Sunday, August 21, 2016

ज्ञान-विज्ञान-19

ज्ञान-विज्ञान-19 
                              हमने संक्षेप में परमात्मा की अपरा और परा प्रकृति के बारे में विचार किया | अपरा प्रकृति को जानना विज्ञान है और परा प्रकृति को जान लेना ज्ञान है | विज्ञान से ज्ञान की इस अवस्था तक पहुँच जाने के बाद भी हम परमात्मा को जानने से अभी भी बहुत दूर हैं | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - 
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधाराय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा || गीता-7/6 ||
          अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने में अपरा और परा-इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही कारण है- ऐसा तुम समझो | मैं ही सम्पूर्ण जगत का प्रभव और प्रलय हूँ |
           जब परमात्मा कहते हैं ‘एकोSहम् बहुस्यामि’, इसका अर्थ है कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ अर्थात परमात्मा को अपने स्वरूप को विभाजित करना है | एक से अनेक होने के लिए उन्हें प्रारम्भ में अपने में दो रूप पैदा किये, जो उनकी दो प्रकृतियाँ कहलाती हैं | यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि ये दोनों प्रकृतियाँ उन्होंने अपने स्वयं के भीतर ही प्रकट की, अपने से बाहर दो में विखंडित नहीं किया | एक से अनेक हो जाने का अर्थ यही है कि चाहे परमात्मा एक से अनेकों रूप में परिवर्तित हो जाये, प्रत्येक अंश में वे स्वयं उपस्थित अवश्य ही रहेंगे और साथ ही साथ जितने भी अंश पैदा होंगे सभी उनमें ही अवस्थित रहेंगे | आप एक स्वर्ण के टूकडे को दो अथवा दो से अधिक भागों में विभाजित का देंगे तो भी उसके प्रत्येक भाग में स्वर्ण अवश्य ही रहेगा | इससे भी अधिक उपयुक्त एक उदाहरण और देना चाहूँगा | प्रत्येक चुम्बक में दो सिरे होते है जिन्हें ध्रुव कहा जाता है-यथा उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव | इस चुम्बक के दो या दो से अधिक भाग किये जाये तो भी प्रत्येक अंश में स्वतन्त्र चुम्बक के गुण बने रहेंगे और प्रत्येक में यही दो ध्रुव उपस्थित होंगे | इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक प्रकृति में उपस्थित है, चाहे वह अष्टधा जड़ प्रकृति हो या चेतन परा प्रकृति | जिस दिन इस बात का हमारे अंतर्मन को ज्ञान हो जायेगा, हमें संसार की प्रत्येक वस्तु, प्राणी आदि में परमात्मा के दर्शन होंगे |
क्रमशः 
|| हरिःशरणम् ||

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