Wednesday, May 31, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 27

मन्मना भव मद्भक्तो – 27
 भक्ति में बाधक –
              भक्ति के अंतर्गत महत्वपूर्ण बात यह है कि पूर्व जन्म के कर्मों और संस्कार से व्यक्ति भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होता है | परन्तु कुछ ऐसे बाधक तत्व हैं, जो उसको भक्ति-मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास करते हैं | व्यक्ति को चाहिए कि इन बाधक तत्वों से सावधान रहे अन्यथा पूर्वजन्म में कमाए संस्कार नष्ट हो सकते हैं और व्यक्ति पुनः अपने संसार में लौट सकता है | इन बाधक तत्वों को इंगित करते हुए गोस्वामी तुलसी दासजी कहते हैं - 
      सुख सम्पति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊ सेवकाई ||
      ये सब रामभक्ति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||
                   संसार के सभी सुख लेना, धन-सम्पति, परिवार पुत्रादि, पद, मान-सम्मान और बड़ाई, ये सभी भक्ति में बाधक है | इन सभी का त्याग करते हुए संसार की केवल सेवा ही करनी चाहिए तभी उपरोक्त बाधाएं दूर हो सकती हैं | संत जन कहते हैं कि इन सब राम-भक्ति में आने वाली बाधाओं का उल्लंघन करें और संसार को केवल सेवा का साधन मात्र समझें, इसमें मोह और आसक्ति रख कर उलझें नहीं |
      आधुनिक काल में जैसा वातावरण संसार में बना हुआ है, वैसे वातावरण में घर पर रहते हुए साधना करना सरल कार्य नहीं है | पूर्वजन्म के संस्कार के फलस्वरूप अगर युवावस्था में जरा सी भी परमात्मा के प्रति अनुरक्ति पैदा हो, तो तुरंत ही गृह त्याग कर देना चाहिए | मेरा मानना है कि घर-परिवार वालों के कहे अनुसार किसी अनुकूल समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए | यह हमारा संसार स्वनिर्मित है और इसमें कभी भी अनुकूल समय आएगा ही नहीं | मैंने इस संसार में सदैव प्रतिकूलता ही देखी है | बहुत ही कम ऐसे भाग्यशाली परिवार होते हैं, जिसमें पति-पत्नी दोनों ही साधक हों | ऐसा परिवार कहीं है तो वह धन्य ही होगा | वे घर में रहकर भी सदैव विरक्त ही रहते है और भक्ति के लिए उन्हें गृह त्याग की आवश्यकता नहीं है |
                 फिर भी जो घर में रहकर ही भक्ति करना चाहते हैं उनको चाहिए कि वे भक्ति में बाधक तत्वों से सावधान रहें | जीवन में परिश्रम कर शास्त्रोक्त कर्म करते हुए प्रारब्ध स्वरूप मिली धन-सम्पति में से बचत कर इतनी एकत्रित कर लें कि शेष जीवन में भक्ति में रत होते हुए किसी के सामने हाथ फैलाना न पड़े | दूसरे, जब तक माता-पिता जीवित हैं, तब तक उनकी सेवा-सुश्रुषा करें और उनके देवलोक गमन करते ही गृह त्याग दें अथवा भक्ति में और अधिक लीन हो जाएँ | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते है कि भक्ति में लगन का बहुत अधिक महत्त्व है | लगन ही हमें परमात्म-तत्व की प्राप्ति करवाती है | तीसरा और अंतिम सुझाव है कि अगर अविवाहित हैं तो किसी भक्ति भाव वाली कन्या से विवाह करें अन्यथा अविवाहित ही रहें | अगर विवाहित हैं तो अपनी धर्मपत्नी को अपने भक्ति भाव के अनुकूल बनाने का प्रयास करें | अगर यह प्रयास भी विफल हो जाये तो उसके शेष जीवन के लिए कोई उचित व्यवस्था कर दें और उसकी किसी अनुचित बात को स्वीकार न करें | यह मनुष्य जीवन अल्प अवधि के लिए ही मिला है, उसको व्यर्थ की बातों में आकर वृथा न जाने दें |
कल समापन कड़ी ---
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, May 30, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 26

मन्मना भव मद्भक्तो – 26
      जब मनुष्य अपने जीवन काल में ही ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है तब वह ब्रह्म भूत कहलाता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण ब्रह्म भूत की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं -
   ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति |
       समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||गीता-18/54||
अर्थात ब्रह्म भूत यानि सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित प्रसन्न चित्त वह योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है | ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है |
             ब्रह्म भूत की विशेषता है कि एक तो वह सदैव प्रसन्न रहता है | उसे संसार की कोई और किसी भी प्रकार की परिस्थिति विचलित नहीं कर सकती | दूसरे, किसी के लिए वह न तो शोक करता है और न ही किसी वस्तु की आकांक्षा ही करता है | वह अपने आप में ही संतुष्ट रहता है | उसके लिए संसार के सभी प्राणी समान होते हैं | वह न तो किसी को अधिक महत्वपूर्ण समझता है और न ही किसी को महत्वहीन | परमात्मा कहते हैं कि ऐसा योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है | पराभक्ति भक्ति कि सर्वोच्च अवस्था को कहते हैं जिस अवस्था तक पहुँचने पर भक्त को सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है, फिर जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता है | इस अवस्था में आकर भक्त समस्त कर्मों और गुणों से परे हो जाता है अर्थात गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो जाता है | कुछ कर्म करने अथवा न करने से उसको कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है | इसी अवस्था को परम सिद्ध हो जाना भी कहते हैं |
               इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भक्ति का उद्देश्य केवल एक ही होना चाहिए, और वह लक्ष्य है, परमात्मा के साथ योग | भक्ति के विभिन्न साधन श्रवण से लेकर आत्म-निवेदन तक पहुंचना ही हमारा ध्येय होना चाहिए | केवल तीर्थ-यात्रा, मूर्तिपूजा आदि पर आकर नहीं अटक जाना चाहिए | कथा-श्रवण, पूजन, अर्चन आदि सबका अपने-अपने स्थान पर महत्त्व है परन्तु इनमें से किसी एक पर आकर रूक जाना आपको पराभक्ति से वंचित कर सकता है | अतः व्यक्ति को भक्ति-मार्ग पर चलते हुए निरंतर प्रगति करते रहना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, May 29, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 25

मन्मना भव मद्भक्तो – 25
           गीता के मध्य से प्रारम्भ हुई बात ‘मन्मना भव मद्भक्तो...’ अंतिम अध्याय के अंतिम पड़ाव तक खींचती चली जाती है | इससे स्पष्ट होता है कि भक्ति-मार्ग चाहे कितना ही सरल क्यों न हो, उस पर यात्रा प्रारम्भ करना बहुत ही कठिन है | 10 वें अध्याय से प्रारम्भ हुआ भक्ति-ज्ञान 18 वें अध्याय के अंतिम चरण तक अनवरत चलता रहा | फिर भी अर्जुन को भक्त होने के लिए श्री कृष्ण को पुनः कहना पड़ा |
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोSसि मे ||गीता-18/65||
अर्थात हे अर्जुन ! तू मुझमें मन लगाने वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर | ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, मैं यह तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है |
               यह श्लोक 9 वें अध्याय के अंतिम श्लोक की पुनरुक्ति है | अंतर सिर्फ इतना है कि इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विश्वास दिलाते हैं कि तू मेरे को अत्यंत प्रिय है क्योंकि मुझसे अतिशय प्रेम करता है | इसी प्रेम के वशीभूत होकर भगवान अर्जुन से सत्य प्रतिज्ञा भी कर लेते हैं | वास्तव में देखा जाये तो भक्ति प्रेम की पूर्णता भी इसी में है | गीता का गंभीरता से अध्ययन करने पर पाएंगे कि अर्जुन में सभी नौ भक्ति थी, तभी परमात्मा ने उसको अपना अत्यंत प्रिय बताया है | भक्ति को उपलब्ध हुआ व्यक्ति भक्त हो जाता है, फिर उसको भगवान से अलग कोई कर ही नहीं सकता | अर्जुन एक आदर्श भक्त था या नहीं, इसका भी अलग प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु जब स्वयं भगवान ने कहा है कि अर्जुन उन्हें अत्यंत प्रिय है, तो फिर अर्जुन के भक्त होने में किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता है | भक्ति से भगवान के साथ एकाकार होना ही भक्त का लक्ष्य होना चाहिए | भक्ति की पूर्णता इसी में है, जब भक्त और भगवान दो न रहते हुए केवल भगवान ही रह जायें | ऐसी भक्ति ही व्यक्ति के लिए सार्थक हैं अन्यथा भक्ति-मार्ग पर चलते हुए मध्य में आकर ठहर जाना आपको परमात्मा के साथ एकाकार नहीं कर सकता | जब भक्त अपने जीवन काल में परमात्मा को पा लेता है तब वह जीवनमुक्त कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, May 28, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 24

मन्मना भव मद्भक्तो – 24
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज इस प्रकार की द्वन्द्व से भरी भक्ति के बारे में कहा करते थे -
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ||
    जिस प्रकार धोबी का कुत्ता धोबी के घर और नदी के घाट के बीच केवल चक्कर ही काटता रहता है, कहीं पहुँच नहीं पाता, ठीक उसी प्रकार भक्ति के बारे में द्वन्द्व ग्रस्त मनुष्य की हालत होती है | वह सब कुछ निरुद्देश्य ही करता रहता है । अतः यह सत्य है कि भक्ति में द्वन्द्व का कोई स्थान नहीं है | अनन्य-भक्ति को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ||गीता-11/55||
    अर्थात हे पाण्डव ! जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्तव्य कर्म करता है, मेरा आसक्ति रहित भक्त है और सम्पूर्ण प्राणियों में वैर भाव से रहित है, वह अनन्य भक्ति से युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |
      इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति को कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए, उनको त्यागना नहीं चाहिए, परन्तु वे सभी कर्म एक परमात्मा के लिए ही होने चाहिए | कर्मों और कर्मफल में किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं रखनी चाहिए | आसक्ति चाहे कर्म में हो, कर्मफल में हो अथवा परिवार, व्यक्ति अथवा अन्य किसी में भी, समस्त आसक्तियां व्यक्ति के लिए परमात्मा की भक्ति में बाधक हैं | तीसरी और अतिमहत्वपूर्ण बात कहते हैं कि सभी प्राणियों में किसी भी प्रकार का वैर भाव न रखें | वैर भाव मन को स्थिर नहीं होने देता और अस्थिर मन भक्ति में बाधक है | इस संसार में हमारे शरीर पानी में उठ रहे बुलबुले के समान हैं, कोई एक बुलबुला छोटा हो सकता है, कोई एक बड़ा | परन्तु हम सभी प्राणियों के शरीर हैं तो एक समान | फिर किससे तो वैर रखना और क्यूँ कर रखना | सभी उसी परमात्मा के अंश हैं | हाँ, हम ही भ्रमित हो गए हैं और सभी शरीरों को एक दूसरे से अलग मान बैठे हैं | आज का हमारा यह मानव शरीर किसी अन्य प्राणी के शरीर में बदल सकता है परन्तु इस शरीर को प्राप्त करने वाला कभी भी नहीं बदलता | इस अपरिवर्तनशील तत्व को सदैव स्मृति में रखेंगे, तो किसी भी प्राणी से कभी वैर भाव उत्पन्न ही नहीं होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, May 27, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 23

मन्मना भव मद्भक्तो – 23
        हमें परमात्मा कि भक्ति क्यों और किस प्रकार करनी चाहिए ? सांसारिक कार्यों के लिए भी हम किसी न किसी व्यक्ति से एक सीमा से अधिक जुड़ते हैं और उनसे अपने कार्य के लिए सम्बन्ध जोड़ते हैं | ऐसा अस्थाई सम्बन्ध हमें सांसारिक लाभ तो दिला सकता है परन्तु अध्यात्मिक लाभ नहीं | हमारा परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध है | एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य से सम्बन्ध हमें सांसारिकता में धकेलता है, जो कि हमारे सुख-दुःख का कारण बनता है | परमात्मा से सम्बन्ध आनन्द और परमशान्ति की प्राप्ति कराता है | अतः भक्ति अगर करनी ही हो तो केवल और केवल परमात्मा की ही करनी चाहिए | ऐसी भक्ति को अनन्य भक्ति कहा जाता है | फिर जब भक्त बनना ही है तो किसी व्यक्ति का न बनकर एक परमात्मा का ही क्यों न बनें | अनन्य-भक्ति के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ||गीता-11/54||
अर्थात हे अर्जुन ! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं इस प्रकार प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए भी शक्य हूँ |
          परमात्मा की अनन्य-भक्ति में रत रहने से आप परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन भी कर सकते हैं, ज्ञान प्राप्त कर उसे तात्त्विक रूप से जान भी सकते हैं तथा ऐसी भक्ति की उच्चावस्था पर पहुंचकर परमात्मा में प्रवेश कर उसके साथ एकाकार भी हो सकते हैं | दर्शन, तात्विक-ज्ञान और परमात्मा में प्रवेश, केवल अनन्य भक्ति के कारण ही हो सकते हैं, संशयग्रस्त भक्ति करके नहीं, हेतुकी भक्ति से नहीं | इन तीनों ही लक्ष्यों को साधने के लिए अनन्य-भक्ति होनी चाहिए, अहेतुकी-भक्ति होनी चाहिए | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी अनन्य-भक्ति को स्पष्ट करते हुए कहा करते थे कि इसके लिए परमात्मा में परम श्रद्धा का होना आवश्यक है | सदैव परमात्मा को कहते रहें कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूं नहीं |’ परमात्मा में इस प्रकार की श्रद्धा और विश्वास अनन्य-भक्ति के लिए प्रथम आवश्यकता है | भक्ति में द्वंद्व का कोई स्थान नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, May 26, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 22

मन्मना भव मद्भक्तो – 22
              व्यक्ति भी परमात्म स्वरूप है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए | व्यक्ति में जब मन की प्रमुखता होती है, तभी वह स्वयं को इस संसार में जन्म लेकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानता है | वास्तव में देखा जाये तो जन्म-मरण और पुनर्जन्म कहीं है ही नहीं | सब हमारे मन की कल्पना मात्र है | शरीर बदल लेने की प्रक्रिया को न तो मरण कहा जा सकता है और न ही जन्म | जब जन्म-मरण नहीं है, तो फिर पुनर्जन्म भी नहीं होता | जन्मता और मरता केवल भौतिक शरीर है और यह एक सत्य है कि हम शरीर नहीं है | इस प्रकार हमारा भी स्वरूप भी परमात्मा की तरह सच्चिदानंद ही हुआ | अगर परमात्मा भी व्यक्ति भाव को प्राप्त नहीं होते तो फिर हम भी व्यक्ति भाव को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? यह सब कल्पना और मन का खेल है | इस खेल का अनुभव हमें तभी हो पाता है, जब हम परमात्मा के साथ भक्त हो जाते है | जब तक हममें व्यक्ति भाव बना रहेगा, तब तक हम सदैव विभक्त ही बने रहेंगे |
               हमारे भीतर पैदा हुआ व्यक्ति भाव हमें परमात्मा से अलग कर देता है | व्यक्त मनुष्य और अव्यक्त परमात्मा | इससे बड़ी और अधिक विडम्बना क्या होगी कि जिसने भौतिक शरीर बनाया है, वह शरीर में प्रवेश कर अपने को विस्मृत कर दिया है और स्वयं को शरीर मान बैठा है | आप जब किसी दूसरे शहर अथवा अन्य किसी स्थान पर कुछ समय के लिए जाते हैं और अस्थाई रूप से किसी धर्मशाला अथवा विश्राम गृह में ठहरते हैं, तो क्या आप उस स्थान को ही अपना घर समझ लेते हैं ? नहीं न, तो फिर इस भौतिक शरीर रुपी अस्थायी निवास में आकर इसे अपना क्यों समझ बैठे हैं ? केवल अपना ही नहीं बल्कि स्वयं को ही शरीर मान बैठे हैं |
          भक्ति-मार्ग आपको आत्म-बोध कराता है, आपका स्वयं से परिचय कराता है, आपकी स्मृति को वापिस लाकर | आप क्या हैं और क्या मान बैठे हैं, इस बात को स्पष्ट करती है, भक्ति | ज्ञान और कर्म इस कार्य में भक्ति के सहयोगी होते हैं | जब भक्ति-मार्ग पर चलना प्रारम्भ करते हैं, तभी आपको अपने कर्म और ज्ञान का सही और उचित उपयोग करना ज्ञात होता है |  
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, May 25, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 21

मन्मना भव मद्भक्तो – 21  
         वास्तव में देखा जाये तो मन चाहे कल्पना ही हो परन्तु है यह भी परमात्मा की ही एक कल्पना | परमात्मा अपने आनन्द के लिए एक से अनेक में विभक्त हुए | यह विचार सर्वप्रथम उनके मन में ही आया | उनका मन तो अमन है, ऐसे में वे कभी भी विचलित नहीं होते बल्कि सदैव आनंदमय ही बने रहते हैं | इसी कारण से उन्हें सच्चिदानन्दघन कहा गया है | अपने आनन्द के लिए वे प्रकृति और पुरुष के रूप में विभक्त होकर व्यक्त हुए | एक परमात्मा ही प्रकृति और पुरुष दोनों है, हमें सांसारिक दृष्टि से वे दो में विभक्त हुए प्रतीत होते है परन्तु वास्तविकता में वे दो न होकर एक ही हैं | वे जन्म-मरण से मुक्त हैं परन्तु हमारे संसार की दृष्टि से हम इन्हें भी जन्मने और मरने वाला मान बैठे हैं | यह विभाजन हमारी दृष्टि का ही भेद है, वास्तव में कोई भेद है नहीं | यह भेद सांसारिक मन के कारण है, परमात्मा में लगे मन के अनुसार कोई भेद नहीं है | इस बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण एक स्थान पर अर्जुन को कहते भी है |
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः |
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् || गीता-7/24||
अर्थात बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्म लेकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं |
           गीता के इस श्लोक के अनुसार परमात्मा मन और इन्द्रियों से परे हैं | जो मन परमात्मा में लगा हुआ है वह परमात्म स्वरूप ही होकर अमन हो जाता है | जब मन व्यक्ति और संसार के साथ होता है, वह विस्तार पाकर इन्द्रियों के रूप में व्यक्त होकर विभिन्न प्रकार के सुख-दुःख का कारण बनता है | विभिन्न इन्द्रियां और यह भौतिक शरीर मन का ही विस्तार है, जैसा कि स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि हमारा यह शरीर मन की ही छाया है | इसी कारण से आत्मा और शरीर को आपस में मन ही जोड़ता है | हम शारीरिक सुख के वशीभूत हो जाते है, तब इस भौतिक शरीर और इन्द्रियों का मन पर प्रभुत्व आत्मा कि तुलना में अधिक हो जाता है | इस प्रकार शरीर के प्रभुत्व वाला मन ही अस्थिर रहता है | जब आत्मा का मन पर प्रभुत्व हो जाता है, तब यही मन स्थिर होकर अमन हो जाता है | अतः आवश्यक है कि मन को शरीर और संसार से विमुख करते हुए परमात्मा की ओर करें और इस कार्य को करने के लिए भक्ति-मार्ग ही श्रेष्ठतम मार्ग है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, May 24, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 20

मन्मना भव मद्भक्तो – 20  
        हमारा मन ही हमें बांधता है और यह मन ही हमें मुक्त करता है | अब हमारे सम्मुख एक ही प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर यह मन है क्या ? न तो यह दिखाई देता है और न ही इसको महसूस किया जा सकता है | हम केवल कहते रहते हैं कि मन आज यह कह रहा है, मन आज उदास है, काम में आज मन नहीं लग रहा है, बाहर जाने का मन कर रहा है आदि | वास्तव में देखा जाये तो मन कहीं है ही नहीं | मन हमारे शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कोरी कल्पना है, एक कल्पनाजन्य कड़ी है | कल्पना के अतिरिक्त यह कुछ है भी नहीं | जिस दिन हमने अपने मन को समाप्त कर दिया, हमारा यह संसार, मोह, लोभ, राग, द्वेष, क्रोध आदि सभी विकार ध्वस्त हो जायेंगे | सभी विकार मन के कारण ही संभव है | इसीलिए मन नामक कल्पना को हमारी बुद्धि से निकाल देना ही मन से अमन हो जाना है | मन से अमन हो जाना ही मन को परमात्मा में लगा देना है | परमात्मा में लगा मन वास्तव में अमन है, जो कि हमें परम शान्ति को उपलब्ध कराता है जबकि शरीर में लगा मन अस्थिर और हलचल भरा होता है, जो कि अशांति की ओर ले जाता है | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे और उनकी यह बात स्वर्गाश्रम गीता भवन नं.3 में दीवार पर एक जगह लिखी हुई भी है कि –
बात बड़ी है अटपटी, झटपट लखे न कोय |
जो मन की खटपट मिटे, चटपट दर्शन होय ||
      मन की खटपट मिटाने से तात्पर्य मन को अमन करना है, उसे परमात्मा में लगा देना है | परमात्मा में लगा मन कभी उद्वेलित नहीं होता | परमात्मा में मन लगाने पर भी भक्ति से भक्त बना जा सकता है | गीता में भक्ति योग अध्याय में इसी प्रकार के भक्त के लक्षण और गुण वर्णित किये गए हैं | इन लक्षणों से युक्त व्यक्ति ही भक्त कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, May 23, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 19

मन्मना भव मद्भक्तो – 19
            मन का निग्रह करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है | ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में दृढ़ता नहीं रहती है, इसलिए मन इधर उधर भटकता रहता है | इस मन के विक्षेप को दूर करने के लिए ध्यान में जाने के लिए नेत्र बंद कर सकते हैं परन्तु कुछ समय उपरांत खुले नेत्रों से ध्यान में जाने का प्रयास करना चाहिए | शोरगुल की परिस्थिति में भी मन को साम्यावस्था में रखना चाहिए तभी आपमें पूर्णता आएगी | ध्यानस्थ होकर दृढ़ता से सोचें कि संसार असत्य है, वह है ही नहीं, केवल आत्मा ही है | यदि आप आँखें खोलकर भी आत्मा का ध्यान कर सकते हैं तो आप बलवान हो जायेंगे और मन का निग्रह करने में आपको किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होगी |
           मन और इन्द्रियों का निग्रह बिना ज्ञान के हो नहीं सकता | ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ही मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने का विचार उत्पन्न होता है | ज्ञान से इन्द्रियों और मन का निग्रह करने की भावना पैदा होती है और फिर ध्यान से ऐसा करना संभव हो पाता है | एक बार संसार से ध्यान हटा कि ब्रह्म से एकाकार होने का आधार तैयार हो जाता है | मन को परमात्मा में लगाना ध्यान के अभ्यास से ही संभव है | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ||गीता-12/9||
अर्थात हे धनंजय ! यदि तू मन में अचल स्थापन करने में असमर्थ है तो इसको मुझमें लगाने का अभ्यास करते हुए मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर |
     मन को परमात्मा में लगाने के अभ्यास के अंतर्गत भक्ति के सभी नौ अंग आ जाते हैं जिनमें श्रवण, मनन, कीर्तन, अर्चना, जप आदि प्रमुख हैं | इस प्रकार की क्रियाओं को बार-बार दोहराते रहने को ही अभ्यास कहते हैं | बार-बार दोहराते रहने से अर्थात अभ्यास से मन को परमात्मा में लगाने की प्रक्रिया को गति मिलती रहती है | सतत अभ्यास से ध्यान की अवस्था बन जाती है, जो व्यक्ति का संसार से लगाव समाप्त करते हुए आत्म-बोध की ओर को ले जाती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, May 22, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 18

मन्मना भव मद्भक्तो – 18
              ‘मन्मना’ अर्थात तू अपने मन को मुझमें लगा | परमात्मा में मन लगाने का अर्थ है, अपने मन को अमन बना लो अर्थात मन होते हुए भी मन नहीं होना लगे | मन वह है जो सांसारिकता में रमता है | परमात्मा में लग जाने वाला मन स्वतः ही अमन हो जाता है और वह व्यक्ति तुरंत ही परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, अमन यानि शांति | मन को अमन बनाना बड़ा ही मुश्किल कार्य है | गीता के भक्ति योग नामक अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए निर्देशित करते हुए कहते हैं कि –
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || गीता-12/8||
अर्थात मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है |
              मन को परमात्मा में लगा देने से संसार ओझल हो जाता है और सत के दर्शन हो जाते हैं | परन्तु मनुष्य के लिए इतना आसान नहीं है, संसार को विस्मृत कर देना | बुद्धि में संसार संचित रहता है और मन के द्वारा उस संसार को बुद्धि के द्वारा बार-बार स्मृति में लाया जाता रहता है | संसार का इस भौतिक शरीर से सम्बन्ध है | मनुष्य के मन पर प्रायः शरीर का ही प्रभुत्व अधिक होता है | स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि जिनका मन परिपक्व नहीं होता उनका मन सदैव ही अन्नमय-कोष में रहता है | अपने विज्ञानमय-कोष अर्थात बुद्धि में वृद्धि करें और इसके द्वारा मनोमय-कोष अर्थात मन का निग्रह करें | विज्ञानमय-कोष की वृद्धि और पुष्टि गूढ़ विचार और तर्क द्वारा होती है |  मन का संयम करने से शरीर का पूर्ण संयम भी स्वतः ही हो जाता है | हमारा शरीर मन की ही छाया है | शरीर मन का ही सांचा है, जिसके माध्यम से मन अपने आपको व्यक्त करता है | जब आप मन को जीत लेते हैं तब शरीर आपका दास हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, May 21, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 17

मन्मना भव मद्भक्तो – 17
       कर्म और ज्ञान के बाद भी परमात्मा को पाने के लिए भक्ति पर आना आवश्यक है | कर्म कुछ किये हुए का अहंकार पैदा करता है, कर्तापन के कारण, जबकि ज्ञान बहुत कुछ जान लेने का अहंकार पैदा करता है | भक्ति में न तो कुछ जानना होता है और न ही कुछ करना, केवल मानना होता है, परमात्मा के अस्तित्व को मानकर स्वीकार करना होता है | जिस दिन आपने ज्ञान और कर्म-योग के साथ-साथ परमात्मा को मान लिया, बिना किसी देरी के आप भक्ति को उपलब्ध हो गए हो | इसीलिए एक कर्म योगी को भी भक्त होना आवश्यक है और एक ज्ञानी को भी | भगवान श्री कृष्ण गीता में कर्म और ज्ञान का वर्णन करने के बाद  पर अर्जुन को स्पष्ट रूप से भक्त होने का कह देते हैं |
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ||गीता-9/34||
अर्थात मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर | इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा | यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के मध्य में कहा गया है | यह गीता के 9 वें अध्याय का अंतिम श्लोक है, और गीता में कुल 18 अध्याय है | गीता के पूर्वार्ध समाप्ति तक भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म, ज्ञान, विज्ञान, संन्यास आदि के बारे में शिक्षित करते रहे हैं | ज्ञान के मध्य में वे अर्जुन को भक्त बनने का कह देते हैं | इसका क्या कारण है ?
           कर्म हो, ज्ञान हो अथवा संन्यास, जब तक उसको करने, जानने अथवा होने का उद्देश्य व्यक्ति को मालूम न हो तब तक ये सभी व्यक्ति को भ्रमित ही करते हैं | आज की शिक्षा पद्धति भी इस प्रकार से भ्रमित होने का स्पष्ट उदाहरण है | हमारी युवा पीढ़ी शिक्षा को अपने स्वभावानुसार चयन न करके उपलब्धि के आधार पर अथवा अन्य कई कारणों से चयन कर रहे हैं | जिस किसी बच्चे का स्वभाव सांस्कृतिक गतिविधियों अथवा अन्य विधाओं को प्राप्त करने के अनुसार हो, उसको इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनाने का प्रयास किया जा रहा है | उद्देश्यहीन शिक्षा मनुष्य में भ्रम पैदा करती है और भ्रम के कारण वह दिशाहीन हो जाता है | बच्चे की गतिविधियों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए उसकी रुचि के अनुसार शिक्षा का क्षेत्र चुनना चाहिए, जिससे उसकी संभावनाओं को पर लग सके | अर्जुन युद्ध से पलायन करने की सोच रहा है | ज्ञान और कर्मयोग में से किसी एक का चयन वह नहीं कर पा रहा है | भगवान जानते हैं कि भक्ति ही अर्जुन के लिए सर्वोत्तम मार्ग है क्योंकि भक्ति भय और भ्रम दोनों से ही व्यक्ति को मुक्त कर देती है | कर्म और ज्ञान, यहाँ तक की संन्यास और देवत्व भी भ्रम और भय से मुक्त नहीं है | ऐसे में ज्ञान के बीच रास्ते में ही भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को भक्त होने का कह देते है | अर्जुन को भक्त होने का कहने के बाद भगवान श्री कृष्ण उसे भक्ति के रास्ते पर चलने के लिए आगे के अध्यायों में उसका मार्गदर्शन करते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, May 20, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो - 16

मन्मना भव मद्भक्तो – 16
         भक्ति ही एक ऐसा साधन है, जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का समान अधिकार है | इस कलियुग में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं; क्योंकि ज्ञान, योग, तप, त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकांश ईश्वर-भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सत युग में श्री हरि के रूप में, त्रेता युग में श्रीराम रूप में, द्वापर युग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे, उन प्रेममय नित्य अविनाशी, सर्वव्यापी हरि को ईश्वर समझना चाहिए | महर्षि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग, परा अनुरक्ति [ प्रेम ] ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति-सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृत रूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है | नवधा-भक्ति में जो नौ साधन बताये गए हैं, श्रवण से लेकर आत्म-निवेदन तक; वे सभी सुगमता के साथ प्रत्येक मनुष्य के लिए उपलब्ध है और अल्प प्रयास से अपनाये जा सकते हैं |
           भक्ति के प्रधान दो भेद हैं - एक साधन-रूप (जो कि करण-सापेक्ष है), जिसको वैध और नवधा भक्ति के नाम से भी कहा है और दूसरा साध्य रूप, जिसको प्रेमाभक्ति, प्रेम लक्षणा (जो कि करण-निरपेक्ष है) आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधन रूप है और प्रेम साध्य है | श्रीमद भागवत में प्रह्लादजी ने कहा है ' भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभाव आदि का श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान की चरण-सेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान में दास-भाव, सखा-भाव और अपने को समर्पण कर देना - यह नौ प्रकार की भक्ति है |' इस उपर्युक्त नवधा भक्ति में से एक का भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है; फिर जो नवों का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान करने वाला है, उसके कल्याण में तो कहना ही क्या है ? 
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||