Tuesday, September 6, 2016

ज्ञान-विज्ञान-30

ज्ञान-विज्ञान-30
इतने विवेचन के बाद या स्पष्ट है कि ज्ञान और विज्ञान दोनों ही परमात्मा के अंतर्गत ही है | दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं | किसी एक को जान लेने के बाद दूसरे को जाना जा सकता है | ज्ञान का केवल शारीरिक सुख के लिए उपयोग किया जाये तो वह अविद्या कहलाता है और अगर इसका उपयोग पारमार्थिक उन्नति हेतु किया जाये तो यह विद्या कहलाता है | अविद्या कभी भी परमात्मा का ज्ञान नहीं करा सकती जबकि यह भी एक विज्ञान है | विद्या केवल वही ज्ञान कहलाता है, जो कि परमात्मा का ज्ञान करा दे | इसका अर्थ यह नहीं है कि विज्ञान व्यर्थ है | विज्ञान को जानकर ज्ञान तक आसानी से पहुंचा जा सकता है |
ज्ञान-विज्ञान का चाहे जितना विवेचन कर लिया जाये, अपर्याप्त ही लगता है | यह एक ऐसा विषय है, जिस पर कई महात्मा पहले भी बहुत कुछ लिख चुके है अथवा प्रवचन कर चुके हैं फिर भी जरा अपनी मानसिकता पर तो दृष्टि डालिए, देखिये हम अभी भी जड़ और स्थूल को ही अधिक महत्त्व दे रहे हैं | कमी हमारे में है, न कि शास्त्रों और संतों में | हमारी दृष्टि ही ऐसी हो गयी है कि यह शरीर और शारीरिक सुखों के अतिरिक्त कुछ भी देखना नहीं चाहती | जब तक हमारी मानसिकता में 180 डिग्री तक का परिवर्तन नहीं आएगा, इस संसार के आवागमन से मुक्त नहीं हो सकते | यह परिवर्तन हमारे द्वारा अपनी परा प्रकृति में परिवर्तन लाने से ही सम्भव है |
विज्ञान से ज्ञान की अवस्था को प्राप्त करते ही आप एक साधारण मनुष्य से योगी की अवस्था में पहुँच जाते हैं | योगी बनकर ही मानसिकता में 180 डिग्री का परिवर्तन लाया जा सकता है | संसार के सम्मुख होने की अवस्था से स्वयं को परिवर्तित कर संसार से विमुख हो जाना है | भोगी से योगी हो जाना है | इससे आगे आपका योगी से महात्मा बनना ही शेष रहता है और ऐसा परमात्मा के परायण होने से ही संभव है | भोगी से योगी की यात्रा ही कठिनतम यात्रा है | व्यक्ति अपने शरीर की अंतिम अवस्था आने पर शरीर को त्याग सकता है परन्तु भोग और भोग की कामना कभी भी नहीं छोड़ पाता है | यही कारण है कि वह इस संसार के आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||

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