आज हम ज्ञान-विज्ञान के विवेचन के
अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचे है | सातवें अध्याय के 25 वें श्लोक से 29 वें श्लोक तक ज्ञान-विज्ञान
को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि परमात्मा और मनुष्य एक ही है, अंतर केवल इतना है
कि मनुष्य अपने इस वास्तविक स्वरूप को पहचान नहीं पा रहा है | इस स्वरूप को
पहचानने के लिए उसे परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए विज्ञान सहित ज्ञान
का आश्रय लेना पड़ेगा | इस अध्याय के अंतिम श्लोक में उन्होंने अधिभूत और अधिदैव सहित
अधियज्ञ को जानने वाले को ही आत्मरूप को जान लेना माना है | अधिभूत में परमात्मा
की वे सभी कृतियाँ आ जाती है जो बार-बार उत्पन्न और समाप्त होती रहती है | इस प्रकार
अधिभूत का ज्ञान शरीर और स्थूलता का ज्ञान है, अतः इसे विज्ञान कहा जाता है |
अधिदैव ज्ञान के अंतर्गत हिरण्यमय पुरुष अथवा ब्रह्मा तथा जीवात्मा का ज्ञान आता
है, जिसको जानने का प्रयास ही विज्ञान से ज्ञान की यात्रा है | अधियज्ञ ही साक्षात्
परमात्मा है जिसके अंतर्गत अधिभूत और अधिदैव दोनों ही आ जाते हैं | अधिभूत और
अधिदैव सहित अधियज्ञ को जान लेना ही सम्पूर्ण ज्ञान है |
किसी भी प्रकार का विवेचन कभी
भी अर्थहीन नहीं होता | अगर कोई वस्तु 100 चोटों के मारने से टूटती है, इसका अर्थ यह
नहीं है कि पहले मारी गयी 99 चोटें व्यर्थ ही थी | सभी चोटें उस वस्तु को कमजोर करती
गयी और अंत में उस वस्तु के टूटने का श्रेय 100 वीं चोट को मिला | इस विवेचन में
एक ही बात को अलग-अलग तरीके से कई बार कहा गया है, जिससे व्यक्ति का स्थूल के
ज्ञान अर्थात विज्ञान को ही ज्ञान मान लेने का भ्रम टूटे | इस भ्रम के टूटने से ही
उसकी संसार से निवृति और परमात्मा की ओर प्रवृति होगी | इस विवेचन से जो एक समीकरण बन कर
निकला है, वह आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ |
भोगी (विज्ञान) à योगी (ज्ञान) à महात्मा (परमात्मा के परायण)
मैंने एक प्रयास किया है, विज्ञान
और ज्ञान को अपनी अल्प बुद्धि से स्पष्ट करने का | मेरा उद्देश्य विज्ञान और ज्ञान के मध्य पैदा की गई विषमता को दूर
करना है | कितना सफल रहा हूँ, आप ही निर्णय कर सकते हैं | मैं यह नहीं कहता कि यह विवेचन आपको ‘परम’ का ज्ञान करवा ही देगा
परन्तु इतना अवश्य हो सकता है कि आपके मन में उस परमपिता को जानने की उत्सुकता पैदा
हो जाये | फिर आप उस महापुरुष के पास जाकर उस परम ब्रह्म को जान सकते हैं, जिसे
गुरु कहा जाता है | कठोपनिषद कहती है-
उत्तिष्ठत
जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत |
क्षुरस्य
धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ||कठो.-1/3/14 ||
अर्थात
हे मनुष्य उठो; जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर यानि उनके पास जाकर उस परम
ब्रह्म परमेश्वर को जान लो; त्रिकालज्ञ ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को, छुरे की
तीक्ष्ण की गई धार पर चलने के सदृश दुर्गम बताते हैं |
मेरी परमपिता परमेश्वर से यही
प्रार्थना है कि हम सबको ऐसे सद्गुरु मिले जो विज्ञान सहित ज्ञान प्रदान करे जिससे
हम अपने परमात्म स्वरूप को पहचान सके | आशीर्वाद स्वरूप मिले इस मानव जन्म की तभी
सार्थकता है |
आप सभी का आभार |
|| हरिः
शरणम् ||
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