ज्ञान-विज्ञान-29
समस्त ब्रह्माण्ड की सत्ता ‘परम-ब्रह्म’ में समाहित है | ‘परम’ में ‘परा’ और ‘अपरा’ दोनों ही निहित है | ‘परम’ अव्यक्त है, ‘परा’ भी अव्यक्त है परन्तु ‘अपरा’ व्यक्त है | ‘परम’ अपने आप को व्यक्त करना चाहता है ( एकोSहम बहुस्यामि ) इसलिए वह ‘परा’ को ‘अपरा’ में प्रवेश कराता है | ‘परा’ के ‘अपरा’ में प्रवेश करते ही ‘परा’ भी व्यक्त हो जाती है और ‘परम’ भी | यहाँ पर आकर ‘परा’ में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो जाता है | वह अपने मूल स्वरूप ‘परम’ को भूला देती है और अपने आप को ‘अपरा’ समझने लगती है जबकि ‘परम’ के साथ ऐसा नहीं है, उसमें केवल इस प्रकार का ही नहीं बल्कि किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है | ‘परा’ में आया यह परिवर्तन ही संसार-चक्र के निर्बाध गति से चलते रहने का मूल कारण है | जिस दिन ‘परा’ समझ जाएगी कि वह ‘अपरा’ न होकर ‘परम’ है, वह ‘अपरा’ से सदैव के लिए मुक्त हो जाएगी | ‘अपरा’ उसकी सहोदर अवश्य है परन्तु दोनों की प्रकृति अलग है |
आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक कहानी सुनाया करते हैं | एक शेर का बच्चा पैदा होते ही अपनी माँ से बिछड़ जाता है और भेड़ों के झुण्ड के साथ हो जाता है | वह भेड़ों की तरह ही मिमियाता हुआ बड़ा होता है, अपने आपको एक भेड़ ही समझने लगता है और उन्हीं के संसार में आनंदित रहता है | एक बार एक शेर उसको देख लेता है और उसको समझाता है कि तू कहाँ भटक गया है, तू तो एक शेर है, क्यों भेड़ बना हुआ मिमिया रहा है ? परन्तु उस शेर के बच्चे पर इस बात का कोई असर नहीं होता | आखिर उसे समझाने के लिए शेर दहाड़ता है | सभी भेड़ें भाग जाती है | शेर उसे अपनी तरह ही दहाड़ने को कहता है | आखिर हिम्मत कर वह शेर का बच्चा भी एक दहाड़ लगाता है | दोनों की आवाज में समानता महसूस कर उसको लगता है कि उसने इतने वर्ष अपने को एक भेड़ समझकर बड़ी भारी भूल की है | इस प्रकार वह अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हो जाता है |
ठीक उस शेर के बच्चे की हालत की तरह ही हमारी भी हालत है | हम शरीर नहीं है, आत्मा हैं, उस परमात्मा का ही एक अंश | भला एक अंश अपने अंशी से भिन्न कैसे हो सकता है ? जिस दिन परमात्मा हमें इस बात का स्मरण करा देंगे तो हम भी उसी दिन परमात्मा हो जायेंगे | परमात्मा तो हमें अपना स्वरूप कदम दर कदम याद दिलाते रहते हैं परन्तु हम जानबूझकर अपने आप को भेड़ के आवरण से बाहर नहीं निकाल पा रहे है | हमें भी उस शेर के बच्चे की तरह प्रयास करना होगा, तभी हम अपने वास्तविक स्वरूप को जान पाएंगे |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||
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