दिनांक-16/9/2016
सायंकालीन सत्र
आज सायं कालीन सत्र में आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा को शीघ्र प्राप्त करने का मार्ग नाम-जप को
बतलाते हुए कहा कि नाम, नामी से बड़ा है | सदैव नाम-जप करते रहने से परमात्मा आपके
लिये सदैव उपलब्ध रहेंगे | ज्ञान-मार्ग से नाम-जप को अधिक सुगम बताते हुए उन्होंने
कहा कि भक्त रैदास, मीरा बाई और करमा बाई अधिक पढ़े-लिखे न होने के बाद भी नाम-जप
के सहारे भगवान को प्राप्त कर चुके हैं | उन्होंने जोधपुर की फूली बाई का
दृष्टान्त दिया और बताया कि वे अनपढ़ थी और सदैव राम-राम जपती रहती थी | वह गोबर से
थेपड़ी बनाती थी | थेपड़ी बनाते समय जब वह गोबर थापती थी, तब भी सदैव राम नाम जपती रहती
थी | जब कभी किसी अन्य की थेपड़ियों के साथ
उसकी थेपड़ियां मिल जाती थी, कहा जाता है कि जो-जो थेपड़ी राम का नाम उच्चारित करती
थी, वह सब फूली बाई की ही है, पहचान ली जाती थी | इस राम नाम के जप का इतना अधिक
प्रभाव था कि उनके द्वारा थापी गई प्रत्येक थेपडी भी पड़ी-पड़ी राम नाम उच्चारित
करती रहती थी |
नाम-जप की महिमा पर और आगे बोलते
हुए आचार्य जी कहते हैं कि नाम का ह्रदय की गहराई से परमात्मा के स्वरूप को ध्यान
में रखते हुए गुप्त रूप से करना चाहिए | नाम-जप के स्थान के बारे में स्पष्ट करते
हुए उन्होंने कहा कि इसमें न तो किसी प्रकार के विधि-विधान की आवश्यकता है और न ही
किसी स्थान का | नाम जप कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है | नाम
जप में परमात्मा के प्रति श्रद्धा का महत्त्व है, ज्ञान, स्थान और विधि-विधान सब
गौण है | प्रवचन प्रारम्भ करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि परमात्मा
हमारे भीतर ही बैठे हैं, उन्हें ढूँढने के लिए कस्तूरी मृग की तरह बाहर भटकना एक
भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
|| हरिः
शरणम् ||
दिनांक-17/9/2016
प्रातः कालीन सत्र
आज इस सत्र में ‘शरणागति’ विषय पर आगे प्रवचन
करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा पर आश्रित रहने का महत्त्व
समझाया | आश्रय और शरणागति में कोई अंतर नहीं है | एक परमात्मा का आश्रय ही
व्यक्ति को भयमुक्त करने के लिए पर्याप्त है | उन्होंने गीता के 7/16 श्लोक को
उद्घृत करते हुए बताया कि परमात्मा कहते हैं कि चार प्रकार के भक्त मुझे भजते
हैं-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी | आर्त अर्थात दुःख से परेशान व्यक्ति,
अर्थार्थी अर्थात सुख सुविधाओं और धन की कामना करने वाला, जिज्ञासु अर्थात
परमात्मा को जानने की भावना रखने वाला और ज्ञानी अर्थात परमात्मा के वास्तविक
स्वरूप को जानने वाला | इन सब में ज्ञानी भक्त मुझे सबसे प्रिय है | उपरोक्त चारों
प्रकार के भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप है |
परमात्मा द्वारा ज्ञानी के अतिरिक्त अन्य प्रकार के भक्तों को भी उदार बताने को
स्पष्ट करते हुए कहा कि परमात्मा को भजने वाला प्रत्येक भक्त उदार ही है, क्योंकि
उसने अपनी कामना को पूरा करने के लिए एक परमात्मा का आश्रय ही लिया है |
परमात्मा के आश्रय से व्यक्ति
भयमुक्त हो जाता है, इसको स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख
दास जी महाराज के द्वारा दिया गया बकरी और शेर का दृष्टान्त सुनाया | एक बकरी अपने
झुण्ड से बिछड़ कर जंगल में भटक गयी | रात होने को थी और उसे अपने स्वामी के घर का
रास्ता नहीं मिल रहा था | उसे अब स्वयं के शिकार बन जाने का भय सता रहा था | सहसा
उसे शेर का एक पद चिन्ह दिखाई दिया | वह उसी का आश्रय लेकर वहीँ पर बैठ गई | रात
को विभिन्न प्रकार के शिकारी जानवर उसे खाने के ;लिए आये | प्रत्येक बार उसने शेर
के पद चिन्ह की और इशारा करते हुए कहती गई कि मैं तो इनके आश्रय यहां पर बैठी हूँ |
सभी जंगली जानवर शेर की कल्पना कर के ही डर कर भाग छूटे | आखिर में एक शेर उसे
खाने के लिए आ ही पहुंचा | बकरी ने तुरंत ही उसके पद चिन्ह की और इशारा कर दिया और
कहा कि मैं तो अब आपके ही आश्रय हूँ, चाहो तो मार डालो और चाहो तो छोड़ दो | भला,
शेर अपने पर आश्रित को कैसे मार सकता था ? यही बात परमात्मा का आश्रय लेने पर है |
परमात्मा का आश्रय लेने का एक ही अर्थ है, सब कुछ भगवान के भरोसे छोड़ दो | तब
परमात्मा कहेंगे-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ अर्थात अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की
रक्षा करना अब पर मेरा कार्य है |(गीता-9/22)
प्रवचन का प्रारम्भ आचार्यजी
ने भरत के चित्रकूट प्रस्थान करने से किया जहाँ वे अपने बड़े भाई श्री राम से मिलने
जा रहे थे | भरत जी कह रहे हैं कि जब मैं अपनी माता कैकेई के कर्मों को देखता हूँ
तो मेरे पैर दो कदम पीछे हट जाते हैं क्योंकि अपनी माता के कारण ही श्री राम को
वनवास हुआ था, माताओं को वैधव्य प्राप्त हुआ था और सीता तथा लक्ष्मण को राम के साथ
वन में भटकना पड़ रहा है | जब भरत अपने बारे में विचार करते हैं तो उनके कदम ठिठक
जाते है | परन्तु जब भगवान श्री राम के उदार ह्रदय का विचार मन में आता है तो यही पैर
तेजी से आगे चित्रकूट की तरफ बढ़ने लगते हैं | इस दृष्टान्त से परमात्मा की उदारता
का हमें ज्ञान होता है | आज के इस प्रवचन का समापन करते हुए आचार्यजी ने कहा कि
अगर परमात्मा को कुछ भी अपना मानकर अर्पण करते हो तो वे उससे कई गुना आपको वापिस लौटा
देते हैं परन्तु जिस समय आप परमात्मा को उन्हीं का उन्हीं को अर्पित कर देते हैं,
तब परमात्मा अपना सर्वस्व स्वयं के सहित आपको दे देते है | परमात्मा का आश्रय लेने का अर्थ यही है कि आप उसी परमात्मा
के स्वरूप हो, अपने आपको उसी के आश्रित कर दें | वास्तविक शरणागति यही है |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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