हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा,
हरिद्वार से
प्रातः कालीन
प्रार्थना सत्र से-दिनांक-24/8/2016
आज प्रातः कालीन प्रार्थना
सत्र में आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी
महाराज के सद् साहित्य से उद्घृत करते हुए स्वरूप और स्वभाव का तुलनात्मक वर्णन
किया | मनुष्य का स्वभाव कई कारक मिलकर बनाते है जबकि उसका स्वयं का स्वरूप उसके
स्वभाव से बिलकुल भिन्न होता है | व्यक्ति का स्वभाव कई कारकों पर निर्भर करता है
जैसे माता-पिता और वंश पर, पूर्वजन्म के संस्कारों पर, चारों और के वातावरण पर और
संगति पर | व्यक्ति अपने आप को वैसा ही मान बैठता है जैसा कि उसका स्वभाव है, जबकि
उसका स्वरूप ही स्वयं उसका ही होता है, उस पर किसी अन्य का प्रभाव नहीं पड़ता है |
स्वामी जी कहते थे कि व्यक्ति को अपना स्वरूप पहचानना होगा | जड़ तत्वों में आसक्ति
रखने के कारण वह अपना वास्तविक रूप को भूला बैठा है | जड़ तत्वों में ध्यान रखने से
जड़ की ही प्राप्ति होगी | जड़ तत्व असत् है और स्वरूप सत है | व्यक्ति को असत् को
छोड़कर सत को पकड़ना होगा | इस कार्य में मन की भूमिका महत्वपूर्ण है | मन भी ईश्वर
का स्वरूप है, अतः इसको जड़ की तरफ आसक्त मत होने दो, इसको परमात्मा में लगा दो |
मन बड़ा ही चंचल है, यह कभी खाली नहीं बैठ सकता | मन को नियंत्रित कर परमात्मा में
लगा देने से व्यक्ति अपने स्वरूप को उपलब्ध हो जायेगा |
दिनांक-25/8/2016
प्रातःकालीन प्रार्थना-सत्र
स्वरूप पर स्वामीजी की बात को कल से आगे
बढ़ाते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि व्यक्ति का स्वभाव उसके कर्मों
से बनता है और उसी स्वभाव के वशीभूत होकर फिर वह कर्म करता है | इस प्रकार यह
स्वभाव से कर्म करने की और कर्म से स्वभाव बनने की क्रिया चलती रहती है | स्वरूप
पर इस क्रिया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है | क्रियाएं सभी स्वभाव में होती रहती है |
जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान जाता है, तब कर्मों का प्रकार भी परिवर्तित
हो जाता है | कर्मों में यह परिवर्तन स्वभाव को भी परिवर्तित कर देता है |
हमारा स्वरूप मूलतः परमात्मा का स्वरूप है
जिससे हमारी और परमात्मा की एक ही जाति हुई | जाति का जाति के प्रति एक प्रकार का विशेष
आकर्षण होना स्वाभाविक है | परन्तु यहाँ पर इसके ठीक विपरीत होता है | जब हमारा स्वरूप
स्वभाव के संपर्क में आता है तब वह उसी को अपना स्वरूप मानने लगता है | इसमें मन
की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है | मन बड़ा ही चंचल है, यह मन का स्वभाव है | मन
के वशीभूत होकर ही हम अपने स्वरूप को भूल जाते हैं |
दिनांक-26/8/2016
प्रातःकालीन प्रार्थना-सत्र -
प्रातःकालीन प्रार्थना और नियमित अन्य
कार्यक्रमों के अंत में स्वामी रामसुखदासजी की पुस्तक में से उद्घृत करते हुए
आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने स्वभाव और स्वरूप के बारे में विस्तार से बताते
हुए कहा कि ‘मैं’ स्वरूप का नाम है न कि शरीर का | स्वभाव का शरीर से सम्बन्ध है
जबकि स्वरूप का परमात्मा से | जिस दिन हम अपने स्वरूप को पहचान लेंगे, समता को
प्राप्त कर लेंगे | जब तक हम स्वभाव के वशीभूत हैं तब तक मोहग्रस्त हैं और तब तक
ही हम में विषमता है | लड़ाई-झगड़ा, लाड-दुलार और तेरा-मेरा सब का सब स्वभाव है, हमारा
स्वरूप नहीं |
जितनी भी क्रियाएं अथवा कर्म होते हैं,
स्वभाव के कारण होते हैं, स्वरूप के कारण नहीं | मनुष्य को भगवान ने स्वयं की
इच्छा से कर्म करने का अधिकार दिया है और सोचने समझने का विवेक भी, जबकि अन्य
प्राणियों को ऐसी किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी है | फिर भी हम स्वभाव के
वशीभूत होकर भोगों में आसक्त हो जाते है और वैसे ही क्रियाएं करने लगते हैं, जैसी
कि पशु-पक्षी करते हैं | हमारा स्वरूप परमात्मा का है और हमें अपने स्वभाव को
बदलना होगा और स्वभाव तभी बदलेगा जब हम अपने स्वरूप में स्थित हो जायेंगे | स्वरूप
में स्थित व्यक्ति से कभी विकर्म नहीं होंगे बल्कि उसके सभी कर्म भी अकर्म हो जाते
हैं | वह परमात्मा की तरह सब कुछ करते हुए भी कुछ भी नहीं करेगा | स्वरूप को पहचान लेने से मन का स्वरूप में ही विलय हो
जाता है, अलग अस्तित्व प्रभावी नहीं रहेगा | अतः स्वभाव को छोड़ स्वरूप के साथ जीना
ही जीवन-मुक्त हो जाना है |
कल से हम पुनः ‘ज्ञान-विज्ञान’ पर
आगे चर्चा प्रारम्भ करेंगे |
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment