इस ब्रह्माण्ड में समस्त कृतियाँ
परमात्मा ने अपने में और स्वयं से ही उत्पन्न की है | समस्त परमात्मा को देखना ही
वास्तविकता में देखना है | जो ऐसा देखता है वह कभी भी भ्रमित नहीं हो सकता |
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि
पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति
|| गीता-6/30 ||
अर्थात जो सम्पूर्ण
भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को
मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए
अदृश्य नहीं होता |
यह श्लोक भी इसी बात को पुष्ट करता है कि
परमात्मा और व्यक्ति दोनों का एक ही स्वरूप हैं, दोनों में किसी भी प्रकार की
भिन्नता नहीं है | परमात्मा को अपना स्वरूप देखने के लिए व्यक्ति के रूप में
व्यक्त होना पड़ा, अतः व्यक्ति का स्वरूप तो स्वयं परमात्मा का ही स्वरूप हुआ |
आवश्यकता इसी बात की है कि व्यक्ति इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक कृति में परमात्मा
को ही देखे और उसकी प्रसन्नता के लिए कर्म करे न कि स्वयं के स्वार्थ के लिए |
विज्ञान, ज्ञान की प्रारम्भिक
अवस्था का नाम है; ऐसे में हमें यह जानना आवश्यक है कि फिर ज्ञान की पराकाष्ठा
क्या है, ज्ञान की पूर्णता किसमें है ? गीता के सातवें अध्याय की समाप्ति करते हुए
भगवान श्री कृष्ण इसी बात को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को कहते हैं-
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च
ये विदुः |
प्रयाणकालेSपि च मां ते
विदुर्युक्तचेतसः || गीता-7/30 ||
अर्थात जो पुरुष
अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित मुझे अन्त काल में भी जानते हैं, वे युक्त चित्त
वाले पुरुष मुझे जानते हैं |
यह श्लोक ही स्पष्ट करता है कि ज्ञान
की पूर्णता परमात्मा को समग्र रूप से जानने में ही है अन्यथा सारा प्राप्त ज्ञान
अविद्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | अधिभूत को जानना विज्ञान है, अधिदैव को
जानना विज्ञान सहित ज्ञान को जानने की स्थिति है और अधिभूत और अधिदैव सहित अधियज्ञ
को जानना सम्पूर्ण ज्ञान है | इन तीनों को जान लेने के उपरांत भी यह ज्ञान अन्त काल
में विस्मृत हो सकता है | इस सम्पूर्ण ज्ञान को अंत समय तक भी स्मृति में रख पाना
ही परमात्मा को जान लेना है अर्थात परमात्मा के स्वरूप को जान लेना है | आत्मरूप
ही परमात्मा का स्वरूप है | अंत समय में यह ज्ञान तभी स्मृति में बना रह सकता है
जब व्यक्ति का मन प्रारम्भ से ही परमात्मा में लगा रहता है | ऐसे व्यक्ति को ही इस
श्लोक में युक्त चित्त वाला पुरुष कहा गया है | कई मनुष्य यह कहते हैं कि परमात्मा
में मन लगाना तो वृद्धावस्था का कार्य है परन्तु मैं कहता हूँ कि उनकी यह सोच ही
गलत है | जीवन की युवावस्था ही वह उपयुक्त समय है, जब संसार से आसक्ति त्यागकर
परमात्मा के साथ मन को आसानी से युक्त
किया जा सकता है |
कल समापन कड़ी
|| हरिः शरणम् ||
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