Thursday, August 18, 2016

ज्ञान-विज्ञान-16

ज्ञान-विज्ञान-16
विज्ञान, ज्ञान और परमात्मा के परायण होना, पढ़ने और सुनने में बड़े ही सरल शब्द लगते हैं परन्तु जब इन शब्दों की गहराई में जाना होता है, तभी इनका गूढ़ रहस्य समझ में आता है | गीता के इस सातवें ज्ञान-विज्ञान अध्याय में भगवान श्री कृष्ण इसी गूढ़ रहस्य को अपने शिष्य अर्जुन के सामने स्पष्ट कर रहे हैं | चौथे श्लोक से ‘विज्ञान से ज्ञान की ओर’ भगवान धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं तथा अर्जुन को सर्वप्रथम इस मनुष्य शरीर का विज्ञान समझा रहे हैं-
भूमिरापोSनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || गीता-7/4 ||
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार आठ प्रकार से विभाजित मेरी अपरा यानि जड़ प्रकृति है |
इस श्लोक में जो भी आठ भेदो वाली जड़ प्रकृति भगवान ने बताई है, वे सब उस ज्ञान के अंतर्गत आती है, जिसे विज्ञान कहा जाता है | ये सब या तो दृश्यमान है या फिर हमारे द्वारा अनुभव की जा सकने वाली है | जो कुछ भी इस शरीर की भौतिक दृष्टि से दिखाई देने वाली अथवा अनुभव करने वाली प्रकृति है, वे सभी विज्ञान जानता है | पंचतत्व, जिनसे यह शरीर बना है, उस में अवस्थित मन, बुद्धि और अहंकार सभी आठों भेद वाली प्रकृति संयुक्त रूप से अपरा प्रकृति कहलाती है | यह प्रकृति परिवर्तनशील है, इसलिए इसे जड़ अथवा स्थूल प्रकृति भी कहा जाता है | यह प्रकृति समस्त प्राणियों की देह का निर्माण करती है और उनके जीवन काल में दिन प्रतिदिन अथवा यूँ कह सकता हूँ कि प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है | केवल इस अपरा प्रकृति का ज्ञान होना सम्पूर्ण ज्ञान न होकर मात्र विज्ञान ही है | परमात्मा की इस अष्टधा अपरा प्रकृति का ज्ञान, विज्ञान बनकर आपको अपनी भौतिक देह को आधि-व्याधि से मुक्त रखने का मार्ग दिखलाता है |
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

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