परमात्मा की वाणी दूसरे अध्याय में व्यक्त
और अव्यक्त के अंतर को समाप्त करती है और स्पष्ट करती है कि व्यक्त और अव्यक्त एक
ही है और अनुकूल समय पर अव्यक्त से व्यक्त और पुनः अव्यक्त के रूप में यह परिवर्तन
होता रहता है | जबकि इस सातवें अध्याय में स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्त जो है, वह
मैं ही हूँ और मुझे जन्मने और मरने वाला मेरे परम भाव को नहीं जानता | मैं अव्यय
हूँ, पुरुषोत्तम हूँ | अव्यक्त परमात्मा का परम भाव क्या है और व्यक्त परमात्मा का
व्यक्त-भाव क्या है ? जिस दिन इन दोनों भावों के मध्य का अंतर हमें समझ में आ
जायेगा, प्रत्येक प्राणी में हमें परमात्मा नज़र आने लगेगा | फिर हमारा भी न तो
जन्म होगा न मरण, हम भी शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु नहीं समझेंगे और न ही शरीर
के जन्म को अपना जन्म | हम भी अविनाशी है, पुरुषोत्तम है |
परमात्मा की माया के वशीभूत हो जाना ही व्यक्ति-भाव
है और इस माया से बाहर निकल जाना ही परम-भाव है | प्रकृति के गुणों में उलझ कर रह
जाना व्यक्ति-भाव है और गुणातीत हो जाना ही परम-भाव है | व्यक्ति-भाव में मनुष्य
स्वार्थी हो जाता है जबकि परम-भाव में उसमें समता आ जाती है | आसक्ति व्यक्ति-भाव
का मुख्य कारण है जिसके कारण राग और द्वेष पैदा होते हैं जब कि परम-भाव में राग-द्वेष
का कोई स्थान नहीं है | सुख-दुःख, लोभ-मोह आदि द्वंद्व व्यक्ति-भाव के लक्षण है
जबकि परम-भाव में व्यक्ति सदैव निर्द्वंद्व अवस्था में रहता है | जिस दिन हम भी
निर्द्वंद्व हो जायेंगे, हमें परमात्मा को ढूँढने के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ेगा और
न ही परमात्मा को अपना स्वरूप देखने के लिए हमें बार-बार आगाह करना पड़ेगा |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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