भज गोविन्दम् –श्लोक
सं.15(समापन)-
यह कहना और मानना एक अर्द्ध सत्य है
कि मनुष्य को जीवन मिला ही इसलिए है कि उसकी पूर्व जन्म में अधूरी रही कामनाएं
पूरी हो सके | पूर्ण सत्य यह है कि जब पूर्वजन्म की अधूरी कामनाओं से यह जीवन अवश्य
मिला है, परन्तु साथ ही इस बात का ध्यान भी रखें कि इस संसार में आवागमन से मुक्त होने
के लिए भी यह मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है | अतः अधूरी रही उन कामनाओं के पूर्ण
होने के बाद नई कामनाओं को जन्म न लेने दें, जिससे हमें पुनर्जन्म से मुक्ति मिल
सके | हम यह तो स्वीकार आराम के साथ कर
लेते हैं कि पूर्व जन्म की अधूरी इच्छाएं इस जीवन में पूरे होनी हैं परन्तु यह
स्वीकार कभी नहीं करते कि हमें इसी जीवन में नई इच्छाओं से भी मुक्त होना है | हम
इस मनुष्य जीवन का एक पक्ष तो देख लेते हैं परन्तु दूसरे पक्ष की अनदेखी कर देते
हैं | यह अनदेखी हमें सांसारिक मोह माया के बंधन में बाँध देती है और जीवन भर उस
बंधन से मुक्त नहीं होने देती |
हमें कामनाओं के विस्तार से मुक्ति पानी होगी |
जो पूर्व जन्म के कर्मों के भोग हमें इस जीवन में मिले हैं, उनको ही भोगकर मुक्त
हो जाना है | शरीर तो एक दिन जर्जर होना ही है, प्राण भी धीरे-धीरे निर्बल पड़ते
जाने हैं | अगर नई कामनाएं मन में पैदा होकर पूर्ण होने से रह गयी तो हमारा यह
शरीर तो छूट जायेगा परन्तु फिर किसी अन्य शरीर को प्राप्त करना होगा | जर्जर शरीर
और उखड़ते प्राण उन्हीं कामनाओं का मन से चिंतन करते रहेंगे, जो इस जीवन में हमने
पाली है | इस प्रकार हम इस सांसारिक मोह-माया से स्वयं को छुड़ाने में असमर्थ हो जायेंगे
| संत कबीर इसी माया के बारे में कहते हैं कि –
माया-माया सब कहे,
माया लखे न कोय |
जो मन से निकले,
जानिए माया सोय ||
मन से न निकले कारण ही इस मोह-माया के बंधन में
व्यक्ति बंध कर रह जाता है और अंत समय में भी इससे अपने आपको छुड़ाने में असमर्थ
पाता है | इसीलिए शंकराचार्य महाराज का यह शिष्य कहता है कि -
अड़गं गलितं पलितं मुण्डं
दशन विहीनं जातंतुण्डम् |
वृद्धो याति गृहीत्वा
दण्डं, तदपि न मुंचतिआशापिण्डम् ||15||
अर्थात क्षीण अंगों,
पके हुए बालों, दंत-विहीन मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश में
बंधा रहता है |
जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है,
जिसके शरीर में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक
कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में
असमर्थ रहा है |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं. - 16
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||