Sunday, April 30, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 20

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 20
            इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि ज्ञान से कर्म-बंधन की जड़ता को त्यागते हुए हम भक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं | दूसरा सीधा रास्ता है, अपने भीतर श्रद्धा रखते हुए भक्ति-मार्ग को पकड़ लिया जाये | कर्म और ज्ञान मार्ग साधन है भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए, जबकि भक्ति एक साधन न होकर स्वयं ही साध्य है | अतः इस मार्ग पर चलने के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि श्रद्धापूर्वक मानने की आवश्यकता है | कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग में कुछ करते हुए परमात्मा को जानने के प्रयास के बाद उसे माना जाता है जबकि भक्ति में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए परमात्मा को माना जाता है | भक्ति-मार्ग पर चलते रहने से व्यक्ति ज्ञान को स्वयंमेव ही उपलब्ध हो जाता है | भक्ति से ज्ञान को उपलब्ध हो जाना और ज्ञान से भक्ति को पा लेना, दोनों ही रास्ते सही हैं, बस ज्ञान से भक्ति को पाने में श्रम की अधिक आवश्यकता होती है और भक्ति से ज्ञान पाने में श्रद्धा की |
               गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में कहा है कि ज्ञान और भक्ति में अधिक भेद नहीं है | वे लिखते हैं –
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा | उभय हरहिं भव संभव खेदा ||मानस-7/115/13||
अर्थात भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है | दोनों ही संसार से उत्पन्न होने वाले क्लेशों को दूर कर देते हैं |
         ज्ञान-मार्ग को भक्ति-मार्ग से कठिन इसलिए बताया जाता है क्योंकि ज्ञान-मार्ग पर चलते रहने के बावजूद भी मनुष्य विषय-भोगों की ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है | यह आकर्षण ज्ञानी को संसार में खींचता रहता है, जिससे वह संसार को आसानी से त्याग नहीं सकता जबकि भक्ति-मार्ग में केवल परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य में आसक्ति रहती ही नहीं है | इसीलिए ज्ञान-मार्ग से भक्ति-मार्ग पर उपलब्धि आसानी से प्राप्त होती है | ज्ञान की सबसे बड़ी कमी एक ही है, वह है अहंकार, सब कुछ जान लेने का अहंकार |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 29, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 19

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 19
               सीधे भक्ति-मार्ग पर निकल पड़ना केवल पूर्वजन्म से साथ आये संस्कार से ही संभव है अन्यथा तो व्यक्ति अपने जीवन का प्रारम्भ सकाम–कर्म करने से ही करता है | भक्ति श्रद्धा का विषय है, जबकि कर्म तथा ज्ञान का कुछ करने से | कर्म-मार्ग से भक्ति-मार्ग पर जाने का रास्ता ज्ञान के द्वारा ही मिलता है अन्यथा व्यक्ति कर्म-बंधन में ही जकड़ा रह जाता है | ज्ञान जब विवेक में परिवर्तित हो जाता है, तब भक्ति-मार्ग को आसानी से पाया जा सकता है | ज्ञान को विवेक में परिवर्तित करने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम है गुरु अर्थात संत, जिसको भक्ति-मार्ग पर चलने का अनुभव है | गोस्वामीजी श्री रामचरितमानस में कहते हैं – ‘बिनु सत्संग विवेक न होई | राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ||’ विवेक को पाने के लिए सत्संग आवश्यक है और सत्संग भी बिना प्रभु-कृपा के मिलना असंभव है |
             अगर भक्ति-मार्ग पर सीधे चलना इतना ही सरल होता तो आज इस संसार में बहुधा लोग इसी मार्ग पर चलते हुए दिखाई पड़ते | हम प्रायः संगीतमय प्रभु-भजन और प्रभु-कथा को सत्संग मान बैठते हैं | ऐसा मानना आंशिक रूप से तो सत्य हो सकता है, परन्तु पूर्ण सत्य नहीं है | यह भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होने की तैयारी भर है, भक्ति मार्ग पर यात्रा का प्रारम्भ नहीं | प्रायः व्यक्ति इसी प्रकार के भजन, पूजन और कथा श्रवण पर ही पहुंचकर अटक जाता है | केवल इस अवस्था पर आकर अटक जाने को मैं दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ | यह तो ऐसा ही हुआ कि आप आकर गाड़ी में तो बैठ गए, परन्तु न तो आपके पास गाड़ी की चाबी है और न ही कोई चालक | केवल गाड़ी में बैठ जाना ही यात्रा प्रारम्भ कर गंतव्य तक पहुँच जाना नहीं है | इसके लिए गाड़ी को चलाने के लिए उस गाड़ी की चाबी और उसको चलाने के लिए चालक, दोनों की आवश्यकता होती है | भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए चाबी है ज्ञान और चालक है गुरु | एक बार गाड़ी के चल पड़ने पर आपको इसे चलाना भी सीखना होगा तभी आप गंतव्य यानि परमात्मा तक पहुँच सकते हो |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, April 28, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 18

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 18
                 ज्ञान जब विवेक में परिवर्तित हो जाता है, तभी वह वास्तव में व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है अन्यथा ज्ञान बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता | ‘ज्ञानं भारः क्रिया बिना’ अर्थात ज्ञान का अगर उपयोग नहीं किया जाये, तो वह बोझ ही है | जब ज्ञान बोझ बन जाता है, वह अज्ञान ही कहलाता है | संसार में प्रवृति अज्ञान है जबकि सत्य को पा लेना ही ज्ञान है | ज्ञान को बोध बनायें, बोझ नहीं |
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: |
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ||गीता-5/16||
अर्थात जिनका अज्ञान परमात्मा के तत्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है |
           व्यक्ति में अज्ञान वह है, जो संसार में सुख खोजता है, ज्ञान वह है जो परमात्मा को पाना चाहता है | सुख असत्य है और दुःख का बीज भी, जबकि सत्य परमात्मा और परम शांति को उपलब्ध होना है | ज्ञान आपको प्रकाशित कर देता है, सत्य से आपका परिचय करा देता है और मुक्त करता है जबकि अज्ञान आपको अन्धकार की ओर धकेल देता है, बंधन में डाल देता है | बंधन अशांति पैदा करता है जबकि मुक्त होना ही परम शांति को उपलब्ध होना है |
          अभी तक किये गए विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान को आत्मसात कर लेने के उपरांत ही कर्मों के स्वरुप को परिवर्तित करते हुए भक्ति को उपलब्ध हुआ जा सकता है | बिना ज्ञान के कर्मों में कुशलता लाना लगभग असंभव है | मनीषियों का कहना है कि ज्ञान मार्ग पर चलकर भी भक्ति को प्राप्त हुआ जा सकता है और भक्ति-मार्ग पर चलकर भी ज्ञान पाया जा सकता है | वे कहते हैं कि ज्ञान-मार्ग से भक्ति-मार्ग अधिक सरल है | मेरा मानना है कि आधुनिक युग में जहाँ शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी हो चुकी है, वहां सीधे भक्ति-मार्ग को पकड़ना जरा अधिक मुश्किल है | ऐसे में ज्ञान-मार्ग को साधन बनाते हुए भक्ति को अधिक शीघ्रता से उपलब्ध हुआ जा सकता है | इस श्रृंखला के प्रारम्भ में मैंने कहा था कि कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग को जोड़ने वाला मार्ग ही ज्ञान-मार्ग है | आइये, अब इस बात पर भी थोडा चिंतन कर लेते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, April 27, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 17

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 17       
           श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्री नरसिंह भक्त प्रह्लाद को कहते हैं – ‘भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं कलेवरं कालजवेन हित्वा |' (भागवत-7/10/13) अर्थात भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल को और कुशलता पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए पाप-कर्मों का नाश कर समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे | श्रीमद्भागवत महापुराण का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पूर्वकृत पुण्य-कर्मों के फलों को तो भोगना ही होगा परन्तु पूर्व में किये गए पाप-कर्मों को कुशलता पूर्वक निष्काम-कर्म करते हुए नष्ट किया जा सकता है | कर्मों को कुशलतापूर्वक करना ज्ञान को आत्मसात करने से ही संभव हो सकता है |
    गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
                ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः |
                युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ||गीता-6/8||
अर्थात जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी तथा स्वर्ण में सम बुद्धि वाला है-ऐसा व्यक्ति योगी कहा जाता है |
             जिसका मन, बुद्धि ज्ञान से ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है उसका अहंकार भी नष्ट हो जाता है | इस प्रकार सम्पूर्ण अंतःकरण तृप्ति को उपलब्ध हो जाता है | ज्ञान जब साधन से साध्य बन जाता है तब वह विज्ञान कहलाता है | जब व्यक्ति का अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से संतृप्त हो जाता है तब उसकी दृष्टि में मिट्टी और सोने में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रह जाता है | भेद न रहने का कारण है कि उसने मन सहित सभी ग्यारह इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिसके कारण उसके भीतर किसी भी प्रकार का विकार जन्म ही नहीं लेता है | ऐसा निर्विकार और जितेन्द्रिय पुरुष योगारूढ़ कहलाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Wednesday, April 26, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 16

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 16
           ज्ञान के द्वारा कर्मों को नष्ट करने का दूसरा रास्ता है, कर्मों के विज्ञान को जान लेना | कर्मों के होने के तरीकों को जान लेने से भी कर्म नष्ट हो जाते हैं | कर्मों का विज्ञान कहता है कि कर्म गुणों के गुणों में क्रिया होने से ही होते हैं, मनुष्य इन क्रियाओं का कर्ता नहीं है | इस बात का ज्ञान हो जाने पर व्यक्ति उन कर्मों को अपने द्वारा किया जाना मानता ही नहीं है | जब कर्म व्यक्ति स्वयं नहीं करता है बल्कि उन्हें गुणों में गुणों की क्रिया द्वारा होना मानता है, ऐसे में उसके द्वारा किया गया कोई भी कर्म अनुचित हो ही नहीं सकता | ऐसे में पूर्व कृत सभी कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में किये जाने वाले कर्मों का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है | इसीलिए गीता में आगे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति || गीता-4/38||
अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है | ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है |
        निष्काम-कर्म करने वाले मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है | यह कर्म-योग है, जिसमें मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर लिया जाता है और यह सब बुद्धि और विवेक के जाग्रत हो जाने से ही संभव है | ज्ञान जब बुद्धि में समा जाता है तब आत्मा के द्वारा उसको विवेक में परिवर्तित कर दिया जाता है | आत्मा कोई बाह्य तत्व नहीं है, बल्कि आप स्वयं ही आत्मा है | स्वयं के द्वारा बुद्धि में ज्ञान को ले लेने के उपरांत आप स्वयं ही उसे विवेक में परिवर्तित कर सकते हैं | इसीलिए कहा जाता है कि विवेक भीतर से जाग्रत होता है जबकि ज्ञान बाहर से प्राप्त किया जाता है | विवेक कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन कर सकता है | इस प्रकार या तो कर्म नष्ट हो जाते हैं अथवा कर्मों का स्वरुप परिवर्तित हो जाता है | दोनों ही परिस्थितियों में व्यक्ति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है | इसीलिए गीता के इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह अन्य कोई नहीं है |  
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Tuesday, April 25, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 15

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 15
           शांति प्राप्त करने का ज्ञान-मार्ग के अनुसार दूसरा तरीका है, कर्मों को करने के बाद उन्हें नष्ट कर देना | प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार का कर्म अवश्य ही करता है परन्तु सभी व्यक्ति अपने कर्मों को नष्ट नहीं कर सकते | कर्मों को नष्ट वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे कर्मों के बारे में ज्ञान प्राप्त हो गया हो | कर्मों के ज्ञान का अर्थ है कर्म के विज्ञान को जानने से, कर्मों के स्वरुप को पहचान लेने से और कर्मों की गति को समझ लेने से | कर्मों को नष्ट कर देना इतना ही सरल होता तो प्रत्येक व्यक्ति विकर्म करके बाद में उन्हें नष्ट कर सकता था | परन्तु इतना आसान नहीं है, इन कर्मों को नष्ट करना | जिसको कर्मों का प्रत्येक कोण से ज्ञान हो गया है वह भविष्य में किसी प्रकार के वर्जित कर्म करता ही नहीं है, केवल ऐसे पुरुष ही कर्मों को नष्ट करने के अधिकारी होते हैं | श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
यथैधांसि समिद्धोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता-4/37||
अर्थात हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञान रुपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |
             धधकती ज्वाला में जो भी वस्तु अग्नि उत्पन्न करने वाली होती है, उसको अगर डाला जाये तो वह भी अग्नि को समर्पित होकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में कर्म का इंधन डालने पर वह भी भस्म हो जाता है | इस श्लोक के अनुसार ज्ञान अग्नि के समान है और कर्म ईंधन के समान | ज्ञान की अग्नि न हो तो कर्म का ईंधन समाप्त नहीं हो सकता | कर्मों को समाप्त करने के लिए ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है | यह ज्ञान कर्मों को किस प्रकार नष्ट करता है, इसके दो रास्ते हैं | एक तो कर्म करने के बाद ज्ञान के द्वारा यह स्वीकार कर लेना कि किया गया कर्म निम्न प्रकृति का था और भविष्य में इसकी पुनरावृति नहीं होगी | ऐसा हो जाने पर पूर्व में किये गए पाप-कर्म भी नष्ट हो जाते हैं | डाकू अंगुलिमाल और रत्नाकर इसके उदाहरण हैं | दोनों को जब इस बात का ज्ञान हो गया था जिससे तत्काल ही अंगुलिमाल तो महान बौद्ध-भिक्षु बन गया था और डाकू रत्नाकर महाकवि वाल्मीकि, जिनकी रचना वाल्मीकि रामायण जग प्रसिद्ध है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Monday, April 24, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 14

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 14
              मनुष्य में सबसे बड़ी कमी है कि वह प्रत्येक कार्य को केवल अपने आपको ही कर्ता मानते हुए करना चाहता है | यह कर्म-मार्ग फल देने वाला होता है, शांति नहीं क्योंकि प्रत्येक कर्म का फल सुख अथवा दुःख के रूप में अवश्य ही मिलता है | जहाँ सुख है वहां दुःख भी होगा | शांति में समता है, वहां किसी भी प्रकार के सुख अथवा दुःख का कोई स्थान नहीं है | इस कर्म-मार्ग पर चलते हुए भी शांति को उपलब्ध हुआ जा सकता है और इस शांति को प्राप्त करने का प्रथम उपाय है, कर्तापन का त्याग करते हुए निष्काम-भाव से कर्म करें, ये निष्काम-कर्म ही अकर्म बनकर शांति प्रदान करते हैं | कर्म-मार्ग में शांति प्राप्त करने का दूसरा उपाय है कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग कर देना | इन दोनों ही प्रकार के उपायों में कर्म महत्वपूर्ण है | कर्म से शांति प्राप्त करने के इन उपायों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है-ज्ञान अर्थात कर्मों से परम शांति को उपलब्ध कराने में ज्ञान का योगदान महत्वपूर्ण है |
            ज्ञान-मार्ग पर चलते हुए भी कर्म करते हुए शांति प्राप्त की जा सकती है | ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए शांति प्राप्त करने के भी दो प्रकार हैं | प्रथम तो ज्ञान के अनुसार कर्म करते रहना तथा दूसरा, ज्ञान प्राप्त कर पूर्व में किये गए कर्मों को नष्ट कर देना | कर्म अगर ज्ञान को ध्यान में रखते हुए किये जाये, तो वे फल नहीं देते हैं अर्थात कर्मफल नहीं देते, इसका अर्थ है कि वे सभी कर्म अकर्म बन जाते हैं |
           कर्म को अकर्म बना देना भी ज्ञान से ही संभव है और कर्मों को नष्ट कर देना भी ज्ञान से ही संभव है | कर्म अकर्म तब बन जाते हैं जब आप उन कर्मों को निष्काम भाव से करते हैं, संसार की सेवा के लिए करते हैं, न कि स्वयं की कामना पूर्ति के लिए | निष्काम-कर्म भी बिना ज्ञान को आत्मसात किये करने संभव नहीं है | इसलिए ज्ञान की भूमिका कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण रहती है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Sunday, April 23, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 13

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 13  
             भौतिक सुख संसार के पदार्थ से जुड़ा है और आध्यात्मिक सुख आत्मा से जुड़ा है | आत्मा अर्थात हमारा संसार से सम्बन्ध नहीं है बल्कि हमारा सम्बन्ध सीधे परमात्मा से है | इसीलिए आध्यात्मिकता हमें परम शांति प्रदान करती है जब कि सांसारिकता केवल इस जड़ शरीर को भौतिक सुख |  हम व्यक्ति हैं अर्थात परमात्मा के व्यक्त रूप | हम शरीर नहीं है, हमारा शरीर मात्र भौतिक पदार्थ है | संसार का सुख शांति नहीं दे सकता, केवल आध्यात्मिकता ही परम शांति प्रदान कर सकती है | अतः हमें सांसारिकता में न फंसते हुए आध्यात्मिक होना चाहिए | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि शारीरिक सुख की कामना ही हमें शांति प्राप्त कराने में में प्रमुख बाधा है |
          इसके बाद शांति प्राप्त होने में बाधक दूसरा कारण है – व्यक्ति की लोभ प्रवृति | व्यक्ति अपने जीवन में जितना मिल जाता है, उससे कभी भी संतुष्ट नहीं होता | उसके मन में और अधिक प्राप्त कर लेने की कामना सदैव बढ़ती रहती है | लोभ चाहे धन-सम्पति का हो, शारीरिक सुख का हो अथवा किसी अन्य का, सभी प्रकार के लोभ व्यक्ति को अशांत ही करते हैं | लोभ व्यक्ति को और अधिक कर्म करने को प्रेरित करता है और प्रत्येक कर्म कर्मफल से अवश्य ही जुडा होता है | कर्म के स्वरुप को अपने लोभवश मनुष्य समझ नहीं पाता और कामनाओं को पूरा करने के लिए वह कर्म के स्तर को गिरा देता है अर्थात कामनाओं को पूरा करने के लिए वह सकाम–कर्म और विकर्म तक करने को तत्पर रहता है |
                      प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए सुख की कामना करता है और जब उसे सुख मिल जाता है तब वह सुख सदैव ही उसे अपर्याप्त लगता है, जिससे उसके भीतर लोभ-वृति पैदा होती है | इससे कामनाओं का विस्तार होता है | अगर एक कामना पूरी हो जाती है, तो उसके भीतर मद (अहंकार) और मोह पैदा हो जाता है और अगर किसी कारण से कामना पूर्ति नहीं हो पाती तो क्रोध पैदा होता है | दोनों ही परिस्थितयां नरक के मार्ग हैं अर्थात अशांत जीवन के आधार है |
     रामचरितमानस में बाबा तुलसी इसको स्पष्ट करते हैं और कहते हैं – ‘काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ’ (5/38) | अतः यह आवश्यक है कि हम अपने मन पर नियंत्रण रखते हुए कामनाओं को जन्म न लेने दें तभी शांति की ओर अग्रसर हो सकते हैं | मन, इन्द्रियों और कामनाओं पर नियंत्रण बुद्धि के द्वारा ही संभव है और बुद्धि से ज्ञान को विवेक बनाकर ऐसा करना संभव बनाया जा सकता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि ज्ञान से भी शांति को प्राप्त कर लेना संभव है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 22, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 12

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 12  
             स्वामी शिवानन्द अपनी पुस्तक ‘मन, रहस्य और निग्रह’ में कहते हैं कि मन कामनाओं के द्वारा बड़ा अनर्थ करता है | जब कोई कामना होती है, तब आप सोचते हैं कि इसकी प्राप्ति से आपको पूर्ण सुख मिल जायेगा | आप उसको प्राप्त करने के लिए दिन-रात प्रयास करते हैं | जैसे ही आपको यह सब मिल जाता है तो थोड़ी सी मिथ्या तुष्टि (Pseudo satiety) होती है | फिर कुछ समय पश्चात् मन अशांत (Disturbed) हो जाता है और इसे नए संवेदन (Sensation) की आवश्यकता होती है | जुगुप्सा (Repulsion or abomination)  तथा असंतोष (Dissatisfaction) का अनुभव होने लगता है | मन को फिर भोग (Enjoyment) के लिए नए पदार्थ चाहिए | इसी कारण से मनीषियों (Intellectuals) ने इस संसार को कल्पना मात्र (Imaginary) कहा है | जहाँ संतुष्टि का अभाव है, वह कल्पना से अधिक कुछ कैसे हो सकता है ? असंतुष्ट होना ही अशांति (Discomfort) को निमंत्रित करना है | परम शांति (Ultimate peace) तो संतुष्टि ही प्रदान करती है |  
      शांति (Peace) और अशांति (Discomfort), दो शब्द हैं, जो हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं | हम जानते हैं कि इस संसार में जीवन में शांति किसी के पास भी नहीं है | शांत जीवन ही स्वर्ग है और अशांत जीवन नरक | प्रत्येक मनुष्य स्वर्ग में रहना चाहता है, नरक में रहना किसी को भी पसंद नहीं है | स्वर्ग को प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ त्यागना पड़ता है, जिसे आप गलती से स्वर्ग प्राप्त करने के लिए आवश्यक समझ रहे हैं | शांति से जीने के लिए हर कोई सुख चाहता है, लेकिन केवल स्वयं के लिए शारीरिक सुख | शारीरिक सुख कभी भी शांति प्रदान नहीं कर सकता | शरीर भौतिक पदार्थ है और एक भौतिक पदार्थ को दूसरे भौतिक पदार्थ से मिलाने पर केवल क्रियाएं मिल सकती हैं, जो मात्र सुख का आभास देती है, वास्तव में कोई भी क्रिया सुख दे ही नहीं सकती | क्रिया (Action) के सुख न देने के पीछे कारण है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया (Reaction) अवश्य होती है | जिस क्रिया से आपको व आपके शरीर को सुख का अनुभव होता है, उसकी प्रतिक्रिया में उतनी ही मात्रा में आपको दुःख भी झेलना पड़ेगा | इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि जीवन में कभी भी भौतिक पदार्थों से सुख प्राप्त नहीं हो सकता, और हम है कि भौतिक सुख सुविधाओं को अपने जीवन का सुख, शांति तथा स्वर्ग मान बैठे हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, April 21, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 11

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् -11
    भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
              विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृह |
              निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति || गीता-2/50 ||
   अर्थात जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होकर विचरण करता है, केवल वही शांति को प्राप्त होता है |
                 इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि स्पृहा अर्थात महत्वकांक्षा  (Ambitions) व्यक्ति की जब बहुत अधिक हो जाती है, तब कामनाएं (Desires) पैदा होती है और कामनाओं के पूरा होने पर अहंकार (Ego) पैदा होता है | यही अहंकार पुनः अधिक महत्वकांक्षा पैदा करता है और नई कामनाओं के जन्म का आधार बनता है | इस प्रकार यह अटूट दुष्चक्र (Vicious cycle) चलता रहता है | इस चक्र को तोड़ने के लिए ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होना आवश्यक है |
             ममता, स्पृहा और अहंकार के मूल में सदैव विभिन्न प्रकार की कामनाएं ही रहती है, जो मन को नियंत्रण में न रख पाने के कारण बार-बार जन्म लेती रहती है | इन कामनाओं को उठने से रोकना ही जीवन को परम शांति उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक है |
               अब प्रश्न उठता है कि कामनाएं पैदा ही क्यों होती है ? मनुष्य के जीवन में कामनाएं पैदा होने के दो प्रमुख कारण है – प्रथम कारण है स्वयं के लिए सुख की चाह रखना और दूसरा महत्वपूर्ण कारण है – लोभ, जितना उपलब्ध है, उसमे कुछ और अधिक जोड़ लेने की भावना | ये दो ही ऐसे कारण है, जो मनुष्य में कामनाओं का अंत नहीं होने देते | कामनाएं व्यक्ति को शांति प्राप्त करने से वंचित करती है | अगर कामनाओं को रोक दिया जाये, तो व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है | अशांत जीवन के मूल में स्वयं के सुख की चाह और लोभ ही रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, April 20, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् -10

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 10
          इन्द्रियों का स्वाभव है कि वह भोगों को उपलब्ध कराने के लिए, उनकी ओर दौड़ेगी ही | नियंत्रण तो आपको अपने मन पर करना होगा, जो विषय-भोगों के प्रति आसक्ति-भाव रखता है | इसी आसक्ति के कारण मन में कामनाएं, इच्छाए और वासनाएं जन्म लेती है | मन को नियंत्रण में रखना बहुत ही मुश्किल है | उसको नियंत्रण में रखने के लिए मन में कामनाओं को ही उठने देने से रोकना होगा | भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || गीता-3/43||
अर्थात बुद्धि से सूक्ष्म आत्मा को जानकर हे महाबाहो ! अपनी बुद्धि के द्वारा इस मन को वश में करके तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
         अज्ञान हमारे मन को बुद्धि पर अधिक प्रभावी बना देता है, जिस कारण से हमारे भीतर विवेक पैदा नहीं हो पाता | आत्मा बुद्धि से भी सूक्ष्म है, और वह आत्मा ही हम है | अतः आत्मा से बुद्धि को सक्रिय कर विवेक से मन को नियंत्रित करते हुए कामनाओं को उठने से रोका जा सकता है | इन्द्रियों का कार्य ही भोग उपलब्ध कराना है, उनको जोर-जबरदस्ती से नियंत्रित करना अनुचित है | जो व्यक्ति इन्द्रियों को दबाकर उनसे विषयों का सेवन नहीं करता, उससे वह स्वयं के द्वारा इन्द्रियों को नियंत्रित कर लेने का दावा तो कर सकता है परन्तु उसके मन में इन विषयों का चिंतन सदैव चलता रहता है और उसमें विभिन्न प्रकार की कामनाएं जन्म लेती रहती है | कामनाओं पर नियन्त्रण करने से ही इन्द्रियाँ और मन नियंत्रित हो सकते हैं और यह नियंत्रण बुद्धि और ज्ञान से ही संभव है | कामनाओं पर नियंत्रण ही से शांति प्राप्त हो सकती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||  

Wednesday, April 19, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 9

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 9
   गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
        श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय |
        ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || गीता-4/39||
अर्थात जिसने इन्द्रियों को नियंत्रित कर लिया है, जो सदैव तत्पर रहता है और जो श्रद्धावान है, वही मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है | ऐसा मनुष्य ज्ञान को प्राप्त कर बिना किसी विलम्ब के, तत्काल ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है |
          ज्ञान शांति तो प्रदान करता है, परन्तु ज्ञान किस प्रकार की योग्यता रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त होने पर ही शांति प्रदान करता है, यह इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है | व्यक्ति को ज्ञान और परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखना आवश्यक है | यह श्रद्धा ज्ञान को ग्रहण करने के लिए व्यक्ति को सक्रिय रखती है | बिना ऐसी सक्रियता और तत्परता के ज्ञान प्राप्त होना असंभव है | मनुष्य का मन सदैव ही इन्द्रिय भोगों की ओर दौड़ता रहता है, जिस कारण से उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं हो पाती है और ज्ञान पाने के प्रति तत्परता भी नहीं रहती | अतः सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक है | जितेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्ति को तत्पर हो सकता है और ज्ञान के प्रति श्रद्धावान भी | संसार से आसक्ति हटाने के लिए जितेन्द्रिय होना आवश्यक है | जितेन्द्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि इन्द्रियों को बलपूर्वक दबाया जाय | ऐसा करना तो स्वयं के लिए और अधिक संकट पैदा कर लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 18, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 8

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 8
              ज्ञान का विलोम शब्द है अज्ञान | प्रायः हम अज्ञान को ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हैं, अतः सर्वप्रथम हमें इन दोनों में अंतर समझना आवश्यक है | जिस ज्ञान को प्राप्त कर भी सदुपयोग नहीं करें अथवा जीवन में न उतारें, सारा का सारा अज्ञान है | दोनों की अपनी अपनी विशिष्टतायें हैं | दोनों की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में बतलाने का प्रयास कर रहा हूँ, जिसको समझकर हम ज्ञान को स्पष्टतः समझ पाएंगे |
             जिसके कारण स्वार्थ, विनाश, क्रूरता, अशांति और भय में वृद्धि हो, वह अज्ञान है किंतु जो व्यक्ति को उदार, निर्भीक, सहनशील और विनम्र बनाये, वही ज्ञान है | अज्ञान की शक्तियां दुरुपयोग करने हेतु हमें प्रेरित करती है, किंतु जो शक्ति अपने सामर्थ्य के प्रति हमें अपने उत्तरदायित्वों को समझाए और जो न केवल अपने अपितु अपने से भी पहले संसार के कल्याण हेतु प्रोत्साहित करे, वही ज्ञान है | ज्ञान का मूल उद्देश्य ही परोपकार और सृजन है | दूसरों की भावना को समझना, उनका आदर करना, ज्ञान है | ज्ञान हमें दूसरों के सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील बनाता है | जो दूसरों की भावनाओं का अनादर करे, भला वह ज्ञान कैसे हो सकता है ? अज्ञान के कारण व्यक्ति सांसारिकता में बंधता जाता है और मोह-माया में उलझता जाता है | अज्ञान परम सत्य से दूर ले जाने का माध्यम है जबकि ज्ञान हमें परम सत्य को प्राप्त कराता है |
                अल्प रूप से कहूँ तो यह कहा जा सकता है कि जो सांसारिकता का ज्ञान कराये, मोह, ममता, आसक्ति, क्रोध, अहंकार आदि विकारों में उलझाकर रख दे, वह अज्ञान है | उसे ज्ञान कदापि नहीं कहा जा सकता | जो परम सत्य से साक्षात्कार करा दे, परमात्मा की तरफ अग्रसर कर दे, केवल वही ज्ञान है | अज्ञान हमें सदैव बाहर भीतर दोनों ही ओर से अशांत बनाये रखता है | ज्ञान शांति प्रदान करता है | आइये ! हम भी जानें कि ज्ञान कैसे शांति प्रदान करता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, April 17, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 7

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 7
        दिगम्बर जैन मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज कहते हैं कि ज्ञान को पाकर भी कई लोग ज्ञान को समझ नहीं सकते, उन्हें वह तुच्छ लग सकता है | यह भी एक प्रकार का अहंकार ही है | सद्गुरु का अर्थ, एक ऐसा सच जो हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाये | इसलिए हमें सद्गुरु की आवश्यकता होती है | वह हमारे अहंकार को पूर्ण रूप से समाप्त कर ज्ञान को अंतर्मन में उतार देता है | पहले हमारी आत्मा और उसके बाद धीरे-धीरे हमारी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि ज्ञान को आत्मसात कर लेती है और हम ज्ञान में डूब जाते हैं | ऐसा हो जाने पर ही ज्ञान का आनन्द आना प्रारम्भ होता है, प्रतिपल, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में | यह अवस्था सद्गुरु के आशीर्वाद के बिना नहीं आ सकती |
                सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेने वाला ही ज्ञानी नहीं हो जाता, ज्ञान के साथ जीने वाला ही ज्ञानी होता है | ज्ञान के साथ जीना हमें सद्गुरु सीखाता है और सद्गुरु बिना ईश्वर के आशीर्वाद के मिल नहीं सकता | मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज आगे कहते हैं कि आज की आवश्यकता है कि हम सब ज्ञानी बनें, केवल ज्ञान को लेकर बैठें नहीं बल्कि ज्ञान को अपने में बैठा लें | हमारे पास सतत जानकारियां आती रहती हैं परन्तु वह ज्ञान नहीं होता है बल्कि सूचना मात्र होती हैं | ज्ञान सूचना से एक दम अलग है | ज्ञान वह है, जिसमें बुद्धि का उपयोग करते हुए कुछ अनुभव प्राप्त करते हैं | ऐसा होने पर ज्ञान की केवल बातें भर नहीं होती परन्तु जीवन में उसका उपयोग अधिक किया जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, April 16, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 6

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 6
           जो ज्ञान हम विद्यालयों में जाकर प्राप्त करते हैं, उसे शिक्षा कहा जाता है | शिक्षा हमें सीख देती है, जो जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होती है | शिक्षा देने वाले हमें कई मिल जाते हैं और उनको हम शिक्षक कहते हैं, जबकि ज्ञान केवल गुरु ही दे सकता है | शिक्षा सीख है तो ज्ञान सत्य है | हमारा शिक्षक एक साधारण व्यक्ति अथवा सद्साहित्य हो सकता है परन्तु गुरु तो साक्षात् परमात्मा स्वरुप है, वही गोविन्द है और न केवल गोविन्द ही बल्कि उससे भी कहीं अधिक ऊपर | तभी तो कबीर कह उठते हैं –
             गुरु गाविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय |
             बलिहारी गुरु आपने,गोविन्द दियो बताय ||
   गुरु गोविन्द से भी पहले होता है, शिक्षक उसकी कहीं से भी बराबरी नहीं कर सकता | सीख देने वाले से सत्य का साथ करा देने वाला सदैव ही महान होता है | गुरु के बारे में कहा गया है –
गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने |
तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तवयशच मनीषिभिः ||गुरु गीता-1/25||
अर्थात आत्मा में गुरुबुद्धि के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है, सत्य नहीं है | अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए बुद्धिमानों को सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए | गुरु हमारे स्व-चेतन से भिन्न नहीं है | बुद्धिमान पुरुषों को ज्ञान लेने के लिए गुरु के पास जाना चाहिए | गुरु सर्वोच्च ज्ञान देता है, शिक्षक केवल शिक्षा तक ही सीमित है | शिक्षा और ज्ञान में अंतर है | भौतिक शिक्षा अनुकरण से सीखी जाती है जिसका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि तक ही सीमित है | लेकिन जो बुद्धि से भी परे है और जो आपकी आत्मा से जुडा है और सत्य के अनुभव पर आधारित है, वही ज्ञान है | शिक्षा कई बार अहंकार पैदा कर देती है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति को यश मिलता है, लेकिन ज्ञान अहंकार को दूर करता है क्योंकि ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति स्व से जुड़ जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 15, 2017

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् - 5

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम् – 5
ज्ञान (Knowledge) –
          ज्ञान क्या है ? इसकी क्या परिभाषा है ? वैसे देखा जाये तो ज्ञान की कोई सर्वसम्मत एक परिभाषा नहीं है और हो भी नहीं सकती क्योंकि ज्ञान को समझाने और समझने के लिए मात्र कुछ शब्द ही पर्याप्त नहीं है | ज्ञान शब्दों की पहुँच से बहुत ही दूर है | मेरी दृष्टि में ज्ञान वह ग्राह्य तत्व है, जो बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया जाता है | बुद्धि में ज्ञान के प्रवेश करते ही विचार आने प्रारम्भ हो जाते हैं और ज्यों ही बुद्धि विचार की अवस्था से निकलकर जीवन में ज्ञान का उपयोग करती है, वह विवेक बन जाती है | कहने का अर्थ है कि केवल ज्ञान का बुद्धि में प्रवेश कर जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है |
           बुद्धि विचार का जीवन है जबकि विवेक होश का जीवन है | व्यक्ति विचार करता है, तो पक्ष-विपक्ष और तर्क-वितर्क साथ-साथ चलते हैं और व्यक्ति द्वंद्व में फंस जाता है | अंततः जो अधिक प्रभावी होता है, व्यक्ति उसी मार्ग पर चल देता है | जबकि विवेकपूर्ण जीवन तर्क-वितर्क का जीवन न होकर सतर्कता का जीवन है | बुद्धि में केवल ज्ञान का होना मात्र एक बोझ है जबकि विवेक ज्ञान का बोध है | बुद्धि में ज्ञान का बोझ अहंकार और बंधन पैदा करता है, जबकि बोध हमें हल्का और मुक्त करता है | ज्ञान बाहर से मिलता है जबकि विवेक भीतर से जाग्रत होता है | विचार विकार पैदा कर सकते हैं जबकि सतर्कता हमें विकारों में उलझने नहीं देती | बुद्धि में उपस्थित ज्ञान हमें जीवन-पथ के काँटों से सुरक्षित रखता है जबकि विवेक हमारे द्वारा दूसरों को भी इन काँटों में उलझने से बचाता है | अतः मात्र ज्ञान ग्रहण कर विचार पैदा करने से कुछ नहीं होगा | आवश्यकता है विचारवान से विवेकी बनने की | केवल बुद्धि में ज्ञान ठूंसकर हम अहंकारी ही हो सकते हैं, अतः इससे अधिक महत्वपूर्ण उस ज्ञान से विवेकवान बनकर जीना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||