Saturday, September 10, 2016

ज्ञान-विज्ञान-34

        हम सभी यह समझते हैं कि हमारा शरीर एक न एक दिन समाप्त होना है और पुनर्जन्म पाकर हमें इस भौतिक संसार में वापिस लौटना है | इसलिए शरीर और इसके तत्वों को क्षर अथवा परिवर्तनशील कहा गया है | जरा मेरी बात पर ध्यान दें और सोचें व विचार करें कि क्या पञ्च तत्व भी क्षर हैं ? पञ्च तत्वों से बना यह शरीर अवश्य ही क्षर है, अर्थात नित्य नहीं है | परन्तु पांचो तत्व तो शरीर के क्षय हो जाने के बाद पुनः वैसे के वैसे अपनी प्रकृति में घुल मिल जाते हैं और अनुकूल परिस्थितियों के उपलब्ध होते ही पुनः एक नए शरीर की रचना कर डालते हैं | फिर ये पञ्च-तत्व भी क्षर कैसे हुए ? हाँ, स्थूल दृष्टि से यह बात एक दम सत्य प्रतीत होती है और अगर गंभीरता से देखा जाये तो परमात्मा जो कि स्वयं अक्षर है, तो फिर जड़ और चेतन दोनों ही अक्षर हुए क्योंकि दोनों ही उनसे और उनके कारण ही अस्तित्व में आये हैं | यही बात तो गीता में वे अर्जुन को समझा रहे हैं कि ‘शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु मत समझ, शरीर के बनने और नष्ट होने की एक निश्चित प्रक्रिया है | परन्तु हे अर्जुन ! तू और मैं दोनों ही कभी नष्ट नहीं होते केवल हमारे शरीर ही नष्ट होते हैं | तुम्हारे और मेरे में यही अंतर है कि इस बात का मुझे तो सदैव ज्ञान रहता है परन्तु तुम्हें नहीं |’
                बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
                तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप || गीता-4/5 ||
अर्थात भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे परंतप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं | उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ |

          यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के भ्रम को समाप्त करने के स्थान पर और अधिक बढा देते हैं | ऐसी क्या बात हो गयी कि अविनाशी और अजन्मा रूप होते हुए भी परमात्मा को शरीर प्राप्त करने को विवश होना पड़ता है | मेरे एक मित्र ने इस श्लोक को पढ़कर मुझसे भी यही प्रश्न किया था कि ‘आप तो कहते हैं कि गीता सभी प्रकार के भ्रम दूर कर देती है परन्तु अर्जुन को ऐसा कहकर क्या भगवान ने भ्रम को और नहीं गहरा दिया है ?’ स्थूल दृष्टि से एक भ्रम अवश्य है यह, परन्तु गंभीरता से देखा जाये तो भ्रम नहीं भी है | जिस प्रकार हमें अपना स्थूल रूप देखने के लिए उसे सजाने संवारने के लिए एक दर्पण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार परमात्मा को भी अपने स्वरूप को देखने और स्वयं के द्वारा कुछ करने के लिए ही एक स्थूल शरीर की आवश्यकता पड़ती है | उसे एक व्यक्ति के रूप में अपने आपको व्यक्त करना पड़ता है | सूक्ष्म और अव्यय को भी किसी प्रकार के कर्म करने के लिए स्थूल की ही आवश्यकता होती है अर्थात बिना शरीर को प्राप्त किये किसी भी प्रकार का भी कर्म करना असंभव है | यही कारण है कि आवश्यक होने पर परमात्मा का भी एक व्यक्ति के रूप में इस संसार में अवतरण होता है | अतः यह सत्य है कि परमात्मा से स्थूल अलग नहीं है | हाँ, यह बात अवश्य ही सत्य है कि स्थूल तत्वों से बनी समस्त रचनाएँ परिवर्तनशील होती ही हैं |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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