ज्ञान-विज्ञान-14
ज्ञान-मार्ग अवश्य ही श्रेष्ठ मार्ग
है, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता, परन्तु इस मार्ग की सबसे बड़ी कमी इस मार्ग से
विचलित हो जाने की ही है | परमात्मा के प्रति परायण होना इस मार्ग से विचलन को रोक
सकता है | रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
‘ग्यान पंथ कृपान के
धारा | परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो निर्विघ्न पंथ
निर्बहई | सो कैवल्य परम पद लहई ||’ (उत्तरकाण्ड-119/1-2)
अर्थात ज्ञान का
मार्ग दुधारी तलवार की धार के समान है | हे पक्षिराज ! इस मार्ग से गिरते देर नहीं
लगती | जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) परमपद को
प्राप्त करता है |
गोस्वामीजी की यह एक विशेषता है कि वे भीतर
तक पहुंचकर असर कर जाये, ऐसी मर्म की बात को बड़ी ही सादगी से कह देते हैं | गरुड़,
जो कि भगवान का वाहन है, उसे भी स्वयं को बड़ा होने का अभिमान हो गया था | एक बार उसे
भ्रम हो गया था कि संसार के लोगों को बंधनमुक्त करने वाले परमात्मा को एक बार बंधन
से मैंने ही मुक्त किया था | त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम नागपाश में बंध गए
थे तब मैंने ही उन्हें मुक्त किया था | इस प्रकार मैं श्री राम से भी बड़ा हूँ | यह
उसका अहंकार था | उसे इस अहंकार से मुक्त करने के लिए काकभुसुंडि जी के पास भेजा
गया | कौआ पक्षियों में निम्नतम स्तर का पक्षी माना जाता है और गरुड़ तो स्वयं पक्षियों
का राजा है ही | व्यक्ति का अहंकार भी तभी टूटता है, जब उससे निम्न श्रेणी का
व्यक्ति कोई ऐसी बात कह दे जो उसको भीतर तक छू जाये | ऐसी स्थिति में उसका अहंकार
गिर जाता है और वह वास्तविकता से परिचित हो जाता है |
परमात्मा की मर्जी है कि वे इस संसार
में किससे कौन सा कार्य करवाए ? हमें यह भ्रम अपने मन में कभी भी नहीं पालना चाहिए
कि मेरे अतिरिक्त यह कार्य कोई और व्यक्ति नहीं कर सकता | ज्ञान हमें अहंकार
ग्रस्त कर सकता है, इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए | हमें तो प्रत्येक सत्कर्म को
अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि परमात्मा ने यह कार्य करवाने के लिए लाखों व्यक्तियों
में से केवल मुझे ही योग्य समझा है | ‘यह सब केवल उस प्रभु की ही मुझ पर असीम कृपा
है’, सदैव ऐसा मानना ही आपकी परमात्मा के प्रति परायणता है | अतः ज्ञान के साथ
परमात्मा के प्रति परायणता रखने से ही उसके परम स्वरूप को यथार्थ रूप से जाना जा
सकता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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