Thursday, September 1, 2016

ज्ञान-विज्ञान-25

ज्ञान-विज्ञान-25
हमारे धर्मशास्त्र ज्ञान के अथाह भंडार हैं | सभी सनातन धर्म-शास्त्र एक ही बात कहते हैं कि इस जगत का आधार एक परमात्मा ही है | इसी बात को प्रत्येक शास्त्र ने एक बार ही नहीं, बारम्बार दोहराया है, विभिन्न कथाएं कहते हुए कहा है, शब्दों का स्वरूप परिवर्तित करते हुए कहा है, जिससे कि पाठक अपनी बुद्धि और सोच के अनुसार उसे ग्रहण कर सके | भगवान श्री कृष्ण ने सातवें ज्ञान-विज्ञान योग में कही इन्हीं बातों को पन्द्रहवें पुरुषोत्तम योग नामक अध्याय में दोहराते हुए कहा है-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोsक्षर उच्यते || गीता-15/16 ||
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाह्रतः |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः || गीता-15/17 ||
अर्थात इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार के पुरुष हैं | इनमें सम्पूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा को अविनाशी कहा गया है | इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा कहा गया है |
श्वेताश्वतर उपनिषद् और गीता में बार-बार यही एक बात दोहराई गयी है जिससे प्रत्येक व्यक्ति को पूर्णतया समझ में आ सके | पुरुषोत्तम योग अध्याय में इसी बात को प्रकृति के नाम से न कहकर पुरुष नाम से कहा गया है | नाशवान, अविनाशी और उत्तम पुरुष क्रमशः अपरा प्रकृति, परा प्रकृति और परमात्मा को इंगित करते है | नाशवान अर्थात जड़ तत्व को हम प्रथम पुरुष कह सकते हैं, अविनाशी चेतन तत्व को मध्यम पुरुष कहा जा सकता है और परमात्मा तो उत्तम पुरुष है ही | प्रथम पुरुष से तात्पर्य उस शरीर से है जिसकी इन्द्रियां कर्म कर रही है, मध्यम पुरुष से तात्पर्य उस जीवात्मा से है जो प्रथम पुरुष के द्वारा किये गए कर्मों के फल की भोक्ता है और उत्तम पुरुष केवल परमात्मा है, जिसके अंतर्गत ही प्रथम और मध्यम पुरुष आ जाते हैं और जो न तो किसी प्रकार का कोई कर्म करता है और न ही उनमें लिप्त होता है | प्रथम पुरुष जड़ और व्यक्त है, जो कि मध्यम पुरुष अर्थात चेतन और अव्यक्त के व्यक्त होने का एक माध्यम है और उत्तम पुरुष इन दोनों अर्थात प्रथम और मध्यम पुरुष का कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||

No comments:

Post a Comment