दिनांक-20/9/2016-सायं
कालीन सत्र -
‘परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति कैसे हो’? इस
विषय पर आगे बोलते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने नाम-जप, प्रार्थना, सबसे
प्रेम करना ही परमात्मा से प्रेम करना है और सन्त-सानिध्य तथा स्वाध्याय को अल्प
रूप में पुनः समझाते हुए कहा कि पांचवां सूत्र है – दृढ़ता के साथ नियम-पालन करना |
जीवन में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए जो भी नियम आप व्यवहार रूप में अपनाते
हो, उसका दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिए | प्रायः यह देखने में आता है कि सत्संग से
प्रेरित होकर किसी एक नियम पर चलना आप
प्रारम्भ तो कर देते हैं परन्तु कुछ समय बाद इसको निभाने में कमजोर पड़ते जाते हैं
और एक दिन यह नियम टूट जाता है | इसके पीछे प्रमाद और आलस्य प्रमुख कारण होते हैं |
समयाभाव का मात्र एक बहाना भर होता है | हम अपने जीवन में भजन को अन्य सांसारिक
कामों से कम महत्त्व देते हैं उस कारण से हम संसार में ही भटकते रह जाते हैं,
परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते | अगर परमात्मा को प्राप्त करना है तो नियमों को
अपनाकर उनपर दृढ़ता पूर्वक चलना होगा | उन्होंने उत्तराखंड में गाये जाने वाले एक
भजन ‘तीन बार भोजन, भजन एक बार, उसमें भी पड़ गए झंझट हजार’ गाकर
सुनाते हुए भजन करने को टालने की आदत में गढे जाने वाले कुछ बहानों की चर्चा की |
‘नित्य-स्तुति’ का पाँच बजे
करने के नियम का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि आलस्य वश व्यक्ति इस नियम को तोड़
देता है अथवा किसी अन्य समय इसे करने की बात कहता है | वास्तविकता यह है कि आलस्य वश
ऐसा नहीं करता | किसी भी नियम को कभी भी भंग नहीं करना चाहिए | सही काम सही समय पर
करना ही उचित होता है | जब हम अपने सांसारिक कामों को समय पर निपटाते और करते हैं
तो फिर नित्य-स्तुति पाँच बजे नियमित रूप से क्यों नहीं की जा सकती ? नियम पर चलना
आपकी इच्छा शक्ति को दर्शाता है, आपकी परमात्मा के प्रति श्रद्धा को व्यक्त करता
है | श्रद्धा पूर्वक नियम का पालन करना आपको परमात्मा को शीघ्र प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है |
दिनांक-21/9/2016-प्रातःकालीन
सत्र-
‘शरणागति’ विषय पर आज प्रवचन
के छठे दिन बोलते हुए हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा,
हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि शरणागति से अर्थ
है-सब कुछ परमात्मा ही होना | व्यक्ति जब अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देता
है तब वह स्वयं कुछ नहीं करता | फिर उसकी समस्त जिम्मेवारी उस परमपिता की हो जाती
है और उसके प्रत्येक कार्य परमात्मा ही करते हैं | संसार में सदैव ही ‘मैं और तुम’
का अस्तित्व रहता है | जब मनुष्य परमात्मा के शरणागत हो जाता है तब उसका ‘मैं’
समाप्त हो जाता है केवल ‘तू’ ही रहता है | शरणागति की पराकाष्ठा में शरणागत समाप्त
होकर केवल शरण्य ही रह जाते हैं |
मनुष्य का शरणागत होना मुश्किल ही
इसीलिए है क्योंकि वह सब कुछ अपने बलबूते पर ही करना मानता भी है और चाहता भी है |
शरणागत को अपने शरण्य पर ही आश्रित रहना
चाहिए | स्वयं के द्वारा कुछ भी करना संसार का आश्रय है जबकि सब कुछ परमात्मा पर
छोड़ देना परमात्मा का आश्रय लेना है | आचार्य जी ने बताया कि गजराज जल का आश्रय न लेकर
स्वयं ही के बल से नदी पार करने का प्रयास करता है इसलिए नदी के तेज बहाव में बह
जाता है जबकि मछली जल में रहकर सदैव उसके आश्रित ही रहती है इसलिए वह नदी के तेज
बहाव के बाद भी जल में उलटी दिशा में भी तैरती रहती है | उन्होंने एक जन्मांध सन्त
का दृष्टान्त देते हुए बाते कि वे एक बार यमुना में बह गए थे और सहारे की लाठी भी
हाथ से छूट गयी थी | थोड़ी देर तो वे किनारे लगने के लिए संघर्ष करते रहे परन्तु
सफलता न मिलने पर अपने आपको परमात्मा के आश्रय छोड़ दिया | उन्होंने किनारे लगने के
लिए सब प्रकार के संघर्ष करने को छोड़ दिया |
थोड़ी ही देर में वे यमुना के किनारे पर स्वतः ही पहुँच गए और हाथ में लाठी
भी आ गयी | ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि उन सन्त ने संसार का आश्रय छोड़कर
परमात्मा का आश्रय लिया था |
तत्पश्चात सत्र समापन से पूर्व आचार्य
जी ने शरणागति के विभिन्न प्रभावों का स्व-रचित भजन के माध्यम से बहुत ही सुन्दर
तरीके से विश्लेषण किया |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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