Sunday, September 11, 2016

ज्ञान-विज्ञान-35

              जब आप खेल के मैदान में खेल को खेल रहे होते हैं तब सब कुछ प्रति पल घटित और परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है परन्तु जब आप खेल समाप्त करने के बाद अपने घर लौट आते है और खेल का मैदान वैसे का वैसा वहीँ पर रह जाता है, ऐसे में आप में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ और न ही खेल के मैदान में कोई परिवर्तन आया और आप दोनों ही पूर्व की भांति जस के तस बने रहते हैं | कल फिर आप उसी खेल-मैदान पर जायेंगे, वही तो आप होंगे और वही मैदान होगा परन्तु खेल नया होगा | इस प्रकार स्पष्ट है कि परिवर्तन आया तो है परन्तु केवल उस खेले गये खेल में आया है | परमात्मा तो अविनाशी है ही, साथ ही साथ न तो जीवात्मा विनाश शील है और न ही भौतिक पञ्च-तत्व | इस प्रकार परिवर्तनशील और विनाशी तो केवल परमात्मा का ही खेल हुआ, जिस कारण से यह भौतिक शरीर उत्पन्न हुआ है | ऐसे कई भौतिक शरीरों के माध्यम से यह परमात्मा नित्य ही नाना प्रकार के खेल खेले जा रहा है, जिसे हम ‘प्रभु की लीला’ कहते है |  
      प्रभु की इस लीला में मनुष्य कैसे भ्रमित हो जाता है, आइये गीता के इस महत्वपूर्ण श्लोक की ओर चलते हैं-
              अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः |
              परं भावमजानन्तो  ममाव्ययमनुत्तमम् || गीता-7/24 ||
अर्थात बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं |

       परमात्मा के खेल को समझना आसान कार्य नहीं है | अपने ही स्वरूप को देखने के लिए उसने स्वयं को मनुष्य बनाया और स्वरूप का ज्ञान कराने वाले उस मनुष्य को ही भ्रमित कर दिया | ऐसा परमात्मा ने क्यों किया ? परमात्मा को अपना खेल निरंतर खेलते रहना है | अगर मनुष्य इस खेल से भ्रमित नहीं होता और परमात्मा उसके माध्यम से अपना स्वरूप देख लेते तब तो यह खेल कभी का ही समाप्त हो गया होता और फिर 84 लाख योनियाँ भी अस्तित्व में नहीं आती | तब यह संसार-चक्र भी शीघ्र ही समाप्त हो गया होता | परमात्मा अव्यक्त से व्यक्त होकर मनुष्य बने इसीलिए ही मनुष्य को व्यक्ति कहा जाता है | व्यक्ति में उपस्थित मन, कामनाओं का उद्गम स्थल है | उन कामनाओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है और कर्म सदैव कर्म-फल पैदा करते हैं | इन कर्म-फलों को प्रदान करने के लिए ही परमात्मा को मनुष्य के अतिरिक्त 84 लाख अन्य प्रकार के प्राणी भी पैदा करने पड़े | इतना सब करने के बाद वह प्रत्येक प्राणी के भीतर छुपकर बैठ गया है और साक्षी भाव से निरंतर अपने बनाये इस खेल का आनंद ले रहा है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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