Friday, September 2, 2016

ज्ञान-विज्ञान-26

ज्ञान-विज्ञान-26
विज्ञान सहित ज्ञान का अभिप्राय इन तीनों पुरुषों को जान लेना ही है | इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद इस संसार में और कुछ जानने योग्य शेष नहीं रह जाता है | परिवर्तनशील जड़ प्रकृति के ज्ञान को अविद्या कहा गया है और अविनाशी जीवात्मा के ज्ञान को विद्या कहा गया है | श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है-
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते
विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे |
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोSन्यः || श्वेत. उप. 5/1 |
अर्थात जिस ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ छिपे हुए असीम और परम अक्षर परमात्मा में विद्या और अविद्या दोनों स्थित है, वही ब्रह्म है | यहाँ विनाशशील जड़ वर्ग तो अविद्या नाम से कहा गया है और अविनाशी वर्ग अर्थात जीवात्मा ही विद्या नाम से कहा गया है तथा जो उपर्युक्त विद्या और अविद्या पर शासन करता है वह परमात्मा इन दोनों से भिन्न और विलक्षण है |
यह मन्त्र इस बात को पुष्ट करता है कि अविद्या और विद्या दोनों का आधार केवल परमात्मा है | जड़ तत्व की भी अपनी महता है क्योंकि वह भी परमात्मा जनित ही है और जिसके बिना चेतन का व्यक्त रूप लेना असंभव है | दूसरे शब्दों में कहें तो कहा जा सकता है कि जड़ और चेतन एक दूसरे के पूरक हैं | बिना चेतन के जड़ कुछ भी नहीं है और जड़ के अभाव में चेतन | समस्या जड़ और चेतन के ज्ञान की नहीं है बल्कि केवल जड़ का ज्ञान प्राप्त कर उसी में रमे रह जाने की है | जड़ का ज्ञान भी आवश्यक है परन्तु ऐसे ज्ञान की एक निश्चित सीमा है जबकि वास्तविक ज्ञान असीम है | सीमा बंधन पैदा करती है जबकि असीम मुक्त करता है | सारे खेल मन के है | मन को सीमा में मत बांधो, उसे असीम के साथ हो जाने दो | मन अगर जड़ संसार में आसक्त हो गया तो वह अपनी एक सीमा निर्धारित कर लेगा | मन को परमात्मा में लगा दो, असीम के प्रति आसक्त कर दो, अपने आपको ज्ञान और परमात्मा के द्वार पर खड़ा पाओगे | हमारे अंतर्मन का ज्ञान-विज्ञान का द्वंद्व तभी मिट पायेगा जब हम इन दोनों अर्थात ज्ञान और विज्ञान पर शासन करने वाले परमात्मा को जान जायेंगे | परमात्मा को जानने का मार्ग भी इस विज्ञान और ज्ञान से ही होकर निकलता है | अतः जड़ और चेतन दोनों का ही ज्ञान होना परमात्मा को जानने के लिए आवश्यक है | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता में विज्ञान सहित समस्त ज्ञान का उपदेश दिया था |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

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