Wednesday, September 7, 2016

ज्ञान-विज्ञान-31

        इस भोग से मुक्ति के सम्बन्ध में एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | एक सिद्ध महात्मा थे, जिन्होंने अपने जीवन में बाल्यकाल से ही घर त्याग दिया था | वह जीवन में कभी भोगी रहे ही नहीं थे, ज्ञान को उपलब्ध होकर योगी हो गए थे | कहीं एक स्थान  पर कभी अधिक समय तक ठहरते भी नहीं थे | इस प्रकार एक सन्त का जीवन जीते हुए भ्रमण करते हुए एक गाँव में कुछ समय के लिए रुके | जिस स्थान पर वे ठहरे हुए थे वहां से मंदिर तक जाने के लिए जिस मार्ग से उन्हें गुजरना होता, उस मार्ग पर एक वेश्या का घर पड़ता था | जब भी वे मंदिर जाने के लिए अपने निवास स्थान से निकलते, वेश्या अपने घर की अटारी से उन्हें पूछती कि स्वामी जी आप कच्चे सन्त है अथवा पक्के ? सन्त उस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं देते | प्रतिदिन का यह एक नियम सा बन गया था कि इधर महात्मा जी घर से निकलते और उधर वेश्या उनसे यही प्रश्न पूछती और सन्त उसे हमेशा की तरह कोई उत्तर नहीं देते |

        सर्दी की एक रात महात्मा जी चल बसे | गाँव वालों ने उनकी बैकुंठी बनाई और अंतिम संस्कार समाधि के लिए ले जाने लगे | वही रास्ता और वही वेश्या का घर | अटारी से बैकुंठी देखकर वेश्या के मुंह से निकल ही गया – ‘हाय ! स्वामी जी तो मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही चले गए |’ कहते हैं कि स्वामी जी के शरीर में उसी समय हलचल हुई और वे बोल उठे कि ‘मैं एक पक्का सन्त हूँ | पहले इस प्रश्न का उत्तर इस लिए नहीं दे सका था क्योंकि मुझे स्वयं पर काम-भोग पर नियंत्रण कर लेने का विश्वास नहीं था | अब यह देह नहीं रही इसलिए आज मुझे विश्वास हो गया है कि मेरी काम-भोग पर अब कभी भी आसक्ति नहीं हो सकती, इसलिए अब मैं एक पक्का सन्त हूँ |’ एक कहानी मात्र हो सकती है यह बात, परन्तु इसमें यह एक सत्यता भी छुपी हुई है कि काम और भोग की लालसा जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती | कोई विरला ही इससे जीते जी मुक्त हो सकता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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