Tuesday, September 20, 2016

अथ आचार्य उवाच-4

दिनांक-18/9/2016 - सायं कालीन सत्र-
             आज सायंकालीन सत्र में आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा ने परमात्मा की प्राप्ति का सुगम रास्ता बताने का क्रम जारी रखते हुए बताया कि नाम-स्मरण और ह्रदय की पुकार के बाद अगर कोई मार्ग है तो वह है,  प्रेम का मार्ग | आपको प्रेम करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है | नाम-स्मरण और प्रार्थना में फिर भी कुछ प्रयास करना होता है परन्तु  प्रेम-मार्ग में तो केवल प्रेम करना होता है | प्रेम आपके ह्रदय से होना चाहिए, मात्र दिखावे के लिए नहीं | प्राकृतिक प्रेम से परमात्मा का मिलना बड़ा ही सुगम है | जब पृथ्वी पर पाप का भार एक सीमा से अधिक बढ़ गया, तब सभी देवता आपस में बैठकर विचार कर रहे थे कि इस भार को उतरने के लिए परमात्मा के पास जाकर प्रार्थना करनी चाहिए | उस सभा में शिव भी उपस्थित थे | उन्होंने देवताओं को कहा कि परमात्मा तो प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक समय उपस्थित है | उनको प्रकट हने के लिए बस आपका प्रेम चाहिए | गोस्वामी तुलसी दासजी ने रामचरितमानस में बड़े ही सुन्दर रूप से शंकर भगवान की इस सुझाव को अपनी लेखनी के मध्यम से व्यक्त किया है |
         हरि ब्यापक सर्बत्र समाना |प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना || मानस-1/185/5 ||
                    इस प्रकार प्रेम ही परमात्मा को सबसे प्रिय है, जिसको पाकर वे तुरंत दौड़े चले आते हैं | प्रेम से संसार के सभी कार्य संभव हो जाते हैं | प्रेम ही इस जगत में सर्वोपरि है |आज इस भौतिक संसार में जितनी भी विषमताएं और दुःख नज़र आ रहे हैं उन सबका कारण इस युग में प्रेम का अभाव होना है |आज भाई से भाई लड़ रहा है, बहिन भाई के बीच वैमनस्य दिखाई पड़ती है यहाँ तक कि पति-पत्नी में भी आपस में प्रेम का अभाव पैदा हो रहा है | मनुष्य इस परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है | परमात्मा भी कहते हैं कि संसार के सभी प्राणी मुझसे उपजे हैं फिर भी मनुष्य मुझे सबसे अधिक प्रिय है |
       आज के इस सत्र का समापन करते हुए आचार्य जी ने मीरा, कबीर, रहीम, सूर, तुलसी आदि के काव्यों की रचनाएँ बतलाते हुए स्पष्ट किया कि परमात्मा की प्रत्येक रचना से, उसकी प्रत्येक कृति से प्रेम करके ही परमात्मा को पाया जा सकता है, अन्यथा नहीं |
                  आज के इस सत्र की यह विशेषता रही कि समय समाप्त हो जाने के बाद भी श्रोता की प्यास बुझ नहीं रही थी | विद्युत व्यवस्था में व्यवधान और तेज गर्मी का अहसास भी श्रोताओं को विचलित नहीं कर सका | अगर अँधियारा नहीं घिर आता तो शायद यह सत्र कुछ और समय तक श्रोताओं को अभिभूत  करता |
|| हरिः शरणम् ||
दिनांक-19/9/2016- प्रातः कालीन सत्र –
                 आज इस सत्र का प्रारम्भ आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने भाई जी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार के भजन “नाथ मैं थारो जी थारो .....” से किया और उसके बाद भक्त सूरदास का पद “मो सम कौन कुटिल खल कामी...” गाया |  दोनों की तुलना करते हुए बताया कि पहले भजन में अहंकार – भाव है जब कि सूरदासजी के पद में दीनता का भाव है | दोनों पद एक प्रकार से परमात्मा से की गई प्रार्थना ही है, जिसमें कवि के मन के भाव झलक रहे हैं | भाईजी के पद में अहंकार का भाव अवश्य दिख रहा है, परन्तु यह परा प्रकृति का अहंकार है, जिसमें स्वयं को परमात्मा के आश्रय होना बताया गया है | जैसे ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे कि ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’| सूरदासजी के पद में दीनता का भाव अवश्य है और परमात्मा के समक्ष अपनी कमियां बताई गयी है और इसी प्रकार प्रथम पद अर्थात भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार के पद में भी अपनी कमियां ही बताई गयी है | दोनों पदों का भाव भले ही अलग-अलग नज़र आता हो, मूल में बात परमात्मा के शरणागत होने की ही है |
                आप जिस भी स्थिति में हो, वैसे के वैसे ही परमात्मा के हो, यही एक शरणागत की विशेषता है | आपको सुधारना अर्थात आपमें उपस्थित सभी कमजोरियों को दूर करना अब उस परमात्मा के हाथ में है | आपने अपने उपर कुछ भी न रखते हुए प्रत्येक परिस्थिति को सम्हालने की जिम्मेदारी परमात्मा को दे दी है | यही शरणागत होने की मूल भावना है | आचार्य जी ने रामचरितमानस में से कई चौपाइयों व गीता के कई श्लोक उद्घृत किये | विभीषण के शरणागत होने का उदाहरण श्रोताओं के समक्ष रखते हुए उन्होंने कहा कि भगवान कहते हैं कि अगर कोई करोड़ों विप्रों की हत्या किया हुआ व्यक्ति भी मेरी शरण में आता है तो मैं उसे सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर देता हूँ |
      ‘कोटि विप्र बध लागहिं जाहू | आएँ सरन तजऊं नहिं ताहू ||’मानस-5/44/1 ||
   इसी प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपने ज्ञान देने के अंतिम भाग में शरणागत होने का उपदेश देते हुए कहते हैं –
                   सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं  व्रज |
                 अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||गीता-18/66||
अर्थात सम्पूर्ण धर्मों अर्थात कर्तव्य कर्मों को त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर |
      सत्र का समापन आचार्य जी ने स्वरचित एक भजन से किया जिसे सुन समस्त श्रोता आनंदविभोर हो उठे |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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