ज्ञान-विज्ञान-13
गुरु ही आपके शास्त्रीय स्वाध्याय को परमात्मा
के द्वार तक ले जाने में सक्षम है | इस संसार में अथाह ज्ञान पुस्तकों में भरा पड़ा
है, फिर भी चारों और अज्ञान ही अज्ञान फैला हुआ दिखाई देता है | ऐसा क्यों है ? आज
किसी को कोई भी बात जाननी हो, वह तुरंत ही गूगल पर खोज लेता है | फिर भी वह जो
जानना चाहता है, क्या गूगल उसको स्पष्ट कर सकता है ? नहीं, कदापि नहीं क्योंकि गूगल
केवल गूगल है, वह गुरु नहीं हो सकता | गूगल
में केवल विज्ञान भरा गया है, ज्ञान नहीं | वह मात्र सूचना दे सकता है, उस बात की,
जो विज्ञान कह रहा है | विज्ञान से ज्ञान की यात्रा तो केवल गुरु ही करवा सकता है,
जैसे कि अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण गीता में करवा रहे हैं | गुरु के कारण तो एक
साधारण जुलाहा कबीर भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया था | तभी तो कबीर कह उठा-
‘पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथ |
आगे थे सत् गुरु मिला, दीपक दिया हाथ ||’
कबीर कहते हैं कि संसार में मैंने लोगों
से ज्ञान की बातें बहुत सुनी, वेदों और शास्त्रों में लिखी बाते भी सुनी और अपने
जीवन में उन सुनी हुई बातों का अनुसरण भी करता रहा, परन्तु फिर भी ज्ञान को उपलब्ध
नहीं हुआ, परमात्मा से फिर भी दूरी बनी रही | मेरा परम सौभाग्य, जो ज्ञान-मार्ग
में आगे बढ़ने पर मुझे आदर्श गुरु मिले, जिन्होंने मेरे हाथ में दीपक रख दिया | दीपक
हाथ में देने का अर्थ है कि गुरु ने मुझे परमात्मा के परायण कर वास्तविक ज्ञान से
प्रकाशित कर दिया |
कबीर गुरु की भूमिका को शास्त्रीय
ज्ञान से बहुत ऊपर मानते हैं | वे कहते हैं कि पढ़ा हुआ और पीढ़ियों से विरासत में मिल
रहा ज्ञान, दोनों ही आपको परमात्मा की दिशा नहीं बता सकते | ऐसा ज्ञान आपको केवल
भ्रमित ही कर सकता है | ऐसा ज्ञान विज्ञान की श्रेणी में आता है क्योंकि वह सब
सूचना मात्र है | विज्ञान की सभी सूचनाएँ अपने आपको ही सत्य मानने को विवश करती हैं,
जबकि वह स्वयं परिवर्तनशील है और परिवर्तित होनेवाला कभी भी सदैव के लिए सत्य नहीं
हो सकता | ज्ञान सत्य है और सत्य प्रत्येक काल और परिस्थिति में सदैव समान रहता है,
अतः इसके बारे में कभी भ्रम कि स्थिति पैदा नहीं होती, जबकि विज्ञान परिवर्तनशील है
जो सदैव अपने बारे में भ्रम ही पैदा करता है | विज्ञान से पैदा हुए भ्रम को केवल
गुरु ही मिटा सकता है |
‘गुरु कृपाल कृपा जब कीन्ही, हिरदै कँवल विगासा |
भागा भ्रम दसों दिसि सूझ्या, परम
ज्योति परगासा ||’
कबीर कहते हैं कि पढ़े, सुने ज्ञान को
गुरु की कृपा से उसी प्रकार विकसित किया जा सकता है जैसे कमल जल में धीरे धीरे खिलता
है | उस ज्ञान को विकसित करने का अर्थ है, उस ज्ञान से पैदा हुए अथवा हो सकने वाले
भ्रम को दूर कर देना | गुरु की कृपा होने से भ्रम मिट जाता है और परमात्मा का
यथार्थ ज्ञान हो जाता है | परमात्मा का ज्ञान होते ही दसों दिशाएं एक दम स्पष्ट
दिखाई पड़ने लगती हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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