Friday, September 9, 2016

ज्ञान-विज्ञान-33

            गीता का यह सातवाँ अध्याय ज्ञान-विज्ञान योग नाम से कहा गया है, इसमें कुल तीस श्लोक है | वैसे तो सभी श्लोक एक से बढ़कर एक है और उनकी व्याख्या करना सहज नहीं है | इस ज्ञान-विज्ञान श्रृंखला में वही श्लोक उद्घृत किये गए है और किये जा रहे हैं जिससे विषय-वस्तु को समझा जा सके | 2 से 7 श्लोक तक की इस विज्ञान से ज्ञान के मार्ग को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका है | फिर 8 से 14 वें श्लोक तक परमात्मा अपनी कुछ विभूतियों और भावों का ज्ञान कराते हैं | यहाँ पर वे विज्ञान का विस्तृत रूप से विवेचन करते हैं और अर्जुन को भलीभांति समझा देते हैं कि विज्ञान भी मेरे ही अंतर्गत है |15 वें से 18 वें श्लोक के अंतर्गत वे स्वयं को भजने वाले भक्तों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि ज्ञानी भक्त मुझे सबसे प्रिय है | विज्ञानी से ज्ञानी हो जाने के बाद वे महात्मा होने का मार्ग बताते हैं | 19 वां श्लोक इस बात की पुष्टि करता है कि महात्मा किसे कहते हैं और विज्ञान से ज्ञान की ओर आकर केवल वहीँ पर रूक जाना ही सब कुछ पा लेना नहीं है | परमात्मा को ही सब कुछ मान लेने में ही इस ज्ञान की पूर्णता है अन्यथा समस्त प्राप्त ज्ञान अविद्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | परमात्मा को सर्वस्व मान लेना तभी संभव हो पाता है, जब हम यह समझ जाते है कि ज्ञान असीम है और असीम को पाना है तो भौतिक स्वरूप को त्यागना होगा अर्थात  स्थूल के आधार पर असीम को पाना असंभव है |

            20 वें श्लोक से 23 वें श्लोक तक भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि जब मनुष्य अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न देवी-देवताओं का पूजन करता है, तब मैं उसकी श्रद्धा उसी देवता में स्थिर कर देता हूँ | उन देवताओं को पूजने से प्राप्त हुआ फल भी नाशवान ही होता है | ऐसे देवी-देवताओं को पूजने वाले उन्हीं को प्राप्त होते हैं और संसार-चक्र से मुक्त नहीं हो सकते; जबकि मेरा भक्त चाहे जैसे भी मुझको भजे, वह अंत में मुझे ही प्राप्त होता है | इस प्रकार श्लोक संख्या 8 से 23 तक मैंने अति संक्षिप्त रूप से चर्चा की है | मैं जानता हूँ कि इतना कुछ अपर्याप्त है, परन्तु इस श्रृंखला को थोड़ी गति देने के लिये यह आवश्यक भी है | अब हम 24 वें श्लोक की तरफ चलते हैं, जो कि मुझे गीता के सर्वाधिक प्रिय श्लोकों में से एक श्लोक है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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