ज्ञान-विज्ञान-18
विज्ञान से ज्ञान की ओर की आगे की यात्रा को समझने के लिए परमात्मा की दूसरी प्रकृति को समझना आवश्यक है | परमात्मा अपनी पहली अपरा प्रकृति का विज्ञान अर्जुन को समझा कर अब दूसरी, परा प्रकृति का ज्ञान प्रारम्भ कर रहे हैं-
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || गीता-7/5 ||
अर्थात हे महाबाहो ! उपरोक्त वर्णित अष्टधा अपरा प्रकृति के अतिरिक्त जो दूसरी प्रकृति, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीव रूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान |
अपरा प्रकृति के आठों तत्व एक साथ मिलकर भी शरीर का निर्माण तो कर सकते हैं, परन्तु वह शरीर अचेतन ही है | अपरा प्रकृति के साथ जब परा प्रकृति का संयोजन होता है, तभी शरीर को चेतनता प्राप्त होती है | यह दूसरी प्रकृति जीव रूपा है अर्थात निर्जीव को जीवन प्रदान करती है | परमात्मा की इस दूसरी प्रकृति के बिना इस संसार में जीवन असंभव है | यह दूसरी परा प्रकृति ही इस संसार के जीवन-चक्र का आधार है |
वास्तव में देखा जाए तो अष्टधा प्रकृति केवल स्थूल से सम्बंधित है और स्थूल सदैव ही परिवर्तनशील है | परा प्रकृति जो स्थूल को चेतनता प्रदान करती है, वह सूक्ष्म प्रकृति है | दोनों प्रकृतियाँ एक ही परमात्मा की देन है, फिर भी दोनों भिन्न है | समस्या तो तभी पैदा होती है जब चेतन प्रकृति को भूलकर मनुष्य अपने आपको केवल स्थूल प्रकृति का ही समझने लगता है | आप स्वयं चेतन है और आपका यह भौतिक शरीर अचेतन है, फिर आप यह शरीर कैसे हो सकते हैं ? हमारी भूल यही तो है कि हम अपने आप को मात्र एक शरीर ही समझने लगे हैं | आप नाव से नदी पार कर सकते है परन्तु नदी पार करने के लिए आप नाव में बैठकर स्वयं नाव तो नहीं हो जाते न | यह शरीर भी आपको संसार सागर से पार जाने के लिए नाव की तरह एक उपकरण मात्र मिला है | इसे पार उतरने का एक साधन भर समझो | केवल और केवल इसी को सुरक्षित रखने को ही साध्य मत बनाओ | नदी पार कर लेने के उपरांत नाव को किनारे पर ही छोड़ना होता है, नाव के साथ आसक्ति रखकर उसी में बैठे रहने से पार नहीं हुआ जाता | आप शरीर नहीं है अतः इसके साथ मत बंधो बल्कि इस शरीर का सदुपयोग कर मुक्त हो जाओ | संसार से मुक्त हो जाना ही संसार सागर के पार होना है |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||
विज्ञान से ज्ञान की ओर की आगे की यात्रा को समझने के लिए परमात्मा की दूसरी प्रकृति को समझना आवश्यक है | परमात्मा अपनी पहली अपरा प्रकृति का विज्ञान अर्जुन को समझा कर अब दूसरी, परा प्रकृति का ज्ञान प्रारम्भ कर रहे हैं-
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् || गीता-7/5 ||
अर्थात हे महाबाहो ! उपरोक्त वर्णित अष्टधा अपरा प्रकृति के अतिरिक्त जो दूसरी प्रकृति, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीव रूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान |
अपरा प्रकृति के आठों तत्व एक साथ मिलकर भी शरीर का निर्माण तो कर सकते हैं, परन्तु वह शरीर अचेतन ही है | अपरा प्रकृति के साथ जब परा प्रकृति का संयोजन होता है, तभी शरीर को चेतनता प्राप्त होती है | यह दूसरी प्रकृति जीव रूपा है अर्थात निर्जीव को जीवन प्रदान करती है | परमात्मा की इस दूसरी प्रकृति के बिना इस संसार में जीवन असंभव है | यह दूसरी परा प्रकृति ही इस संसार के जीवन-चक्र का आधार है |
वास्तव में देखा जाए तो अष्टधा प्रकृति केवल स्थूल से सम्बंधित है और स्थूल सदैव ही परिवर्तनशील है | परा प्रकृति जो स्थूल को चेतनता प्रदान करती है, वह सूक्ष्म प्रकृति है | दोनों प्रकृतियाँ एक ही परमात्मा की देन है, फिर भी दोनों भिन्न है | समस्या तो तभी पैदा होती है जब चेतन प्रकृति को भूलकर मनुष्य अपने आपको केवल स्थूल प्रकृति का ही समझने लगता है | आप स्वयं चेतन है और आपका यह भौतिक शरीर अचेतन है, फिर आप यह शरीर कैसे हो सकते हैं ? हमारी भूल यही तो है कि हम अपने आप को मात्र एक शरीर ही समझने लगे हैं | आप नाव से नदी पार कर सकते है परन्तु नदी पार करने के लिए आप नाव में बैठकर स्वयं नाव तो नहीं हो जाते न | यह शरीर भी आपको संसार सागर से पार जाने के लिए नाव की तरह एक उपकरण मात्र मिला है | इसे पार उतरने का एक साधन भर समझो | केवल और केवल इसी को सुरक्षित रखने को ही साध्य मत बनाओ | नदी पार कर लेने के उपरांत नाव को किनारे पर ही छोड़ना होता है, नाव के साथ आसक्ति रखकर उसी में बैठे रहने से पार नहीं हुआ जाता | आप शरीर नहीं है अतः इसके साथ मत बंधो बल्कि इस शरीर का सदुपयोग कर मुक्त हो जाओ | संसार से मुक्त हो जाना ही संसार सागर के पार होना है |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||
No comments:
Post a Comment