परमात्मा की इन दो, परा और अपरा प्रकृति में संयोग
का कारण भी स्वयं परमात्मा ही है | जो स्वयं के भीतर अपने आप को विभाजित कर सकता
है, उसी प्रकार वह वापिस संयोजन भी करा सकता है | भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में अर्जुन
को यही समझा रहे हैं कि सम्पूर्ण
प्राणियों के उत्पन्न होने का कारण इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों का एकीकरण ही है
अन्यथा इनमें विलगता (Isolation) रहने तक जीवन संभव नहीं है | जहाँ कहीं भी इन
दोनों प्रकृतियों का संयोजन नहीं हो पाया है, वहां अपरा प्रकृति तो दृष्टिगत है और
परा प्रकृति अदृश्य ही है क्योंकि परा प्रकृति को दृश्यमान होने के लिए अपरा के
साथ संयोजन करना ही होगा और यह संयोजन बिना परमात्मा के संभव नहीं हो सकता |
पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों अथवा उपग्रह पर विज्ञान अभी भी जीवन के लक्षण खोज
नहीं पाया है | जिस दिन हमारी पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य गृह पर जीवन प्रारम्भ होगा,
इन दोनों प्रकृतियों में संयोग से ही होगा अन्यथा नहीं | दोनों प्रकृतियों में संयोग
अथवा पुनः विलगन केवल परमात्मा के हाथ है, तभी इस श्लोक में वे कहते हैं कि मैं ही
समस्त जगत का प्रभव और प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ |
श्रीमद्भागवत महापुराण में कपिल भगवान् अपनी
माता देवहूति को कहते हैं-
जीवो ह्यस्यानुगो देहो
भूतेन्द्रियमनोमयः |
तन्निरोधोsस्य मरणमाविर्भावस्तु
सम्भवः || भागवत- 3/31/44 ||
अर्थात जीव का
उपाधिरूप लिंग शरीर (चेतन) तो मोक्ष पर्यंत उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और
मन का कार्यरूप (स्थूल) शरीर इसका भोगाधिष्ठान है | इन दोनों का परस्पर संगठित
होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ है और दोनों का साथ –साथ प्रकट होना ‘जन्म’
कहलाता है |
इस प्रकार भागवत में भी यह स्पष्ट
है कि चेतन और स्थूल का संयोग ही संसार का प्रभव है और इन दोनों का विलगन प्रलय |
लिंग शरीर (जीवात्मा) जो कि भोक्ता है और यह स्थूल शरीर उन भोगों का अधिष्ठान है |
जीवात्मा अपनी कामनाओं और उनको पूर्ण करने के लिए शरीर द्वारा किये गए कर्मों का
फल भोगने के लिए स्थूल शरीर को अधिग्रहित करती है | दोनों ही परमात्मा के अधिकार
क्षेत्र में है, बिना परमात्मा के किसी एक का भी अस्तित्व संभव नहीं है, इस प्रकार
इन दोनों, प्रभव और प्रलय का मूल कारण परमात्मा ही हुए |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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