु का आगमन, एक चक्र की भांति ऋतु परिवर्तन सतत चलता जा रहा है | मनुष्य के जीवन चक्र में भी ऐसा ही होता है | जन्म के बाद प्रत्येक अवस्था से गुजरते हुए अंत में भौतिक देह को समाप्त होना ही पड़ता है | मृत्यु पर किसी का भी वश नहीं है | भीष्म पितामह जैसे महान पुरुष को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था परन्तु उन्हें भी एक दिन मृत्यु का आह्वान करना पड़ा |
            सिकंदर जब विश्व विजय की यात्रा पर था तब वह भारत भी आया था | सिकंदर को पता चला कि यहाँ पर किसी स्थान पर एक गुफा है जिसमें एक ऐसा जल स्रोत है, जिसका जल पीने से व्यक्ति अमर हो जाता है | मृत्यु उसके द्वार पर आ ही नहीं सकती | सिकंदर ने उस गुफा को खोज निकाला और उस जल स्रोत तक पहुँच भी गया | जब वह जल को अंजुली में भरकर पीने ही वाला था तभी एक कृशकाय देह के कराहने की धीमी ध्वनि उसे सुनाई पड़ी | उसने उस शरीर की ओर देखा तो आश्चर्यचकित रह गया | उस जर्जर हुए शरीर के कंठ से बहुत धीमे स्वर फूट रहे थे | सिकंदर ने उसके कंठ से निकल रहे मद्धिम स्वर को ध्यान से सुना | वह कह रहा था कि ‘हे अमरता पाने को उत्सुक मनुष्य, इस जल को न पी | यह जल देह को तो मरने नहीं देगा परन्तु इस शरीर को जर्जर होने से फिर भी नहीं रोक सकेगा | मैंने भी शताब्दियों पूर्व अमर होने की आशा लिए यही जल पिया था और आज मेरी देह इस अवस्था तक पहुँच गयी है | आज मैं मृत्यु का आह्वान कर रहा हूँ और मृत्यु है कि मेरा वरण ही नहीं कर रही है |’ कहते हैं कि सिकंदर ने इतना सुनते ही अंजुली में भरे जल को छोड़ दिया | उसने अमर होने का विचार ही त्याग दिया और गुफा से तुरंत बाहर निकल गया |
           हो सकता है कि सिकंदर के बारे में यह एक काल्पनिक कहानी किसी के द्वारा गढ़ी गयी हो परन्तु इस कहानी में निहित सन्देश बहुत ही महत्वपूर्ण है | समय के चक्र को रोकना असंभव है | जो कोई भी इसे रोकने का प्रयास करता है, वह ऐसी ही किसी विपदा में फंस सकता है | समय का चक्र, अवस्था का बढ़ते जाना, जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म, सब एक नियम के अनुसार चलता रहता है | इस चक्र को केवल शरीर को अमर बना कर नहीं तोडा जा सकता | आत्मा ही अमर है, शरीर नहीं | ऐसे में हमें यह विचार करना चाहिए कि इस चक्र में फंसे रहना क्यों हमारी एक मजबूरी बन गया है और साथ ही साथ हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या इस चक्र को किसी भी प्रकार तोडा भी जा सकता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Saturday, October 21, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-12-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-12-
दिनमपि रजनी सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायतः |
कालः क्रीडति गच्छत्यायु:, तदपि न मुंचतिआशावायु: ||12||
अर्थात दिन और रात, शाम और सुबह सर्दी और बसन्त आदि तो बार-बार आते-जाते रहते हैं, काल की इस क्रीड़ा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है परन्तु मनुष्य की इच्छाओं का अंत कभी नहीं होता है |
         समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है | कोई भी व्यक्ति अमर नहीं है | मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है | परन्तु हम मोह माया के बंधनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं |
         श्लोक सं.11 की ही बात को शंकराचार्य महाराज आगे बढ़ाते हुए कह रहे हैं कि परिवर्तन होना संसार का नियम है | इसी परिवर्तन के अंतर्गत ऋतुओं का परिवर्तन होना, समय का परिवर्तित होते जाना आ जाता है | आज हम जहाँ पर हैं, कल वहां न होकर कहीं ओर ही होंगे | यहाँ तक कि हम भी आज जो कुछ हैं. कल कुछ और ही होंगे | बचपन समयानुसार पल-पल कर बीतता जाता है, और युवावस्था आ जाती है | इन्द्रिय भोग में रत युवावस्था कब बीत जाती है, इसका भी पता ही नहीं चलता | हमें पता सब कुछ चलता है, परन्तु हम मोह-माया में इस प्रकार बंधे हुए रहते हैं कि समय और अवस्था के बीतते जाने का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता | जब आप वायुयान से यात्रा कर रहे होते हैं तब आपको इस बात का अनुभव ही नहीं होता कि विमान 800-900 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ रहा है | हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि विमान अपनी एक ही अवस्था में स्थिर खड़ा है | यही हाल हमारे जीवन का है | आज हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह मन में एक स्थायित्व का भाव लिए हुए ही कर रहे हैं अर्थात यह सोचते हुए कर रहे हैं मानो यहाँ पर हमें सदैव के लिए रहना है | हम यह नहीं जानते कि एक दिन इस संसार को, इस शरीर को छोड़कर हमें जाना होगा | वास्तविकता यह है कि इस संसार में जन्म लेने वाला प्रतिपल बदल रहा है, प्रत्येक क्षण वह मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है |
              हम स्वयं के जीवन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर पा रहे हैं | एक दूसरे की देखा देखी का जीवन जी रहे हैं, हम सभी | जन्म के बाद समय के साथ-साथ हमारी अवस्था भी बदलती जा रही है | युवावस्था भी प्रौढ़ावस्था की ओर जा रही है | प्रौढ़ भी एक दिन वृद्ध होगा | वृद्धावस्था का समापन इस शरीर के समाप्त हो जाने के साथ ही हो जाना है | आज तक कोई भी शरीर इस संसार में अमरत्व को उपलब्ध नहीं हो सका है | यह एक शाश्वत सत्य है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, October 20, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.11(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.11(समापन)-
              आदि गुरु शंकराचार्य कह रहे हैं कि यह संसार झूठ और कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | सत्य सदैव अपरिवर्तनीय होता है | जो परिवर्तनशील है, वह झूठ ही है | संसार दिन प्रतिदिन बदलता रहता है, अतः वह असत है | यहाँ नित नयी कल्पनाओं का जन्म होता है, कल्पना को वास्तविकता में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है परन्तु कल्पना कभी वास्तविकता नहीं बन सकती | कल्पना फिर एक नयी कल्पना को जन्म देती है, यह एक ध्रुव सत्य है | आज जिस कल्पना को हम वास्तविकता में परिवर्तित होना मान लेते हैं, भविष्य में वह मात्र एक कल्पना बनकर ही रह जाती है | कल्पना कामना को जन्म देती है और कामनाओं का भी कल्पना की तरह कभी अंत नहीं आता | एक कामना जब पूरी होने वाली होती है, तभी उस कामना का और अधिक विस्तार हो जाता है | यही कारण है कि मनुष्य सदैव कल्पना के संसार में ही खोया रहता है क्योंकि कामनाओं का अंत कभी भी हो नहीं सकता |
        जब सब कुछ अस्थाई है, चाहे वह मित्र हो, सुन्दरता, यौवन, धन दौलत, अभिमान हो अथवा कल्पनाओं और झूठ का पुलिंदा संसार ही क्यों न हो, सब कुछ एक दिन समाप्त हो जाने हैं, इसका एक ही अर्थ हुआ कि हमारा यह शरीर भी एक दिन समाप्त हो जाना है | सब कुछ माया है | ‘माया’ एक शब्द, जिसका अर्थ है कि “नहीं है (मा) यह (या) | जो नहीं होता अथवा नहीं रहता वह मात्र कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस भौतिक संसार में सब कुछ असत्य है | जब सब कुछ असत्य है, तो फिर सत्य क्या है | सत्य है, ब्रह्म, ‘ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या’ | अतः हमें स्वयं को ब्रह्म होना है, शरीर नहीं | वास्तव में देखा जाये तो हम ब्रह्म ही हैं, अपने आपको शरीर मान लेना हमारा अज्ञान है | अपनी स्मृति लौटाकर ब्रह्म पद प्राप्त करना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है | आत्म-ज्ञान हो जाना ही परम पद को पा लेना है, क्योंकि हम स्वयं ब्रह्म ही है | केवल अज्ञान के कारण हम अपने आपको शरीर मान बैठे हैं | जीवन में कामना ही उस ज्ञान को प्राप्त करने की रखनी चाहिए जो हमें स्वयं के ब्रह्म होने की स्मृति लौटा सके | शेष सभी सांसारिक कामनाएं हैं, जो इस संसार में कोरी कल्पना ही बनकर रह जाती है | इस संसार में रहना अस्थाई भाव है | अतः सुन्दरता, यौवन, धन-दौलत आदि का अभिमान न कर परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाने का प्रयास करना चाहिए | इसीलिए शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि-  
मा कुरु धन-जन-यौबन-गर्वं, हरति निमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
         हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है | यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए |
कल श्लोक सं.12
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 19, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.11(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.11(कल से आगे)-
        जब हम धन कमा लेते हैं, हमारी दौलत बढ़ने लगती है, मित्र भी आ जाते हैं | मित्र केवल धन-दौलत के कारण ही बनते हैं, मैं यह नहीं कह रहा हूँ | मेरे कहने का आशय यह है कि बहुत से मित्र प्रायः धन दौलत को देखकर ही बनते और बनाये जाते हैं | अगर कोई मित्र आपके धन के आधार पर नहीं बना है, तो फिर मैं कहता हूँ कि वही आपका सच्चा मित्र है | मित्र भी कभी स्थाई नहीं होते | धन को देखकर बनने वाले मित्र बरसात में उगे कुकुरमुतों की तरह होते है, जो धन के समाप्त होते ही दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं | शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं कि धन व्यक्ति को विषय भोग के लिए प्रेरित करता है | जैसे कि धन की तीन गति जो बताई गयी है, उनमें एक गति ‘भोग’ भी है | जब व्यक्ति के पास धन आता है, तो वह उसे भोगने लगता है | विषय- भोग अकेले भोगना व्यक्ति को कभी भी सुख प्रदान नहीं कर सकता | इस सुख की वृद्धि के लिए उसके पास मित्र होने आवश्यक है | मित्र विषय-भोग को भोगने के लिए उपलब्ध हो ही जाते हैं और फिर आज के इस युग में ऐसे मित्र मिलने सुलभ भी हैं |
    युवावस्था, धन-दौलत, मित्र आदि व्यक्ति को एक प्रकार की संतुष्टि प्रदान करते हैं | इस छद्म संतुष्टि को बढ़ाने के लिए व्यक्ति में अभिमान पैदा हो जाता है | व्यक्ति का अभिमान एक न एक दिन उसके पतन का कारण अवश्य बनता है | जब भोगों में आसक्त व्यक्ति अपनी युवावस्था को यूँ ही गँवा देता है, तब उसकी धन कमाने की क्षमता भी कम होने लगती है और धन धीरे-धीरे घटने लगता है | घटते धन को देखकर एक-एक कर मित्र भी साथ छोड़ते चले जाते है | धन, युवावस्था और मित्र आदि तो धीरे-धीरे साथ छोड़ते चले जाते हैं परन्तु अभिमान फिर तत्काल नहीं जाता है | गर्व जिस बात का था, आखिर उन सब के नाश से धीरे-धीरे समय के साथ यह भी कम होता जाता है | इस अवस्था में पहुंचकर व्यक्ति को आभास होने लगता है कि उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया है | उसके हाथ सिवाय पछतावे के कुछ भी नहीं रहता | हमें विचार करना चाहिए कि यह सौन्दर्य प्रकृति की देन है | धन हमारे भाग्य के कारण हमें मिला है | वही मित्र श्रेष्ठ होता है, जो हमें सन्मार्ग पर चलाता है और कुमार्ग पर जाने से रोकता है | फिर किस बात का गर्व करना ? अभिमान जीवन के सर्वनाश का कारण बनता है, इससे दूर रहना ही श्रेयस्कर है | गर्व का समूल नाश करना आवश्यक है और सबसे अच्छा तो इसको पैदा न होने देना ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 18, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-11

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-11 -   
मा कुरु धन-जन-यौबन-गर्वं, हरतिनिमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
         हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है | यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए |
        मनुष्य का जीवन एक सौ वर्षों का माना गया है | क्या एक सौ वर्ष पर्याप्त हैं, जीवन को एक उद्देश्य के साथ जीने के लिए ? समझदार व्यक्ति के लिए सौ वर्ष पर्याप्त ही नहीं, बहुत ही अधिक है और सांसारिक भोगों में रत व्यक्ति के लिए एक हजार वर्ष भी अपर्याप्त है | संसार विनाश शील है | यहाँ पर कुछ भी स्थाई नहीं है | प्रतिदिन इसकी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है | आज जो कुछ भी है, कल वह वैसा नहीं रहेगा | हम अपना जन्म दिन बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं और बड़े गर्व से उम्र में एक वर्ष जुड़ने का उत्सव मनाते हैं | हम यह नहीं जानते कि परमात्मा ने जितने वर्ष हमें जीने के लिए दिए हैं, उनमें से एक वर्ष कम हो गया है | वास्तव में देखा जाये तो प्रत्येक जन्म-दिन पर हमें स्वयं के जीवन का आकलन करना चाहिए कि हम अपने उद्देश्य से कितनी दूर है | जीवन मुट्ठी में बंद रेत की तरह धीरे-धीरे फिसलता जा रहा है और हम हैं कि इस खोते जा रहे समय को जीवन में एक वर्ष जुड़ता हुआ मान रहे हैं | अधिक क्या कहूँ, सब कुछ पाश्चात्य जगत का प्रभाव है |
           हमें लगता है कि बढ़ती उम्र के साथ हमारी सुन्दरता बढ़ती जा रही है | यह भी हमारा एक भ्रम है | जितना सुन्दर और निर्दोष एक जन्म लेने वाला शिशु होता है, उतने सुन्दर और निर्दोष हम जीवन में कभी भी नहीं हो सकते | बढ़ती उम्र के साथ सौन्दर्य साथ छोड़ता चला जाता है | फिर हम चाहे जितनी सौन्दर्य सामग्री का उपयोग कर लें, समय के द्वारा चेहरे पर डाली गई झुर्रियां मिट नहीं सकती | अपने पहनावे में चाहे जितना परिवर्तन कर लें, इस कमर को एक दिन झुकना ही पड़ेगा | धन-दौलत हम चाहे जितनी कमा लें, एक दिन यह भी समाप्त हो जानी है | कहते भी हैं कि धन की तीन गति होती हैं-दान, भोग और नाश | साथ एक धेला भी नहीं ले जा सकते | फिर जीवन भर इस धन-दौलत एकत्रित करने को ही अपना एक मात्र उद्देश्य क्यों बना लेते हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 17, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.10(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.10(समापन)-
             प्रश्न यह उठता है कि हमारा शरीर और मस्तिष्क स्वस्थ क्यों नहीं रह सकते ? शरीर कर्म करने का साधन है और मस्तिष्क साधन है काम-वासनाओं के चिंतन का | जब मन-मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की कामनाएं जन्म लेती है, तब शरीर उन कामनाओं को पूरा करने के लिए प्रयास करता है | इन दोनों में इस प्रकार का आपसी सम्बन्ध ही मुक्ति में बाधक है | ज्ञानेन्द्रियाँ मस्तिष्क से सम्बंधित हैं और कर्मेन्द्रियाँ शरीर से | समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषय भोग के संकेत मस्तिष्क तक पहुँचाती है, जो विभिन्न भोगों का रसास्वादन करने का कार्य करता है | भोग में जब व्यक्ति की आसक्ति हो जाती है तब उसका मस्तिष्क कर्मेन्द्रियों तक संकेत भेजता है, पुनः उन कामनाओं को, उस भोग को उपलब्ध करवाने का | इस प्रकार यह अटूट और अभेद्य चक्र निरंतर चलता रहता है |
             इस प्रकार धीरे-धीरे इन कामनाओं के बढ़ने से तथा विभिन्न भोगों के रसास्वादन की अति हो जाने से मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क में विकार पैदा हो जाता है | दोनों ही अपना स्वास्थ्य खोते जाते हैं | जब व्यक्ति की मनोदशा ख़राब हो जाती है, तब उसका शरीर भी अस्वस्थ रहने लगता है | पहले जो विषय-भोग सुख देने वाले अमृत तुल्य लग रहे थे, वे ही अब दुःख देने वाले हो जाते हैं | स्वस्थ शरीर व्यक्ति के जीवन का प्रथम सुख है | कहा भी जाता है कि “पहला सुख निरोगी काया“| शरीर और मस्तिष्क, दोनों के अस्वस्थ हो जाने से बढ़कर इस संसार में कोई दुःख नहीं है |
          इन दोनों को स्वस्थ रखने का एक मात्र उपाय है, अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना, उन्हें तृष्णा बनने से रोकना | शरीर जब तक विकार ग्रस्त नहीं होगा तब तक सुख ही सुख है | अतः सदैव यह ध्यान में रखें कि विषय भोगों के प्रति आसक्ति पैदा न हो | जब यह आसक्ति नहीं रहेगी, हम बंधन से मुक्त भी उसी प्रकार हो जायेंगे जैसे बिना जल के तालाब को कोई ताल नहीं कहता और धन के अभाव से परिवार भी टूट कर परिवार नहीं कहलाता है | यही वास्तविक ज्ञान है, जिसको आत्मसात करते ही हम संसार के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं | इसीलिए शंकर कहते हैं कि -
वयसिगतेकःकामविकारः शुष्के नीरे कःकासारः|
क्षीणेवित्तेकः परिवारोज्ञातेतत्त्वेकः संसारः ||10||
अर्थात यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, तो हमें सुख की प्राप्ति नहीं होगी | वह ताल, ताल नहीं रहता यदि उसमें जल नहीं हो | जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होते ही हम इस विचित्र संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं |
||भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||
कल श्लोक सं, 11
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Monday, October 16, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.10-

भज गोविन्दम् –श्लोक सं.-10 -
वयसिगतेकःकामविकारः शुष्के नीरे कःकासारः|
क्षीणेवित्तेकः परिवारोज्ञातेतत्त्वेकः संसारः ||10||
अर्थात यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, तो हमें सुख की प्राप्ति नहीं होगी | वह ताल, ताल नहीं रहता यदि उसमें जल नहीं हो | जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होते ही हम इस विचित्र संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं |
          भज गोविन्दम् के पिछले श्लोक में संसार के बंधनों से मुक्त होने की बात शंकराचार्य महाराज कह रहे थे | संसार के बंधनों से मुक्त होने पर ही व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है | इस श्लोक में वे कह रहे हैं कि अगर हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है तो हम सुख प्राप्त नहीं कर सकते अर्थात् संसार के बंधन से मुक्त होने के लिए शरीर और मस्तिष्क का स्वस्थ होना आवश्यक है | हमारा यह भौतिक शरीर ही हमारे लिए संसार के बंधन पैदा करने का मुख्य कारण बनता है | इस शरीर में अवस्थित मस्तिष्क में बुद्धि निवास करती है | बुद्धि कहती है कि इस संसार में जो भी कार्य करना है अथवा होता है, वह इस शरीर के कारण ही होना संभव होता है | यह बात शत प्रतिशत सत्य भी है | बुद्धि जब संसार के साथ हो जाती है तब वह व्यक्ति को उसके साथ बाँध देती है | यह बुद्धि के रुग्ण हो जाने का परिचायक है | रुग्ण बुद्धि शरीर को भी रुग्ण बना देती है | इसलिए शरीर और मस्तिष्क दोनों का स्वस्थ होना आवश्यक है, सुख प्राप्त करने के लिए |
              हमारा मस्तिष्क जब सांसारिकता में रम जाता है, तब वह परमात्मा से दूर होता चला जाता है | सत्संग के प्रभाव से यह परिवर्तित होकर जब परमात्मा की और उन्मुख हो जाता है, तब वह संसार के बंधनों से छूट जाता है | जिस प्रकार बिना जल के तालाब, तालाब नहीं रह जाता है, वैसे ही सत्संग के द्वारा ज्ञान को उपलब्ध हो जाने पर संसार नहीं रहता | हमारा धन हमारे परिवार को एक साथ बांधे रखता है | ज्योंही धन समाप्त हो चलता है, परिवार भी बिखरने लगता है | शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि इस बात का मनुष्य को ज्ञान हो जाने पर वह स्वयं को संसार से अलग कर मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, October 15, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.9(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.9(समापन)-
             संत महात्माओं का संग कैसे हमें जीवन मुक्त कर सकता है, इसका एक स्पष्ट समीकरण हमें आदि गुरु शंकराचार्य जी महाराज ने इस श्लोक के माध्यम से दिया है | वे कहते हैं कि सत्संग से संसार के प्रति निःसंगता आ जाती है अर्थात भौतिक रूप से संसार में रहते हुए मानसिक स्तर पर संसार में नहीं रहना | सत्पुरुषों का संग व्यक्ति की स्वयं के बनाये संसार की अवधारणा पर चोट करता है | सम्पूर्ण संसार के अतिरिक्त हमारा सबका अपना-अपना एक निजी संसार भी है | हम अपने ही द्वारा बुने गए इस जाल को संसार कहते हैं और इसके संग जकडे हुए हैं | इस संसार की वास्तविकता से हमारा परिचय सत्संग के माध्यम से ही होता है | ज्योंही हमें संसार की वास्तविकता का ज्ञान होता है, हम उसका साथ छोड़ने लगते हैं | इसी को संसार से निःसंगता कहते हैं | संसार से निःसंगता, हमारा जो मोह इस संसार के प्रति होता है, उसको भंग करने का कार्य करती है | मोह एक प्रकार का भ्रम है, जो सत और असत में, धर्म और अधर्म में भेद नहीं होने देता | मोह के कारण हम असत को सत मान बैठते हैं और अधर्म को धर्म | संसार से निःसंगता हमारे इसी भ्रम को तोड़कर हमें निर्मोही बना देती है |
             निर्मोही होने का अर्थ है, अपने बनाये संसार से अनासक्त हो जाना | निर्मोही हो जाने के बाद स्वयं के बनाये संसार की कोई भी परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती | संत कबीर ने निर्मोही हो जाने को ‘अपना घर फूंकना’ कहा है | संत कबीर कहते हैं –
         कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाटी हाथ |
        जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ ||
           निर्मोही होने पर हम सत्य और धर्म की वास्तविकता से परिचित हो जाते हैं, तब हम जीवन में आने वाले दुःख आदि विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हो सकते | यह संसार और उसमें हमारा मोह ही हमें प्रत्येक विपरीत परिस्थिति में विचलित कर देता है | संसार से असंगतता और निर्मोही होना हमें निश्चलता की ओर ले जाता है | हम प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना सीख जाते हैं | जीवन में सदैव समता में रहना ही जीवन-मुक्त हो जाना है | जीवन-मुक्त हो जाना ही परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है |
तभी शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं कि-
सत्संगत्वेनिःसंगत्वं, निःसंगत्वेनिर्मोहत्वं |
निर्मोहत्वेनिश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन्मुक्तिः ||9||
 अर्थात संत महात्माओं के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं | इससे हमें सुख की प्राप्ति होती है | सब बंधनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं |
||“भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते”||
कल श्लोक सं.10
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, October 14, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.9(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.9(कल से आगे)-
            इस संसार में आकर क्यों बदल जाता है, हमारा स्वभाव और सत्संग से हमें हमारे स्वरूप का परिचय कैसे हो जाता है ? आइये ! यह जानने का प्रयास करते हैं | स्वभाव बनता है, हमारे चारों और उपस्थित वातावरण से | वातावरण परिवर्तित करना मनुष्य के स्वयं के हाथ में है | आप एक शेर है, एक भेड़ नहीं | यह एक शेर को तभी समझ में आ सकता है, जब उसे किसी अन्य शेर का सानिध्य प्राप्त हो | जिसको ऐसा सानिध्य नहीं मिलता वह शेर होते हुए भी जीवन भर एक भेड़ ही बना रहता है | हम परमात्मा के अंश है परन्तु भौतिक संसार में आकर आसक्ति, मोह, ममता आदि के जाल में फंसकर बंधनों में जकड़े गए हैं | यह बंधन व्यक्ति को परमात्मा से दूर कर स्वयं के एक शरीर होने का आभास देता है | जबकि वास्तविकता यह है कि हम शरीर नहीं है | इस बात का ज्ञान होने के लिए सत्संग मिलना आवश्यक है |
             आदि शंकराचार्य यही बात इस श्लोक में कह रहे हैं | जब हम संत- महात्माओं के साथ उठते बैठते हैं तब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि इतने दिनों तक हम झूठ ही संसार के बंधन में बंधे हुए थे | हमारा वास्तविक स्वरूप परमात्मा का है | सज्जन पुरुषों के संग से व्यक्ति धीरे-धीरे संसार से असंग होने लगता है | संसार का संग दुखदायी होता है जबकि परमात्मा का संग आनंद प्रदान करता है | सत्संग के प्रभाव से व्यक्ति मुक्त होने लगता है और उसे एक प्रकार के सुख का अनुभव होने लगता है | ज्योंही वह संसार के समस्त बंधनों से छूटता है, आनंद को उपलब्ध हो जाता है, परमात्मा हो जाता है | हमारा स्वरूप सांसारिक नहीं है, बल्कि हम स्वयं परमात्म स्वरूप हैं | यही परम ज्ञान है और परम-ज्ञान तभी प्राप्त हो सकता है जब हमें सत्संग मिले | जो स्वयं अपने स्वरूप को समझ चुका है, स्वयं को पहचान गया है, केवल ऐसे संत का संग ही हमें संसार से असंग कर सकता है | आध्यात्मिकता के मार्ग पर बढ़ने का प्रथम कदम सत्संग ही है | अतः सत्संग को महत्त्व देते हुए सदैव कुसंग करने से बचें |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||