मन्मना भव मद्भक्तो –
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भक्ति में बाधक –
भक्ति के अंतर्गत महत्वपूर्ण बात
यह है कि पूर्व जन्म के कर्मों और संस्कार से व्यक्ति भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होता
है | परन्तु कुछ ऐसे बाधक तत्व हैं, जो उसको भक्ति-मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकने का
प्रयास करते हैं | व्यक्ति को चाहिए कि इन बाधक तत्वों से सावधान रहे अन्यथा
पूर्वजन्म में कमाए संस्कार नष्ट हो सकते हैं और व्यक्ति पुनः अपने संसार में लौट
सकता है | इन बाधक तत्वों को इंगित करते हुए गोस्वामी तुलसी दासजी कहते हैं -
सुख सम्पति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊ
सेवकाई ||
ये सब रामभक्ति के बाधक | कहहिं संत तव पद
अवराधक ||
संसार के सभी सुख लेना,
धन-सम्पति, परिवार पुत्रादि, पद, मान-सम्मान और बड़ाई, ये सभी भक्ति में बाधक है |
इन सभी का त्याग करते हुए संसार की केवल सेवा ही करनी चाहिए तभी उपरोक्त बाधाएं
दूर हो सकती हैं | संत जन कहते हैं कि इन सब राम-भक्ति में आने वाली बाधाओं का
उल्लंघन करें और संसार को केवल सेवा का साधन मात्र समझें, इसमें मोह और आसक्ति रख
कर उलझें नहीं |
आधुनिक काल में जैसा वातावरण संसार में बना
हुआ है, वैसे वातावरण में घर पर रहते हुए साधना करना सरल कार्य नहीं है |
पूर्वजन्म के संस्कार के फलस्वरूप अगर युवावस्था में जरा सी भी परमात्मा के प्रति
अनुरक्ति पैदा हो, तो तुरंत ही गृह त्याग कर देना चाहिए | मेरा मानना है कि
घर-परिवार वालों के कहे अनुसार किसी अनुकूल समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए | यह
हमारा संसार स्वनिर्मित है और इसमें कभी भी अनुकूल समय आएगा ही नहीं | मैंने इस
संसार में सदैव प्रतिकूलता ही देखी है | बहुत ही कम ऐसे भाग्यशाली परिवार होते
हैं, जिसमें पति-पत्नी दोनों ही साधक हों | ऐसा परिवार कहीं है तो वह धन्य ही होगा
| वे घर में रहकर भी सदैव विरक्त ही रहते है और भक्ति के लिए उन्हें गृह त्याग की
आवश्यकता नहीं है |
फिर भी जो घर में रहकर ही भक्ति
करना चाहते हैं उनको चाहिए कि वे भक्ति में बाधक तत्वों से सावधान रहें | जीवन में
परिश्रम कर शास्त्रोक्त कर्म करते हुए प्रारब्ध स्वरूप मिली धन-सम्पति में से बचत कर
इतनी एकत्रित कर लें कि शेष जीवन में भक्ति में रत होते हुए किसी के सामने हाथ
फैलाना न पड़े | दूसरे, जब तक माता-पिता जीवित हैं, तब तक उनकी सेवा-सुश्रुषा करें
और उनके देवलोक गमन करते ही गृह त्याग दें अथवा भक्ति में और अधिक लीन हो जाएँ | हरिः
शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते है कि भक्ति में लगन
का बहुत अधिक महत्त्व है | लगन ही हमें परमात्म-तत्व की प्राप्ति करवाती है | तीसरा
और अंतिम सुझाव है कि अगर अविवाहित हैं तो किसी भक्ति भाव वाली कन्या से विवाह
करें अन्यथा अविवाहित ही रहें | अगर विवाहित हैं तो अपनी धर्मपत्नी को अपने भक्ति
भाव के अनुकूल बनाने का प्रयास करें | अगर यह प्रयास भी विफल हो जाये तो उसके शेष
जीवन के लिए कोई उचित व्यवस्था कर दें और उसकी किसी अनुचित बात को स्वीकार न करें
| यह मनुष्य जीवन अल्प अवधि के लिए ही मिला है, उसको व्यर्थ की बातों में आकर वृथा
न जाने दें |
कल समापन कड़ी ---
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||