Saturday, September 17, 2016

अथ आचार्य उवाच-1

दिनांक-16 सितम्बर 2016 प्रातः कालीन सत्र
        आज से अग्रसेन-भवन सुजानगढ़ में सप्त दिवसीय दुर्लभ भक्ति ज्ञान-यज्ञ का शुभारम्भ हुआ जिसमें प्रातःकालीन सत्र में हरि शरणम् बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने ‘शरणागति’ विषय पर चर्चा प्रारम्भ करते हुए बताया कि ज्ञान और भक्ति में भक्ति अधिक श्रेष्ठ है | भक्ति प्रेम से परिपूर्ण है जबकि ज्ञान शुष्क है | ज्ञान से व्यक्ति ब्रह्म को तो अवश्य जान जाता है परन्तु फिर भी एक प्रकार की पूर्णता का अभाव सदैव बना रहता है जबकि भक्ति में व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध हो जाता है | ज्ञान एक निरा सूखे ठूंठ के समान है जबकि भक्ति पुष्प व फलों से लदा हुआ हरा-भरा एक पल्लवित पेड़ है | ज्ञान अहंकार पैदा करता है और व्यक्ति चाहे कितना ही ज्ञानी हो जाये, उसमें सूक्ष्म अहंकार सदैव बना ही रहता है जबकि भक्ति में व्यक्ति सदैव नम्र एवं नत रहता है |
                 ‘शरणागति’ विषय पर प्रवचन करने की शुरुआत उन्होंने दो दृष्टान्त देते हुए की | प्रथम दृष्टान्त में एक देश का राजा विदेश यात्रा पर था | उसके कई रानियाँ थी | उन्होंने प्रत्येक रानी को अपनी मनचाही वस्तु एक कागज पर लिख कर देने को कहा जो उन्हें वह विदेश से लाकर वह उसे उपहार स्वरूप देगा | किसी ने हीरे-जवाहरात की मांग की, किसी ने गहनों की और किसी ने मनपसंद कपड़ों की | सबसे छोटी रानी ने कागज पर केवल “एक” लिखकर राजा को दे दिया | राजा ने पूछ-इस एक का क्या अर्थ है ? रानी ने कहा मुझे तो बस, केवल एक आप ही चाहिए, मुझे किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है | इसी प्रकार हमें भी केवल परमात्मा ही प्रिय होने चाहिए अन्य सब केवल माया है और कुछ नहीं है | दूसरा दृष्टान्त उन्होंने अर्जुन और दुर्योधन का दिया | महाभारत युद्ध से पहले जब श्री कृष्ण के पास दोनों कुछ लेने को गए तो अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को माँगा और दुर्योधन ने भगवान की सेना को | उस युद्ध का परिणाम हमारे सामने है | अतुलनीय बल वाली सेना को पराजय का सामना करना पड़ा और विजय श्री अर्जुन को मिली, जिसके साथ भगवान श्री कृष्ण थे | कृष्ण भगवान महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बने थे | शास्त्रों में बुद्धि को सारथी कहा गया है जबकि भौतिक शरीर को रथ | जिस व्यक्ति के बस में उसका सारथी हो, रथ उसका विजय-दिशा की और चल पड़ेगा |
              उपरोक्त दो दृष्टान्त स्पष्ट करते हैं कि भगवान में अटूट श्रद्धा ही व्यक्ति को सदैव आनंदित करती है, संसार में अन्य कोई नहीं | भगवान में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने का नाम ही शरणागति है | शरणागत को जीवन में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती | रावण के जीते जी और लंकेश होते हुए भी भगवान श्री राम ने समुद्र के पानी से विभीषण का राज तिलक करते हुए उसे लंकेश कहकर संबोधित किया था | इसका एक मात्र कारण विभीषण का परमात्मा के प्रति शरणागत होना था |
कल इस विषय पर आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा आगे चर्चा करेंगे |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

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