ज्ञान-विज्ञान-28
उपनिषद् में जैसा कुछ कहा गया है, वैसा ही गीता में भी है | दो में से एक पक्षी सब कुछ होते हुए देखता है, वह न तो कर्ता है और न ही भोक्ता, उसकी भूमिका मात्र एक साक्षी की है | इसी प्रकार परमात्मा भी हमारे शरीर में अवस्थित हैं परन्तु न तो किसी कर्म को करते हैं, न ही भोगते हैं और न ही उन कर्मों में लिप्त होते हैं | जब हम कहते हैं कि सब कुछ वही एक परमात्मा ही करता है तो फिर ये उपनिषद् कैसे कहते हैं कि न वो कर्ता है, न भोक्ता है और न ही वह लिप्त होता है ? वह अकर्ता कैसे हो सकता है ? जिस कर्म को करने के पीछे कोई कामना न हो उस कर्म को करना केवल उसका होना है अर्थात करते हुए भी नहीं करना है | कामना नहीं होने से कोई कर्म कैसे हो सकता है ? स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिए कामना मन में रखते हुए कर्म करना कर्मों में आसक्ति है और ऐसी कामना को पूरा करने के लिए व्यक्ति प्राप्त फल को अपने द्वारा किये गए कर्म का परिणाम मानकर स्वयं को कर्ता मान बैठता है | गीता यह स्पष्ट करती है कि कर्म इस प्रकार के होने चाहिए जिसमें आपका कोई स्वार्थ न हो, वे परमार्थ के लिए हो और साथ ही प्रतिफल की कोई कामना न हो, ऐसे कर्मों को करने में आप न तो अपने आपको कर्ता समझें और अगर स्वयं को कर्ता नहीं समझेंगे तो फिर आपका ऐसे कर्म व उसके फल में लिप्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता | सब कुछ परमात्मा ही करते हैं, निस्वार्थ भाव से करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं; जिससे किसी को भी पता भी नहीं चलता कि वे कुछ कर रहे हैं; इसलिए वे इन कर्मों को करते हुए भी अकर्ता कहलाते हैं | इसी प्रकार हमें भी कर्ता भाव का त्याग कर देना चाहिए; ऐसे में हम भी अकर्ता हो जायेंगे और किसी भी प्रकार के कर्मफल को भोगना नहीं पड़ेगा |
शरीर, जीवात्मा दोनों ही परमात्मा के अधीन है | ऐसा स्वीकार कर पाना ही मनुष्य के लिए संभव नहीं हो पा रहा है | तभी तो वह प्रत्येक कामना को पूरा करने के लिए उसके पीछे भागा जा रहा है | Social media पर बहुत अच्छे – अच्छे सन्देश इस सम्बन्ध में पढ़ने को आजकल मिल रहे हैं, प्रत्येक साथी ज्ञान बाँट रहा है | क्या किसी ने उन संदेशों को आत्मसात किया है ? अगर किया होता तो आज हमारा संसार बदल चूका होता | हम स्वयं को बदलना नहीं चाहते और चाहते हैं कि हमारे साथी बदल जाएँ | मुझे एक प्रसिद्ध कवि श्री अशोक चक्रधर की वे दो पंक्तियाँ याद आ रही है, जो उन्होंने पूर्व में कभी सुजानगढ़ में आयोजित हुए कवि-सम्मेलन में सुनाई थी-
सत्य, अहिंसा, दया, धर्म का, इतना सा बस नाता है |
दिवारों पर लिख देते है, दिवाली पर पुत जाता है ||
यही हाल हमारा है | उठो, जागो, शास्त्रों में ज्ञान केवल पढ़ने, सुनने और सुनाने के लिए नहीं लिखा गया है, अपनाने के लिए वर्णित है | जिस दिन आप अपने जीवन में यह ज्ञान उतार लेंगे, आपका संसार ही बदल जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||
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