ज्ञान-विज्ञान-27
हमारे शास्त्रों में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन प्रकार के शरीर बताये गए हैं, जो कि क्रमशः भौतिक शरीर, जीवात्मा और परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं | एक मनुष्य के शरीर में ही ये तीनों शरीर उपस्थित रहते हैं | इसीलिए व्यक्ति को ही परमात्मा कहा जाता है, लेकिन ऐसा तभी कहा जा सकता है जब वह अपना वास्तविक स्वरूप पहचान ले | बिना स्वरूप को पहचाने वह अपने आपको केवल स्थूल शरीर ही समझता रहता है | अपने वास्तविक स्वरूप वह तभी पहचान पाता है, जब वह विज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ते हुए परमात्मा तक पहुँच जाये | इस राह में आगे बढ़ना केवल परम पिता के हाथ में ही है, उसकी कृपा से ही ऐसा होना संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं | परमात्मा का ज्ञान ही उसे परमात्मा बना देता है | मुण्डकोपनिषद में इसी बात को बहुत ही सरल तरीके से समझाया गया है |
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते |
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य-
नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति || तृतीय मुण्डक-1/1||
यह मन्त्र ऋचा के रूप में ऋग्वेद (1/164/20) और अथर्ववेद (9/14/20) में भी वर्णित है |
इसका अर्थ है-‘एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा भाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं; उन दोनों में से एक तो उस वृक्ष के सुख-दुःख रूप कर्म फलों का स्वाद ले-ले कर उपभोग करता है तथा दूसरा न खाता हुआ केवल देखता रहता है |’
यहाँ मुण्डकोपनिषद् में जीवित शरीर को वृक्ष बताया गया है जिस पर जीवात्मा और परमात्मा बैठे हैं | जीवात्मा इस शरीर द्वारा किये गए कर्मों का फल भोगता है जबकि परमात्मा ऐसे किसी भी कर्म को न तो करता है और न ही उसके फल को भोगता है | इसी बात को गीता के 13 वें अध्याय में इस प्रकार कहा गया है-
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोSपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता-13/31 ||
अर्थात हे अर्जुन ! अनादि और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न ही लिप्त होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||
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