Monday, September 12, 2016

ज्ञान-विज्ञान-36

           विज्ञान कहता है कि संसार का प्रथम जीव एक कोशिकीय था और एक से दो और दो से चार कोशिकाएं आपस में एक साथ इकट्ठी होते हुए बहु कोशिकीय जीवों की संरचना करती गई | इस जैविक विकास का परिणाम मनुष्य के रूप में आज हमारे सामने है | विज्ञान स्थूल का ज्ञान है और उसने अपनी स्थूल दृष्टि से सही कहा है | मैं विज्ञान की ही एक और महत्वपूर्ण बात की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ और कहना चाहता हूँ कि श्री मद्भागवत महापुराण में यह सब पहले से ही वर्णित है | एक कोशिका से ही मनुष्य के शरीर का निर्माण होता है | माँ से एक कोशिका और पिता की एक कोशिका मिलकर ही मनुष्य के शरीर को बनाने के लिए फिर से एक कोशिका का ही निर्माण करती हैं और फिर उसी एक कोशिका से शिशु के बहुकोशिकीय शरीर का निर्माण होता है | विज्ञान जोर देता है एक कोशिकीय जीव अमीबा से बहुकोशिकीय जीव मनुष्य के विकास होने का, जबकि हमारे ग्रन्थ इससे भी बहुत आगे जाकर कहते हैं कि मनुष्य का बहुकोशिकीय शरीर भी एक कोशिका से ही विकसित होता है परन्तु वह एक कोशिका अमीबा की एक कोशिका से भिन्न है |
            ‘एकोSहम् बहुस्यामि’, यही बात परमात्मा कहते हैं; मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ अर्थात एक कोशिका से अनेक कोशिकाओं में विभाजित होकर व्यक्त हो जाऊँ जिससे अपने स्वरूप को साक्षात् अनुभव कर सकूँ, देख सकूँ | यही बात वे गीता के इस 7/24 श्लोक में स्पष्ट कर रहे हैं | बुद्धि की प्रकृति स्थूल है और स्थूल में सदैव परिवर्तन होता रहता है | जिस व्यक्ति की बुद्धि कार्य नहीं करती उसे बुद्धिहीन कहा जाता है | परमात्मा कहते हैं कि बुद्धिहीन मनुष्य ही मुझको जन्मने और मरने वाला समझता है | वह नहीं समझता की मृत्यु तो केवल मनुष्य के शरीर की होती है तथा व्यक्ति तो केवल परमात्मा की एक अभिव्यक्ति भर है | परमात्मा अविनाशी है और वे अपने स्वरूप को देखने के लिए, उसे समझने के लिए और आनंद प्राप्त करने के लिए ही अव्यक्त से व्यक्ति के रूप में व्यक्त हुए हैं | इसीलिए परमात्मा को सच्चिदानन्दघन कहा जाता है और गंभीरता से अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए विचार करें तो मनुष्य का स्वरूप भी सच्चिदानंद ही है | इससे स्पष्ट है कि अव्यक्त ही व्यक्त होता है अर्थात स्वयं परमात्मा ही व्यक्ति के रूप में व्यक्त हुए हैं | इस बात को गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं परन्तु अर्जुन की बुद्धि बारम्बार भ्रमित हो रही थी, इसलिए 7/24 में वही बात भगवान को दूसरे शब्दों में और स्पष्ट रूप से कहनी पड़ी | गीता के दूसरे अध्याय में उन्होंने अर्जुन को कहा था-
         अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
         अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना || गीता-2/28 ||

                अर्थात हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे और मरने के बाद भी अव्यक्त हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही व्यक्त हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ?
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

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