परमात्मा ने अपने भीतर दो ‘अपरा’ और ‘परा’
प्रकृतियाँ विकसित की और फिर दोनों का संयोग कराकर स्वयं साक्षी बनकर अपनी ही कृति
के भीतर बैठ गया | उस कृति का नाम ही मनुष्य है | उद्देश्य केवल एक ही था, अपना स्वरूप
जानने का, आनंद प्राप्त करने का | परन्तु मनुष्य ने क्या किया ? वह उस आनंद देने
वाली ‘अपरा’ प्रकृति के ही अधीन हो गया और स्वयं भोक्ता बन बैठा | भीतर बैठे
परमात्मा अपने स्वरूप को देखने का इंतजार करते रहे | जब मनुष्य इस ‘अपरा’ के
वशीभूत होकर विभिन्न प्रकार के द्वंद्व में उलझ गया तब उसे अपने निर्माता की याद
आई | वह उसे ढूँढने बाहर निकल पड़ा, जब कि वह उसके भीतर ही मौजूद है | उसकी बाहर की
यात्रा को भीतर की यात्रा में बदलना होगा तभी वह व्यक्ति-भाव को छोड़कर परम-भाव को
प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं | जिस दिन व्यक्ति परम-भाव को उपलब्ध हो जायेगा,
वही उसका वास्तविक स्वरूप होगा जो कि परमात्मा का ही स्वरूप है | अतः परमात्मा और
व्यक्ति भिन्न न होकर एक ही है, यही सत्य है |
व्यक्ति को व्यक्ति-भाव से परम-भाव की ओर
ले जाने का मार्ग ही विज्ञान से ज्ञान की ओर जाने का मार्ग है | विज्ञान स्थूल को
अधिक महत्त्व देता है, वह माया में उलझा
कर रख देता है जबकि ज्ञान उस माया के अधिष्ठान का ज्ञान कराता है और स्पष्ट करता
है कि यह सब एक खेल और स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है | समझदार वही है जो परमात्मा
के इस खेल के समाप्त होने से पहले ही अपने घर लौट जाये | मृग-मरीचिका है यह माया | यहाँ जल का आभास मात्र है, जल है नहीं | इस संसार में
भी सुख मिलने का आभास होता है परन्तु आज तक वह सुख कभी भी किसी को मिला नहीं है |
अतः जितना शीघ्र हो सके हमें व्यक्ति-भाव का त्यागकर परम-भाव को उपलब्ध हो जाना
चाहिए | वहां पर केवल आनंद ही आनंद है और हमारा वास्तविक स्वरूप भी परमात्मा के
स्वरूप की तरह सच्चिदानंद ही है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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