Sunday, August 28, 2016

ज्ञान-विज्ञान-21

ज्ञान-विज्ञान-21 
                 इस बात को कि सम्पूर्ण जगत का कारण मैं ही हूँ, और अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सूत और उससे गूंथी मणियों का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं-
                    मतः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय |
                    मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || गीता-7/7 ||
                               अर्थात हे धनञ्जय ! मेरे सिवाय इस जगत का कोई दूसरा थोडा-बहुत भी कारण नहीं है | जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोई हुई होती है, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत मेरे में ही ओतप्रोत है |
                              आप एक लम्बी सूत की डोरी लें और उस डोरी से डोरी में ही मणियाँ बनायें | इस प्रकार जब आप इस डोरी में मणियाँ बना लेते हैं, तब यह एक माला बन जाती है | इस माला को देखने से हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सूत की डोरी में मणियाँ पिरोई हुई है, जबकि मणियाँ भी सूत से ही बनी हुई है और डोरी भी सूत ही है | इस मणियों की माला में केवल सूत ही सूत है, सूत के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का उपयोग नहीं किया गया है | अगर इस मणियों की माला को गंभीरता से देखा जाये तो इसमें सूत के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देगा | इसी प्रकार संसार का कारण भले ही दो अलग प्रकार की प्रकृतियों का संयोजन हो, दोनों ही परमात्मा के कारण है | अतः यह स्पष्ट है कि संसार में प्रत्येक वस्तु, प्राणी, दृश्यमान अथवा अदृश्य, परमात्मा के अतिरिक्त कही पर भी कुछ अन्य नहीं है | इस श्लोक में यही स्पष्ट किया गया है कि यह सम्पूर्ण जगत मेरे में ही ओतप्रोत है, भले ही इसमें विभिन्नता दिखाई दे रही हो |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

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