ज्ञान-विज्ञान-9
संसार से विमुख होकर ज्ञान प्राप्ति के
लिए योगी बन जाना और फिर परमात्मा के परायण हो जाना आपको विज्ञान के उद्गम स्रोत
ज्ञान तक ले जा सकता है | किसी भी पेड़ की मूल तक पहुँचने के लिए आपको पहले पत्तियों
से तने तक पहुंचना होगा और फिर उस तने से उस पेड़ की मूल तक जाना होगा | अगर आपकी
यात्रा की दिशा पत्तियों से पुष्प और फल की ओर है, तो फिर आपको इस संसार में वापिस
लौटना ही होगा | पुष्प और फल की ओर जाने की यात्रा विज्ञान की यात्रा है, जबकि पेड़
की मूल की ओर की यात्रा ज्ञान प्राप्ति की यात्रा है | जब तक हम मूल को नहीं जानेंगे,
तब तक हमारे हाथ ज्ञान के स्थान पर अविद्या ही लगती रहेगी | अविद्या आपको संसार
में ही भटकाती रहेगी, बंधन ही पैदा करती रहेगी, कभी भी मुक्त नहीं होने देगी | पुष्प
व फल की ओर की यात्रा बाहर की यात्रा है और मूल की ओर की यात्रा स्वयं के भीतर की
यात्रा है | अतः आवश्यक है कि हमारी यात्रा बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी हो |
जब आपकी यात्रा मूल की तरफ हो तो आप एक
दिन मूल को जान ही लेंगे और एक बार मूल को जान लेते ही समस्त पेड़ को जान जायेंगे |
मूल को जानकर पेड़ को जान लेना ही ज्ञान है, जबकि केवल पुष्प अथवा फल को जान लेना विज्ञान
है | जैसे अव्यक्त, अर्थात दिखाई न पड़ने वाली मूल के बिना व्यक्त, अर्थात पेड़ का
कोई अस्तित्व नहीं है और न ही उस पर खिलने वाले पुष्प अथवा लगने वाले फल का | ठीक
इसी प्रकार उस अदृश्य परमपिता के बिना इस संसार, इस भौतिक जगत की कल्पना नहीं की
जा सकती | हमें इस व्यक्त के पीछे छुपे हुए अव्यक्त का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा
हम केवल व्यक्त को ही महत्त्व देते रहेंगे और व्यक्त का होना बिना अव्यक्त के हुए
असंभव है | इस बात को भगवान श्री कृष्ण
गीता में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्
|
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्
|| गीता-15/1 ||
अर्थात आदिपुरुष
परमेश्वर रूप मूल वाले (परमात्मा) और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप
पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं, उस संसार रूप
वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला
है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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