ज्ञान-विज्ञान को जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता परन्तु फिर भी एक
प्रकार की अतृप्ति शेष रह ही जाती है और वह जीवन भर तब तक बनी रहती है, जब तक कि व्यक्ति
परमात्मा के परायण नहीं हो जाता | इस परायणता को उपलब्ध होते ही वह महात्मा की
श्रेणी में आ जाता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को महात्मा के बारे में
कहते हैं –
बहूनां जन्मनामन्ते
ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा
सुदुर्लभः || गीता-7/19 ||
अर्थात बहुत जन्मों के अंत के जन्म में
तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा
अत्यंत दुर्लभ है |
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि कई जन्म लग
जाते हैं, एक भोगी को, अपने आप को एक योगी के रूप में परिवर्तित करने में | ऐसे
योगी को ‘तत्त्व ज्ञान को प्राप्त हुआ पुरुष’ कहा जा सकता है | जिस मनुष्य जन्म
में ऐसा योगी परमात्मा के परायण हो जाता है, वह उसका आखिरी जन्म होता है, उसके बाद
पुनर्जन्म की कोई सम्भावना नहीं बनती है | बहुत जन्मों के अंत में अर्थात कई मनुष्य
की योनि प्राप्त कर लेने के बाद किसी एक मनुष्य जन्म में ऐसा अवसर आता है जब वह
योगी महात्मा की अवस्था को उपलब्ध होता है | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसा
महात्मा सुदुर्लभ है | दुर्लभ और सुलभ, ये दो शब्द तो हमने बहुत बार सुने हैं
परन्तु सुदुर्लभ शब्द केवल एक बार यहीं गीता में आया है | दुर्लभ जब उपलब्ध हो
जाये तब ऐसे दुर्लभ के उपलब्ध हो जाने से परमात्मा को बड़ी प्रसन्नता होती है इसीलिए
भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ सुदुर्लभ शब्द का उपयोग किया है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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