दिनांक-17/9/2016
सायं कालीन सत्र-
आज शाम के सत्र में प्रवचन करते हुए आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा ने ‘परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति कैसे हो ?’ पर अगला सूत्र
प्रस्तुत किया | नाम-जप अर्थात स्मरण को अल्प रूप से स्पष्ट करते हुए वे दूसरे
सूत्र की तरफ उन्मुख हुए | परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति का दूसरा सूत्र है-
प्रार्थना | परमात्मा की ह्रदय से की गई पुकार, उन्हें आपके द्वार तक खींच ले आती
है | परमात्मा की प्रार्थना में इतनी शक्ति है कि परमात्मा को आना ही पड़ता है |
गीता के 7/16 श्लोक को पुनः उद्घृत करते हुए उन्होंने आर्त,
अर्थार्थी और जिज्ञासु भक्त को ज्ञानी भक्त के समान ही उदार बताने को और अधिक
स्पष्ट किया | आचार्य जी कहते हैं कि निजी कामना प्रभु के समक्ष रखना कतई अनुचित नहीं है |
बस, आपकी कामना पूर्ति के लिए भगवान से की गई प्रत्येक प्रार्थना में ‘सर्वे
भवन्तु सुखिनः’ का भाव होना चाहिए | किसी दूसरे का अहित होने की सम्भावना आपकी
कामना में हो, ऐसी प्रार्थना करना ही अनुचित है |
निर्मानमोहा जितसंगदोषा-
अध्यात्मनित्या विनिवृतकामाः |
द्वंद्वैर्विमुक्ता: सुखदुःखसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्
|| गीता-15/5 ||
अर्थात जिनका
मन-मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा
के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं-वे
सुख-दुःख नामक द्वंद्व से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं
|
उपरोक्त श्लोक को स्पष्ट करते हुए आचार्य जी ने
कहा कि द्वंद्व ही ह्रदय से पुकार में बाधक है | परमात्मा की शरण लेने से ही
व्यक्ति द्वंद्वों से मुक्त हो सकता है | द्वंद्व के कारण व्यक्ति परमात्मा के
आश्रित होने में संशयग्रस्त रहता है | सभी द्वंद्वों से मुक्त होकर की गयी
प्रार्थना ही वास्तविकता में ह्रदय की पुकार होती है | प्रवचन समाप्ति से पूर्व
आचार्य जी ने द्रोपदी, कुंती, उत्तरा, ध्रुव और प्रह्लाद आदि भक्तों की
प्रार्थनाएं, जो कि श्री मद्भागवत महापुराण में वर्णित हैं, प्रस्तुत की |
दिनांक
18/9/2016 प्रातः कालीन सत्र –
आध्यात्मिक मार्ग पर
चलने वाले के लिए समस्त शास्त्रों का सार एक शरणागति ही है | शरणागति में व्यक्ति
को किसी बात की चिंता नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसकी चिंता स्वयं परमात्मा करते हैं |
‘चिंता दीनदयाल को, मो मन परमानन्द’ को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री गोविंद राम
शर्मा ने कहा कि हमारा स्वरूप सच्चिदानंद स्वरूप है और यही स्वरूप परमात्मा का भी है
| अतः हमारे द्वारा स्वयं की चिंता करनी व्यर्थ है | अपने आपको परमात्मा का मानते
हुए सभी कार्य परमात्मा पर छोड़ दें | परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी
महाराज कहा करते थे कि सदैव यह रटते रहें कि मैं भगवान का हूँ और भगवान
मेरे हैं | इस प्रकार कल से आगे ‘शरणागति’ विषय पर बोलते हुए आचार्य श्री गोविन्द
राम शर्मा ने कहा कि परमात्मा के शरणागत हो जाने मात्र से ही संसार के सारे दुखों
से छुटकारा मिल जाता है |
संसार के दुःख किस –किस प्रकार के हैं,
इनको स्पष्ट करने के लिए आचार्य जी ने ऋषि
पतंजलि को उद्घृत किया | ऋषि पतंजलि के अनुसार दुःख के पांच कारण होते हैं -
अज्ञान, अस्मिता राग, द्वेष और मृत्यु का भय | हमारा सबसे बड़ा अज्ञान यह है कि हम अपने
आपको परमात्मा होना न मानकर संसार का होना मानने लगे हैं | अस्मिता अर्थात हमारा
अहंकार इतना अधिक बढ़ गया है कि सब कुछ अपने द्वारा ही होना मान रहे हैं | थोड़ी
धन-समाप्ति एकत्रित होते ही हमें सब कुछ बौना नज़र आने लगता है | यही हमारा अहंकार ही
है, जो हमें परमात्मा से दूर कर देता है | हमारे आपस होने का राग और किसी अन्य के
पास होने का द्वेष हमारा जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता | राग-द्वेष हमारे दुःख के
महत्वपूर्ण कारण है | संसार में मृत्यु का भय सबसे बड़ा भय है | हम सभी जानते हैं
कि मृत्यु ही इस संसार का शाश्वत सत्य है, फिर भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं |
दिन-रात मृत्यु से डरकर उससे बचने की कोशिश में लगे रहते हैं, यह जानते हुए भी कि प्रत्येक जन्म लेने वाले की एक न एक दिन
मृत्यु होनी निश्चित है | मृत्यु इस भौतिक शरीर की होती है जबकि आत्मा अविनाशी है
और हमारा स्वरूप भी अविनाशी है | फिर भी हमें जीवन भर मृत्यु का भय सताता रहता है |
एक परमात्मा के शरणागत होना ही हमें संसार के इन समस्त दुःखों मुक्त कर देता है |
शरणागति की विशेषताओं का वर्णन
करते हुए आचार्य जी ने एक शरणागत में उपस्थित पाँच विशेषताओं का विस्तृत रूप से
विवेचन किया | ये विशेषताएं है, निर्भय होना , निशंक होना , निशोक होना और
निश्चिंत होना | निर्भय हो जाने से
तात्पर्य यह है कि उस शरणागत को संसार के बड़े से बड़े भय से मुक्ति मिल जाती है,
यहाँ तक की मृत्यु का भय भी मिट जाता है | परमात्मा में किसी भी प्रकार की शंका न
रखना ही निशंक हो जाना है | संसार में उसे किसी भी प्रकार का दुःख व्यथित नहीं कर
सकता, यह उसके निशोक हो जाने की पहचान है | इसी प्रकार संसार की समस्त प्रकार की
चिन्ताओं से मुक्त हो जाना ही निश्चिन्त हो जाना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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