ज्ञान-विज्ञान-7
ज्ञान - विज्ञान में अंतर स्पष्ट हो जाने पर
हम यह समझ सकते हैं कि इस संसार में जानने योग्य क्या है ? भौतिकता का ज्ञान
विज्ञान है, अतः यह अविद्या ही है | जो विद्या अथवा ज्ञान हमें परिवर्तनशील का
ज्ञान कराता है, वह स्वयं भी सदैव ही परिवर्तनशील अवस्था में रहता है | फिर ऐसी
विद्या ज्ञान कैसे हो सकती है क्योंकि ज्ञान तो सदैव ही किसी भी परिवर्तन से परे
और स्थाई है | इसी लिए विज्ञान को अविद्या कहा गया है | आइये, अब हम भी अर्जुन के
साथ विज्ञान सहित ज्ञान को जानने का प्रयास करते हैं | भगवान श्री कृष्ण गीता में
आगे कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति
सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति
तत्त्वतः || गीता 7/3 ||
अर्थात हजारों
मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वालों योगियों
में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है |
हजारों मनुष्यों में से कोई एक, अर्थात
अपवाद स्वरूप ही किसी एक व्यक्ति के मन में विज्ञान से परे जाकर ज्ञान को प्राप्त
करने की उत्कंठा पैदा होती है अन्यथा अधिकतर व्यक्ति तो भौतिकता के ज्ञान को ही वास्तविक
ज्ञान समझ उसी में रमे रहते है और तत्वज्ञान के बारे में कल्पना तक नहीं करते हैं,
उसे प्राप्त करने का प्रयास करना तो बहुत दूर की बात है | ऐसे ही जिनके मन में वास्तविक
ज्ञान को प्राप्त करने की उत्कंठा पैदा होती है, वे इसके लिए प्रयास करते हैं |
उनमें से भी कोई एक परमात्मा को यथार्थ रूप से जान सकता है परन्तु उसके लिए भी यह
आवश्यक है कि वह परमात्मा के परायण हो | इस श्लोक के अर्थ से आप समझ सकते हैं कि
तत्वज्ञान को प्राप्त करना कितना मुश्किल है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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