वेद परमात्मा
की वाणी है अर्थात वेदों में वर्णित सभी कुछ सत है | जब वेद साधारण व्यक्तियों की
समझ से परे होने लगे तब हमारे ऋषि-मुनि आपस में वार्तालाप करते हुए इनका सरलीकरण
करने लगे | इस प्रकार उनके द्वारा वेद में वर्णित बातों का विस्तृत विवेचन और विषय
को ग्राह्य बनाने का कार्य करते हुए विभिन्न उपनिषदों की रचना की गयी | विभिन्न विषयों
को और अधिक सरल बनाते हुए विभिन्न कथाओं में उनका वर्णन करते हुए अठारह पुराण रचे
गए | इस प्रकार हमारे विभिन्न शास्त्रों का प्राकट्य हुआ | आज भी इन शास्त्रों पर
विभिन्न संत जन प्रभावी कार्य करते हुए टीका लिख रहे हैं | इन सब कार्यों के पीछे
एक मात्र उद्देश्य इस संसार के प्रत्येक व्यक्ति तक ज्ञान को पहुँचाना है | इसीलिए
जब हम साधारण भाषा में शास्त्रों पर लिखे गए साहित्य से प्रारम्भ करते हुए पुराण
और उपनिषद् पढ़ने की और बढ़ते हैं, तब एक ही बात परिलक्षित होती है कि इस संसार में
विभिन्नता नज़र आते हुए भी सब का आधार केवल एक परमात्मा ही है |
हमने गीता और भागवत से लेकर
तुलसी और कबीर तक की चर्चा अब तक की है | हमारे उपनिषद् भी इसी बात को पुष्ट करते
हैं और कहते हैं कि परमात्मा से परे कुछ भी नहीं है | श्वेताश्वतर उपनिषद का यह
मन्त्र कहता है कि-
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः
क्षरात्मानावीशते देव एकः |
तस्याभिध्यानाद्
योजनात् तत्त्वभावाद्
भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृतिः ||
श्वेताश्वतर उपनिषद्-1/10 ||
अर्थात प्रकृति तो विनाश शील है; इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृत रूप अविनाशी
है; इन विनाश शील जड़ तत्व और अविनाशी चेतन आत्मा, दोनों को एक ईश्वर अपने शासन में
रखता है | इस प्रकार यह जानकर उस परमात्मा का निरंतर ध्यान करने से; मन को उसमें
लगाये रखने से तथा तन्मय हो जाने से अंत में उसी को प्राप्त हो जाता है और समस्त
माया की निवृति हो जाती है |
प्रत्येक व्यक्ति का मूल स्वरूप अविनाशी ही है परन्तु जड़ शरीर,
इन्द्रियों और विषयों में आसक्ति हो जाने से वह अपने शरीर की मृत्यु को स्वयं की
ही मृत्यु होना मानने लगता है, जबकि वास्तविकता में वह केवल शरीर ही बदलता है |
शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु मानना केवल माया है तथा एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर
में जाना भी उसकी एक माया ही है | जब व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है कि वह शरीर न
होकर अविनाशी आत्मा है, जो स्वयं परमात्मा का ही अंश है और परमात्मा में ही है; तब
समस्त माया की निवृति हो जाती है | एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य है ही नहीं, यह स्पष्ट होते ही वह
परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment